युद्ध की विभीषिका, प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़, संसाधनों को हथियाने के लिये लालायित बुर्जुआ वर्ग के अधिपति, विस्तारवाद की राजनीति औऱ ऐसे माहौल के बीच ही ख़बर आती है एक भारतीय और एक पाकिस्तानी के नोबल शांति पुरुस्कार मिलने की। सीमा पे युद्ध के आशंकित बादलों को कवर करने के लिये उतावला बैठा मीडिया अचानक, उन व्यक्तित्वों की तह में उतरने लगता है जिसके चलते इन शख्सियतों ने इस प्रतिष्ठित अंंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार को हासिल किया। शांति, हमेशा युद्ध से खूबसूरत, दैदीप्यमान और वजनदार होती है।
मलाला युसुफजई और कैलाश सत्यार्थी। अपने पीछे संघर्ष का एक विस्तृत इतिहास छोड़ा है इन्होंने, तब जाकर इस चमकदार उपलब्धि को हासिल किया है और निश्चित ही ये प्रयत्न जब शुरु किये गये थे तो इन प्रयत्नों का उद्देश्य कतई ये नहीं था कि इन्हें वैश्विक स्तर पर सम्मानित किया जायेगा। यदि ये पुरुस्कार न भी मिला होता तब भी ये संघर्ष इतना ही महान होता जितना आज माना जा रहा है। भले ही इसे इतनी व्यापक पहचान न मिली होती। इस पुरुस्कार के परे भी कई ऐसे लोग हैं जिन्हें कभी कोई सम्मान नहीं मिला लेकिन फिर भी वे अपने प्रयासों से एक सुंदर जहाँ रचने का प्रयत्न कर रहे हैं। सफलता या सम्मान मिल जाने के बाद हमें लोगों का संघर्ष नजर आने लगता है अन्यथा संघर्ष तो कई जगह व्याप्त है। उपलब्धियां सिर्फ उत्कृष्ट प्रयत्नों पर मोहर लगा देती हैं पर ये मोहर न भी हो तब भी उन प्रयासों की सत्यता से इंकार नहीं किया जा सकता।
मेरे इस लेख का उद्देश्य इस पुरुस्कार और पुरुस्कार पाने वालों पर कुछ कहना नहीं है क्योंकि ये बात मीडिया बखूब कर रहा है और पुरुस्कार को सही-गलत ठहराने वाले कई समीक्षात्मक दृष्टिकोण इस प्रचारतंत्र में नजर आ रहे हैं। इन व्यक्तित्वो का सम्मान होना चाहिये था या नहीं, ये अलग विषय है। नोबेल महानता का पैमाना तय करे ये सही नहीं है क्योंकि कई व्यक्तित्व अपने कार्यों से खुद इतने महान हो जाते हैं कि नोबेल जैसे पुरुस्कार ही उनके आगे बौने नजर आते हैं। क्या गाँधी, विवेकानंद की महानता का पैमाना कोई नोबेल तय कर सकता है?
यहाँ बात है जीवन के सत्यार्थ की, जीवन के असल प्रयोजन की। मौजूदा दौर, जीवन की अगाध व्यापकता को संकुचित कर चंद छद्म स्वार्थों तक सीमित करने वाला है। मैं, मेरा घर, मेरा परिवार, मेरी जाति, कुल, वंश या देश...ऐसे न जाने कितने 'मैं, मेरे और मुझ' के दायरे हमने बना रखे हैं इस 'मेरेपन' या अंधी आत्ममुग्धता में क्या किसी को वसुधैव कुटुंबकम् की संकल्पना समझ आ सकती है। बेशक, हमारे अपने कुछ कर्तव्य उन लोगों के प्रति होते हैं जो हमसे जुड़े हैं लेकिन अपने उस दायरे के भौतिकवादी विस्तार के कारण हम अनायास ही दूसरों के अधिकार क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाते हैं और इस स्वार्थी वृत्ति के परिणाम स्वरूप पैदा होती है अनंत तृष्णा, शोषण, भ्रष्टाचार, अन्याय और अंत में युद्ध। ये जीवन का सत्यार्थ कतई नहीं है।
एक उक्ति है यदि 'हासिल करो तो बांटो, और कुछ सीखो तो सिखाओ'। तमाम प्राप्तियों और हुनर का सर्वोत्तम प्रयोग बस यही है कि जिसमें देने का भाव निहित है। त्याग, करुणा, परोपकारिता और अंत में इन्हीं गुणों से बढ़ते हुए वीतरागता, निर्मोहीपना या स्थितप्रज्ञता तक पहुंचना, यही है जीवन का सत्यार्थ। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की विचारणा 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' अर्थात् परस्पर एक दूसरे का उपकार, इसी संकल्पना से साकार हो सकती है। जीवन के इस सत्यार्थ के पहले ज़रुरी है कि हमें अपनी तमाम स्वार्थी वृत्तियों का मलाल हो।
लेकिन आज की नास्तिक वैज्ञानिकता ने तमाम चरित्रनिर्माण के स्मारकों को पोंगापंथी कहकर, हमें उससे विमुख कर दिया है। जिसके फलस्वरूप जन्मी मैक्डोनाल्ड संस्कृति हमें 'विश करो-डिश करो' की शिक्षा दे रही है। इस दौर में संतुष्टि का भाव कहा खोजा जा सकता है जहाँ अगाध तृष्णा को बढ़ाने के जतन किये जा रहे हैं, और बेतहाशा इच्छाएं अपने फन फैला रही हैं। इन अंधी महत्वाकांक्षाओं से ही जन्मी है तमाम भौतिकवादिता और इस भौतिकवादिता के आभामंडल में ग्रस्त हो हमारा समाज, शिक्षाप्रणाली, साहित्य और सिनेमा भी महज संवेदनहीन मनुष्य का निर्माण कर रहे हैं। जहाँ सिर्फ हड़पने का भाव है देने का नहीं। जीवन का सत्यार्थ भारी बैंक बेलेंस, आलीशान बंगला, गाड़ी और झूठा रुतबा बनकर रह गया है। इन सब चीज़ों को पाकर हमें लगता है कि हमारा विस्तार हो रहा है पर असल में यह मानवीयता के सिकुड़ने का प्रतीक है।
जीवन का सत्यार्थ, अपने व्यवहार से प्राणीमात्र को सुकून देने में हैं...विषमताओं को दूर कर एक वर्गविहीन आदर्श समाज बनाने में हैै..खुद को पर्यावरणोन्मुखी बनाने में है...'मैं' का भाव ख़त्म कर 'हम' का भाव जगाने में है और इस हम में संपूर्ण बृह्माण्ड को ही समेट लेने में हैं। जीवन का सत्यार्थ नोबेल या इस जैसे दूसरे पुरुस्कारों को पा लेने में नहीं, जीवन का सत्यार्थ समस्त आधि-व्याधि और उपाधियों से परे खुद को समझ लेने में है। वास्तव में देखा जाये तो आज सत्यार्थ को नोबेल की जरूरत नहीं, नोबेल को खुद सत्यार्थ प्राप्ति के जतन करना चाहिये...................