Tuesday, June 9, 2015

समाज के दो भिन्न ध्रुवों पर खड़ी नारियों का प्रतीक : तनुजा और कुसुम

'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' हिन्दी सिनेमा के बेहतरीन दस्तावेजों में शुमार हो रही है। फिल्म में बला की ताजगी है कि टीवी पे नजर आने वाली इसकी क्षणिकाएं बारंबार देखे जाने पर भी आपका मन मोह लेती हैं। कहना चाहिये कि ऐसी फ़िल्में बनाई नहीं जाती बल्कि बन जाती हैं। जिन्हें देखते समय जो आनंद हम महसूस करते हैं वो तो अपनी जगह है पर देखे जाने के लंबे समय बाद ये कुछ ज्यादा ही रस देती हैं। हरियाणवी कुसुम का किरदार सिनेमा के स्वर्णिम इतिहास में निश्चित ही जगह लेगा। गोयाकि किरदार ने कलाकार को गौढ़ कर दिया है और दत्तो के किरदार से तनुजा के पराजय वाले दृश्य को देख कंगना रानौत शायद खुद भूल जायेंगी कि इन दोनों भूमिकाओँ में वे स्वयं अभिनय कर रही हैं।


बहरहाल, हास्य और मनोरंजन के परे भी इस फ़िल्म में कई संगीन अर्थ है। जिनकी हर कोई अपने हिसाब से व्याख्या कर सकता है। फिलहाल यहाँ तनुजा और कुसुम के जरिये भारतीय समाज मेंं नारी दृष्टिकोण के दो भिन्न पक्षों पर मंथन करने को जी चाह रहा है।  तनुजा और कुसुम (दत्तो) महज दो महिलाएं ही नहीं बल्कि दो संस्कृतियां हैं। समाज के दो विरुद्ध ध्रुव हैं। दो अलग सोच हैं जिन पर समाज ने नारी के तमाम Do's & Don'ts तय कर रखे हैं।

तनुजा जहाँ उन तमाम नारियों की प्रतिनिधि है जो भले अपने अरमानों को पंख देती हैं लेकिन दृष्टिकोण के अभाव में जो रास्ता चुनती हैं वो नारीत्व की संजीदगी को उससे कोसों दूर कर देती है। वो आजादख़याल वाली होके भी जिस्म की नुमाइश ही करती नज़र आती है और गाहे-बगाहे खुद को एक वस्तु के तौर पर ही प्रस्तुत करती है। अपने बौद्धिक-भावनात्मक अस्तित्व के परे उसे अपने तन का ही गुरूर है, छद्म आधुनिकता के कलेवर में लिपटी वो मेकअप-ड्रेसिंग और बाहरी आडंबर को ही सब कुछ मान बैठी है और चर्म के मिथ्या उपासक  इस पितृसत्तात्मक समाज में वो अपने ज़िंदा माँस के लोथड़े से जिस्म के भूखे गीदड़ो को लुभाती है। इसके लिये कभी-कभी उसे प्रेम का लॉलीपॉप कुछ पुरुषों द्वारा पकड़ा दिया जाता है। ये वो महिला है जिसकी यूएसपी ब्वॉयफ्रेंड की संख्या से बढ़ती है और फ्लर्टिंग के मार्केट में कमर्शियल डिमांड में इजाफा होता है।

तनु समाज की उस सोच का भी प्रतीक है जो औरत के सेटलमेंट को शादी, हसबेंड, बच्चों तक सीमित मानती हैं। जहाँ उसके बदन को ही उसका वतन माना जाता है। जहाँ खूबसूरती सबसे बड़ा वरदान और समाज द्वारा निर्धारित बदसूरती के मापदण्ड सबसे बड़ा अभिशाप है। जिस समाज का उच्च शिक्षित वर्ग भी आईएएस, डॉक्टर, इंजीनियर या फिर कोई एनआरआई बनने की तमन्ना महज इसलिये पालता है कि इससे उसका विवाह किसी दैहिक सौंदर्य संयुक्त महिला से हो जायेगा और वर्ग-बिरादरी में उसकी मिथ्या प्रतिष्ठा में कुछ स्टार और चस्पा हो जायेंगे। इस सोच से पुरुष अपनी भौतिक उपलब्धियों से मनचाही महिला पाता रहेगा और किसी पद-पैसे-प्रतिष्ठा वाले पुरुष की प्राप्ति को ही महिला की उपलब्धि समझा जायेगा। जिस समाज में महिला का अपना कोई वजूद नहीं, वो पिता-पति और आखिर में पुत्र से ही अपना अस्तित्व गढ़ेगी, यही उसका सौभाग्य माना जायेगा और इसे ही उसके संस्कार कहकर महिमामंडित किया जायेगा।

