Monday, May 25, 2015

सार्थक मनोरंजन की वेदी पे फूटी सृजन की कोपल : तनु वेड्स मनु रिटर्न्स

बॉक्स ऑफिस आनंद एल. राय की बेहतरीन रचनाधर्मिता से गुलजार है। 'तनु वेड्स मनु' अपने पिछले संस्करण से ज्यादा ताजगी, नयापन और सार्थकता के साथ वापस लौटी है। मनोरंजन के गलियारे में सार्थक हास्य धूम मचा रहा है। विवाह और प्रेम की उधेड़बुन हास्य की चासनी में प्रस्तुत है साथ ही ये फिल्म बातों बातों में समाज से कई ज्वलंत प्रश्न भी कर लेती है और हिन्दुस्तान के कई राज्यों और कई समाजों में रची-पची पितृसत्तात्मक सोच पर बड़े प्यार से तमाचा मारती है।


आनंद राय ने कथा को अपने प्रस्तावित उद्देश्य तक ले जाने के लिये इस बार तनु के साथ दत्तो का भी साथ लिया है और दोनों ही किरदारो में कंगना के अभिनय ने एकतरफा साम्राज्य किया है। 'क्वीन' के बाद अब 'तनु वेड्स मनु' ने कंगना को चोटी पर विराजी समकालीन अभिनेत्रियों की श्रेणी में ला खड़ा किया है और कई मामलों में वे मौजूदा दौर की अभिनेत्रियों से भी ऊपर पहुंच गई हैं। कंगना के अभिनय कौशल के लिये अलग लेख की दरकार है फिलहाल बात को निर्देशक आनंद एल राय और तनु वेड्स मनु तक सीमित रखते हैं। 

आनंद राय की फ़िल्में मनोरंजन की तीव्र आग्रही हैं लेकिन मनोरंजन के चलते कभी सार्थक विमर्श गौढ़ नहीं होता। मसलन, रांझणा जैसी विशुद्ध मनोरंजक फ़िल्म प्रेम, धर्म और राजनीति की परतों को उधेड़ते हुए, उनके बीच पल रहे सुप्त मानवीय अहसासों और प्रवृत्तियों को बाहर लाती है लेकिन इस प्रयास के बीच यह कहीं भी गंभीर नहीं होती। आनंद का सिनेमा किसी भी तरह के भारी भरकम संवादों का सहारा लिये बिना गहरी बात कहता है और ऐसा ही तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में देखा जा सकता है। 

आनंद की नायिका अल्हड़ होती है, वो नियमों को तोड़ती है और भारतीय समाज में प्रस्तुत पारंपरिक महिला की छवि को तोड़ते हुए वो करती है जो वह करना चाहती है। लेकिन बावजूद इसके प्रेम की संजीदगी उसी शिद्दत से महसूस करती है जैसी किसी भी दूसरी महिला के हृदय में होती है। प्रेम को लेकर वो कन्फ्यूस होती है पर तमाम संशयात्मक विचारों के बावजूद उसके मन का मोर वहीं जाकर आसरा पाता है जिसे उसने अपना सर्वस्व सौंपा है। वो बेवफा हो सकती है पर बदचलन नहीं। पर समाज महिला की तात्कालिक परिस्थितियों से पैदा बेवफाई को उसके चरित्र से जोड़ देता है और उसे कुल्टा, कुलच्छिनी जैसे सैंकड़ो दुर्नामों से संबोधित किया जाता है।

