Tuesday, December 1, 2015

ज़िंदगी के रंगमंच पे भरमाये जज़्बातों का 'तमाशा'

दिल ये संभल जाये, हर ग़म फिसल जाये और पलकें झपकते ही दिन ये निकल जाये...शायद यही और इतनी सी ही तो है जिंदगी की जद्दोज़हद। बेवश, लाचार और संघर्ष से लबरेज जिंदगी में चंद सुकूं के पल पाना और उन पलों की निरंतरता को बनाये रखना। क्यूं उड़े कोई पंछी गगन में गर उसे सब कुछ मिले अपने बनाये घरोंदे में...क्यूं दौड़े मरुस्थल में हिरण, गर मिल बैठे उसे अपनी ही जगह पे बेइंतहा नीर...आखिर क्यूं दौड़ाये कोई अपने कदम डगर-डगर, गर चैन मिल जाये उसे अपने ही आशियां में। आखिर कहां, किस डगर और किस नगर में मिलेगा हमारा अपना चैन। क्या बदलें, कहाँ ठहरें, किसे छोड़े और किसे अपनाये जिससे मिले हमारा-अपना चैन। इस अंधी खोज से ही पैदा हुए हैं सभी धर्म-दर्शन, काबा-काशी, बुद्ध-वीर, शिव-जीसस और खुदा। एक उधेड़बुन मिटाने के लिये हमने ये सब बनाये थे पर इनके कारण मेरी-तेरी-हमारी एक और उधेड़बुन शुरु हो गई...और इस तरह खोज में खोजने वाला ही खो गया। तमाशे के किरदार, तमाशा निभाते-निभाते अपना असल परिचय ही भूल गये।

इम्तियाज अली निर्देशित, रणबीर-दीपिका अभिनीत 'तमाशा' कुछ ऐसी ही दार्शनिक उधेड़बुन के पटल पर, भरमाये जज़्बातों वाले उलझे रिश्तों को सुलझाने की एक कहानी है। मसलन जो दिख रहा है वो नहीं है। इस सभ्यता और तथाकथित शिष्टाचार के मिलावटी-झूठे रंगों ने व्यक्ति के असल रंग को ही दबा दिया है। दिल में अधाह व्यग्रता और बेवशी की आग होने के बावजूद इंसां मुस्कुरा रहा है। जैसा ये मानव वाकई में चाहता है वैसा कोई नहीं जी रहा है बल्कि सबने अपना जीवन उस अनुरूप गढ़ लिया है जैसा ये जमाना चाहता है। समझौता, हर तरफ सिर्फ समझौता...अपने अहसासों में, रिश्तों में, करियर में, जीवन के हर कदम पे। इंसान का ये समझौता वो कॉम्प्रोमाइज या त्याग वाला समझौता नहीं है बल्कि ये 'क्या कहेंगे लोग' के डर और अपने मिथ्या प्रदर्शन की भावना के कारण मानवीय कमजोरी वाला समझौता है। इस कमजोरी के चलते हम किसी और की चंद झूठी तारीफों के लिये अपना एक जीवन यूंही तबाह कर देते हैं।

'तमाशा' में भी इम्तियाज की अन्य फ़िल्मों की तरह किरदार बहुत कन्फ्यूज हैं और उनका कन्फ्यूजन फिल्म के अंतिम फ्रेम तक पहुंचते-पहुंचते ही दूर होता है। फिल्म ने किस्सागोई की पुरानी परंपरा को एक मर्तबा फिर जीवित करने की कोशिश की है और कहानियों से इंसान के निर्माण को इम्तियाज ने बखूब बयान किया है। गोयाकि दुनिया की सारी कहानियां एक जैसी हैं बस परिस्थितियां बदली हैं। हीर-रांझा, सीरी-फरियाद, लैला मजनू, राम-सीता, राधा-कृष्ण सभी कहानियां एक जैसे अहसासों से जुड़ी हैं बस मिलन और विरह की वजह बदलती गई हैं। हम चाहें तो इन कहानियों में अपनी कहानी को खोज लें लेकिन उन कहानियों में अपनी ज़िंदगी का रिसोल्युशन या उपसंहार तलाशें तो वो कोरी मूर्खता होगी...हमारी कहानी का रिसोल्युशन हमारा दिल जानता है। बस उसे सभी तरह के भय, लालच या अहंकार से परे देखना जरुरी है। जो उसे देखकर, पहचानकर बस उसे ही चाहते हैं उन्हें वो जरूर मिलता है। जैसा कि इम्तियाज की 'जब वी मेट' में गीत (करीना कपूर) कहती है जो हम एक्चयुअल में चाहते हैं...रियल में, हमे वोही मिलता है"। गर कुछ नहीं मिला है तो हमारी चाहत में ऐब है, ठगी है।

इम्तियाज के पास हमारे समय की सबसे ईमानदार प्रेम कहानियां हैं और वह होना बड़ी बात नहीं है क्युंकि वे और भी बहुतों के पास हैं लेकिन बड़ी बात ये है कि इम्तियाज के पास उनका ईमानदार ट्रीटमेंट भी है। ज़िंदगी में जबरदस्ती का कोई काम ही नहीं है। इसके साथ खींचतान नहीं चल सकती। जो पसंद है वो पसंद है जो नहीं तो नहीं। कुछ भी अनावश्यक प्रयत्न पूर्वक नहीं कराया जा सकता क्योंकि जिन आदतों को हम प्रयत्नपूर्वक पालते हैं बाद में वही हमारा भाग्य बन जाती हैैं और हम उनके दास। इसलिये प्रयत्नों का प्रवाह सहज रुचि के अनुरूप बहने देना जरुरी है किंतु उन रुचियों पर बाहरी प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये। पसंद-नापसंद का भी नितांत नैसर्गिक रहना जरुरी है और इस सहजता के साथ इंसान जहाँ जायेगा वहाँ अपनी असल मंजिल पायेगा। तब वो मंजिल पे पहुंचने का मजा तो लेगा ही, सफर का मजा भी लेगा। बहरहाल, इम्तियाज के निर्देशकीय कौशल पर पहले भी ज़िंदगी के हाईवे पे जज़्बातों का ओवरटेक कराता फ़िल्मकार और प्यार का सुर और दर्द का राग : रॉकस्टार नामक पोस्ट में काफी कुछ कह चुका हूँ। इसलिये यहाँ रुकता हूं।