दूसरी ओर एक देहाती कुसुम का किरदार है। अपने अरमानों को पंख यह भी देती है लेकिन इसकी कोशिश किसी के साये तले अपना वजूद तलाशने की नहीं, बल्कि खुद की पहचान स्थापित करने की है। ये प्रेम को इसलिये नकारती है कि उसकी इस आशिक़ी की नज़ीर कई दूसरी महिलाओं को खुले गगन में उड़ने से रोक सकती हैं और उसका प्रेम सैंकड़ो आजाद ख़याल महिलाओं के चरित्र पर लांछन लगा सकता है। ये वो महिला है जो प्रेम के लिये समाज की रुढ़िवादी सोच के सामने सीना ताने खड़ी हो जाती है और सांत्वना स्वरूप मिली लिजलिजी प्रेम की भावनाओं को ठुकरा भी देती है। फिल्म के आखिर में कुसुम का खुद को एथलेटिक्स बताते हुए कहना कि या तो उसे फर्स्ट आना पसंद है या हार जाना, पर खैरात में मिली सांत्वना की वो कतई आकांक्षी नहीं। यह सोच ही उसे शक्तिस्वरूपा बनाती है। ये वो लड़की है जो आंसू भी बहाती है और ज़रूरत पड़ने पर लोगों के कबूतर भी उड़ाती है। 

ये उस नारी का प्रतीक है जो तथाकथित मॉडर्न नहीं है पर इसे निभाना भी आता है और ज़रूरत पड़ने पर मिटाना भी। ये जोड़ना भी जानती है और तोड़ना भी। जो खुद को सहेज सकती है, बच्चे पाल सकती है और मौका आने पर घर भी चला सकती है। कुसुम छोटे शहरों और देश के गांवों में पल रही उन दबी आकांक्षाओं का प्रतीक है जिनका दहकता लावा रस्म ओ रिवाज़ की कालिख से ठंडा नहीं पड़ता। जिसके सपने छत पर सूख रहे उन कपड़ो की तरह नहीं है जो शाम होते-होते उतार लिये जाते हैं। शादी-बच्चे, घर-परिवार इसके हौसले को पस्त नहीं करते। ये भले एक तरफ पत्नी है, माँ है पर दूसरी तरफ कोई स्पोर्ट्स वूमन, डॉक्टर, साइंटिस्ट, इंडस्ट्रिलिस्ट, आईएएस, आईपीएस या किसी संस्था-संगठन की प्रधान भी है। इसकी निगाहों में दोहरा पैनापन है जो सिर्फ दिल ही नहीं चुरातीं बल्कि अब डराती भी हैं।

तनु वेड्स मनु, पीकू, क्वीन, मैरीकॉम, कहानी जैसी पिछले कुछ वर्षों में आई फ़िल्मों ने महिला के जिस बदले स्वरूप को मुखर किया है वो काबिलेतारीफ है। अब हमारे सिनेमा की नायिका पेड़ों के ईर्द-गिर्द आशिकी फरमाने या गुंडों के बीच असहाय घिरे होने पर नायक को अपनी मर्दानगी दिखाने का मौका देने के लिये ही नहीं है बल्कि अब इसने ब्युटी पार्लर के साथ-साथ जिम जाना भी शुरु कर दिया है। इसके पास जादूई क्लिप है जिससे ये बाल भी बांधती है और दूसरों के सिर भी खोलती है। क्लासरूम के अंदर, किताबों के बीच अब यह लव लेटर ही एक्सचेंज नहीं करती बल्कि उनके जरिये इसने नेवी, एयरफोर्स जैसे पुरुष वर्चस्व वाले क्षेत्रों में दस्तक दे दी है। हाँ कुछ पोंगापंथी, धर्मभीरुता, परंपरा और रुढ़िवाद के मेघ अब भी हैं जो इस प्रभातमा की आभा को खुलकर सामने नहीं आने दे रहे...पर क्षितिज के किसी कोने पर ये निरंतर रोशनी बिखेर रही है। आधी आबादी का सच यही है...वो नहीं, जिसे तुमने बंधनों में जकड़ रखा है।

2 comments:

  1. Anonymous09 June, 2015

    पहले की तरह उम्मीद के मुताबिक तनु वेड्स मनु रिटर्नस की समीक्षा भी काफी रोचक है, और फिल्म देखने के लिए प्रेरित करती है। फिल्म समीक्षा के बहाने समाज में महिला सशक्किरण और मुक्ति की बातें और महिलाओं के प्रति प्रचलित धाराओं पर चोट करने का अंदाज भी अच्छा लगा।

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  2. फिल्म के किरदारों की समीक्षा इससे अच्छी मैंने अभी तक नहीं पड़ी, दत्तो जब अपना परिचय देती है तो लगता है महीला सशक्तिकरण को बखूबी दिखाया गया ..

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