तनु वेड्स मनु या रांझणा जैसी फिल्मों की सफलता की अहम् वजह इनका मिट्टी से जुड़ा होना है। ये कहानियां किसी कल्पनालोक के आदर्श गगन में विचरण नहीं करती बल्कि हमारे आसपास के यथार्थ को ही प्रस्तुत करती हैं। प्रसिद्ध फिल्म समालोचक जयप्रकाश चौकसे इस बारे में कहते हैं 'हर देश का विशुद्ध देशज सिनेमा ही सार्थक होता है और आनंद राय, तिग्मांशु धुलिया, सुजॉय घोष और अजय बहल जैसे फिल्मकारों के सक्रिय रहते हॉलीवुड का अश्वमेघ भारत में कभी सफल नहीं होगा। सारी तकनीकी चकाचौंध हरियाणवी कुसुम से पराजित होगी। एक करोड़ चौंतीस लाख अप्रवासी भारतीय लोगों की डॉलर ताकत के कारण भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में पश्चिम की भौंडी नकल प्रस्तुत है। इसी कारण हमारा युवा दर्शक फास्ट और फ्युरियस हो गया है और स्वयं को एवेन्जर मान बैठा है।' पश्चिमी मीडिया और शिक्षा के प्रभाव के चलते देश में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की स्थिति है। यही वजह है कि पिज्जा और वर्गर की उपासक इस संस्कृति के मन में रोटी के प्रति उपेक्षाभाव है। हॉलीवुड फ़िल्मों की दीवानगी जता हम खुद को मॉडर्न साबित करना चाह रहे हैं।

फिल्म में ठेठ हरियाणवी कुसुम अपनी वाक्पटुता से अति वाचाल तनुजा का भी मूंह बंद कर देती है और बताती है कि शक्ति का संचार सिर्फ विलायती परिवेश के संपर्क से ही पैदा नहीं होता, हम जड़ों से जुड़े रहकर भी असीम सामर्थ्यवान हो सकते हैं। भारतीय नारी अनादि से अपनी माटी से जुड़ी रहकर ही शक्तिस्वरूपा है यह तो विदेशी प्रभाव है  जिसके कारण वह कॉकरोच देख किसी पुरुष को आवाज देती है। कुसुम आंसू बहाती है और ज़रूरत पड़ने पर कनपटी पे हाथ भी चलाती है। पर आंसू बहाते हुए वो कतई कमजोर नहीं होती और हाथ चलाते वक्त वो असंवेदनशील नहीं होती। आंसू और संवेदनशीलता मजबूती का प्रतीक हैं, कमजोरी तो अपने जज़्बात छुपाने और गुस्सा दिखाने से बयां होती है। मनु को तनु से मिलाते वक्त कुसुम खुद को एथलेटिक्स बताते हुए भीख में मिली सांत्वना लेने से इंकार करती है लेकिन अपने प्रेम के न मिल पाने के कारण छुपकर आंसू भी बहाती है। निर्देशक का प्रस्तुतिकरण कुछ ऐसा है कि इन दोनों ही प्रकरणों में कुसुम की मजबूती ही प्रदर्शित होती है कमजोरी नहीं।

आनंद की पिछली फिल्में रांझणा और तनु वेड्स मनु (प्रथम) तो कहीं-कहीं कमजोर होती हुई भी प्रतीत होती थीं पर तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में ऐसा नहीं है। माधवन का अभिनय संजीदा है और किरदार के अनुरूप यही उनसे दरकार थी। संवादों से ज्यादा उन्हें अपने चेहरे से अभिनय करना था लेकिन इस बीच कहीं भी अति नाटकीय होने की गुंजाईश नहीं थी। ऐसे में कंगना के धमाकेदार दोहरे अभिनय के बीच खुद को समन्वयित रखने के लिये माधवन् का काम निश्चित ही प्रशंसनीय है। इसके अलावा लोंग-इलायची की तरह माइंड-फ्रेशनर के रूप में प्रयुक्त अन्य चरित्र अभिनेताओं का तो कहना ही क्या। इस फिल्म में जितना कंगना और माधवन को याद रखा जायेगा उतना ही पप्पी बने दीपक डोबरियाल, राजा अवस्थी के रूप में जिमी शेरगिल और अन्य किरदारों में स्वरा भासकर और जीशान अयूब को भी याद किया जायेगा।

बहरहाल, फिल्म को समझने  और इसके संबंध में अपनी धारणा बनाने के लिये इस लेख का सहारा कतई न लें क्योंकि यह लेख तो फिर भी बहुत जटिल हो सकता है जबकि फिल्म तो बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में आपका मनोरंजन करती है।