इस सबके परे 'तमाशा' एक दर्शनीय फ़िल्म है। इम्तियाज की कमजोर फ़िल्मों में भी उनके दार्शनिक दृष्टिकोण की झलक देखने मिलती है तथा वो बहुत ही विरले किसी और निर्देशक में नजर आती है। बेशक, ये फिल्म  प्रस्तुतिकरण के मामले में इम्तियाज की कुछ पिछली फिल्मों की तुलना में कमजोर है पर इसके सुर में कोई फर्क नहीं है। अभिनय के मामले में रणबीर, दीपिका ने कमाल किया है तथा चंद छोटे दृश्यों में नजर आये पीयुष मिश्रा फिल्म के असल प्राण है, कहना चाहिये कि इस तमाशे के सूत्रधार वही जान पड़ते हैं। लोकेशंस शानदार हैं और सिनेमेटोग्राफी कुछ ऐसी है मानो हमारे घरों की सुंदरता बढ़ाने वाली प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त सीनरियों के सामने ही फिल्म के पात्रों को बिठाके कथा बुनी हो। संगीत के लिये ज्यादा स्पेस नहीं है लेकिन जो दो-तीन गाने हैं उनमें ए आर रहमान ने अपनी प्रतिभा का भलीभांति परिचय दिया है। 'तुम साथ हो' गीत में भी हम इम्तियाज की पिछली फिल्मों वाले 'तुमसे ही', 'तुम हो साथ मेरे', 'तू साथ है तो दिन रात है' जैसे गीतों वाली मधुरता देखने मिलती हैं।

फिल्म में इश्क के बिछोह से पैदा तड़प और मिलन के बाद की खुशी को गहरे तक ऑब्जर्व करके इम्तियाज ने दिखाया है। सोचा न था, जब वी मेट, लव आजकल, रॉकस्टार और हाईवे में जो कुछ कहना रह गया था उसे ही इम्तियाज ने आगे बढ़ाया है। इम्तियाज भी गजब के किस्सागो है जहाँ भले उनके पात्र बदल रहे हैं, रंगमंच और उसकी पृष्ठभूमि बदल रही है लेकिन कहानी एक ही है..पर उस एक जैसी कहानी में हर बार कुछ नयापन है...असल में यही तो कहानीकार की खूबी होती है।

10 comments:

  1. Or unhi khoobiyon se wakif kra deti hai aapki bebaak kalam.........

    ReplyDelete
  2. आपने जो "तमाशा" पर रौशनी डाली है वो बेहतरीन है , इम्तियाज़ अली भी शक्रगुज़ार हो जायें। इतनी खूबसूरती से इस मूवी को बयां किया है। बहुत लोगों के समझ से परे रह गयी है ये मूवी वाकई एक बहुत ही बेहतरीन मूवी पठकथा मुझे भी बहुत पसंद आई।

    ReplyDelete
  3. बढ़िया फिल्म समीक्षा प्रस्तुति

    ReplyDelete
  4. जैसा ये मानव वाकई में चाहता है वैसा कोई नहीं जी रहा है बल्कि सबने अपना जीवन उस अनुरूप गढ़ लिया है जैसा ये जमाना चाहता है। समझौता, हर तरफ सिर्फ समझौता...अपने अहसासों में, रिश्तों में, करियर में, जीवन के हर कदम पे। इंसान का ये समझौता वो कॉम्प्रोमाइज या त्याग वाला समझौता नहीं है बल्कि ये 'क्या कहेंगे लोग' के डर और अपने मिथ्या प्रदर्शन की भावना के कारण मानवीय कमजोरी वाला समझौता है। इस कमजोरी के चलते हम किसी और की चंद झूठी तारीफों के लिये अपना एक जीवन यूंही तबाह कर देते हैं।

    दिल खोलकर रख दिया , वाह |

    ReplyDelete
  5. बहुत सुन्दर और रोचक समीक्षा.

    ReplyDelete
  6. कई लोगों के भावों को इस लेख में शब्द मिल गए.....

    ReplyDelete
  7. बहुत ही सुंदर समीक्षा की है आपने। अच्‍छी पोस्‍ट प्रस्‍तुत करने के लिए बहुत बहुत बधाई।

    ReplyDelete
  8. प्रभावशाली समीक्षा......अब तो फिल्म देखनी ही पड़ेगी....

    ReplyDelete
  9. आपकी समीक्षा लाजवाब है पर मुझे फिल्म जैसे टुकड़े टुकड़े में लगी ...

    ReplyDelete

इस ब्लॉग पे पड़ी हुई किसी सामग्री ने आपके जज़्बातों या विचारों के सुकून में कुछ ख़लल डाली हो या उन्हें अनावश्यक मचलने पर मजबूर किया हो तो मुझे उससे वाकिफ़ ज़रूर करायें...मुझसे सहमत या असहमत होने का आपको पूरा हक़ है.....आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह हैं-