Sunday, June 14, 2015

खूबसूरत बाग में सूखे पत्तों की अहमियत : हमारी अधूरी कहानी

आवारगी, बंजारगी, दीवानगी...ये वो लफ़्ज हैं जो कई मर्तबा समझदारी से ज्यादा मजा देते हैं। समझ हमेशा समझौतों के लिये उकसाती है और दिल हमेशा बने-बनाये नियमों के परे खुले गगन में उड़ने को प्रेरित करता है। दिल की इस स्वच्छंद चाल को बांधने के लिये हमने अनेक परंपराएं, रिवाज़, दायरे और सरहदें खड़ी की है और जीवन को किसी न किसी तरह गुलाम बनाये रखने के ही जतन किये हैं। धर्म, सभ्यता, संस्कार जैसे लफ़्जों से कई मर्तबा हम अपनी पोंगापंथी की ही पैरवी करते नज़र आते हैं और ये सब व्यक्ति को बेहतर बनाने के बजाय उसे दकियानूस ही बनाये रखते हैं हम पढ़-लिखकर भी मूर्ख बने रहते हैं। तथाकथित रीति-नीतियों के नाम पर जकड़े रहते हैं किन्हीं अमूर्त बंधनों में।

और फिर यकायक कौंधती है दिल में प्रेम की बिजली और टूट जाती हैं सरहदें..मिटने लगती हैं सारी परंपरायें..कांप उठती है सभ्यता...दी जाने लगती हैं दलीलें प्रेम का गला घोंटने, कभी समाजों की तो कभी रिवाजो की। प्रेम स्वाभाविक तौर पर आजादी का हिमायती है...स्त्री की आजादी प्रेम में ही छुपी है। प्रेम पर बंदिश लगाकर समाज ने आधी आबादी को दबाये रखने के ही जतन किये हैं। गर स्त्री प्रेम करने लगी तो वो आजाद हो जायेगी, बन जायेगी सशक्त और अपनी सहज शक्तिसंपन्नता से गिरा देगी पौरुष के तमाम रेतीले महल। तो अच्छा है रोक लिया जाये...चाहे जैसे भी उसे प्रेम करने से।

हमारी अधूरी कहानी। दीवानगी और आवारगी की ऐसी ही एक प्रेम कहानी है। जो हर कहानी की तरह अधूरी रहकर भी पूरी है। प्रेम का अधूरापन ही उसकी पूर्णता है। प्रेम, वही है जो मंजिल पर नहीं पहुंचा क्योंकि प्रेम का कोई गंतव्य होता ही नहीं है। मंजिल, ठहराव का नाम है और जहाँ ठहराव है वहां प्रेम दम तोड़ देता है। प्रेम की गति, निरंतर बना रहने वाला प्रवाह ही उसका जीवन है। इश्क़ रास्तों में ही बसर करता है जब भी वो कहीं पहुंच जाता है बस वहीं ये ख़त्म हो जाता है। संपूर्णता एक भ्रम है और इस भ्रम में ही प्रेम का जीवन। 

प्रेम की यही चिरंतन कमी इसकी  खूबसूरती है। ये खिले गुलाबों में नहीं मुरझाये पत्तों में बसता है लेकिन वहां बसकर भी ये उन पत्तों में महक बिखेर देता है। जब कोई प्रेम में होता है तो सब अच्छा लगता है। खुद को लुटाकर भी हम खुद को पा जाते हैं। प्रेम करने को जीवन की कमी समझा जाता है लेकिन इसी कमी से जीवन पूरा होता है। हाँ ये दर्द देता है, आंसू देता है पर आंसूओं और ग़म से ही जीवन बनता है। बड़ा बदनसीब है वो शख़्स जिसने कभी दर्द को महसूस नहीं कया और बड़ी सूखी हैं वो आंखें जो कभी आंसूओं से नम नहीं हुई।

लेकिन कमी भला किसे पसंद है और हम अपनी सारी बुद्धिमत्ता से एक ऐसा जीवन रचना चाहते हैं जिसमें सिर्फ समृद्धि हो, खुशी हो। हम ऐसा बाग चाहते हैं जहाँ हर तरफ बस खिले फूल हों कोई कांटे नहीं, कोई सूखा पत्ता नहीं। पर एक बाग तभी अपनी सहज प्रकृति के साथ जीवित रह सकता है जिसमें खिले फूलों के साथ राह में बिखरे सूखे पत्ते भी पड़े हों। कमियां, अधूरापन इनसे ही खूबसूरती बनती है बेदाग चीज़ कभी खूबसूरत नहीं होती। दरअसल, जीवन की सबसे बड़ी कमी ही ये है कि हम दुनिया में कोई ऐसी चीज़ तलाशते हैं जिसमें कोई कमी न हो।

मोहित सूरी की ये बेहतरीन फ़िल्म प्रेम की दबी पड़ी कई परतों को उधेड़ती है। कई अहसासों को टटोलती है और साथ ही सभ्य समाज से इस पर बंदिशें लगाने के विरोध में कई सवाल भी करती है। फ़िल्म का कथ्य यहाँ प्रकट करना मेरा उद्देश्य नहीं क्योंकि उसके लिये फ़िल्म को देखा जाये वो ही बेहतर है। यहाँ तो बस फ़िल्म को देख मेरे मन में उठे जज़्बातों को बयां करने की कोशिश की है। 

महेश भट्ट का संग पा मोहित अपनी इस कृति में प्रेम की गहराई को छूते हैं। महेश भट्ट और शगुफ्ता रफीक़ की कलम फ़िल्म की असल जान है और फ़िल्म के संवाद असल अभिनेता। जिन्हें निभाते हुए विद्या बालन और इमरान हाशमी भी अपने करियर का उत्कृष्ट अभिनय करते नजर आते हैं। मोहित की पिछली फ़िल्म आशिकी टू और एक विलेन की लिजलिजी और अतार्किक भावुकता से फिल्म बहुत दूर है। मोहित की बजाय महेश भट्ट का असर फिल्म पर साफ परिलक्षित होता है। संगीत, मोहित की बाकी फ़िल्मों की तरह उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप है। कई दृश्य लंबे और धीमे होने से उबाऊ लगते हैं पर यह कमियां फ़िल्म के कथ्य और उद्देश्य के आगे नजरअंदाज करने लायक है। 

बहरहाल, दिमाग से फ़िल्म देखने की जरुरत नहीं है और न ही प्रेम की देखी-पढ़ी-समझी-सुनी परिभाषाओं के अनुसार पूर्वागृही होते हुए ये फिल्म देखें। बस, महसूस किये उन अहसासों को समेट फिल्म देखिये जिनके साथ कभी आपने प्रेम किया हो या कर रहे हों। यकीन मानिये समझदारी और संपन्नत्ता से परे आप खुद को पागलपन और आवारगी के साथ ही खुशनसीब समझेंगे।

2 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  2. लेख की बेहद संतुलित भूमिका बहुत पसंद आई.फिल्म देखी नहीं परन्तु लेख पढने के बाद देखने की इच्छा है..ऐसी फ़िल्में कम ही बनती हैं जो मन के अहसासों की परतों को उधेड़ने की क्षमता रखती हैं .

    ReplyDelete

इस ब्लॉग पे पड़ी हुई किसी सामग्री ने आपके जज़्बातों या विचारों के सुकून में कुछ ख़लल डाली हो या उन्हें अनावश्यक मचलने पर मजबूर किया हो तो मुझे उससे वाकिफ़ ज़रूर करायें...मुझसे सहमत या असहमत होने का आपको पूरा हक़ है.....आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह हैं-