Saturday, March 24, 2018

शिक्षक और शिक्षण को आदरांजलि : हिचकी

यादों का हिरण जब कभी अतीत के गलियारों में उछलकूद करता है और गुजरता है अपने बचपन के मनोरम पड़ावों के ईर्द-गिर्द तो उसे गाहे-बगाहे, उस पड़ाव पर कहीं-कोई कुछ खास, एक अदद सा अध्यापक भी खड़ा नजर आता है। ज़िंदगी में पहली मर्तबा मोहब्बत भी शायद हमें हमारे टीचर से ही होती है। लड़का हो तो कोई महिला अध्यापिका और लड़की हो तो कोई पुरुष टीचर...दिल में एक ऐसी जगह बना लेता है जिसे आसमां की ऊंचाई पर ले जाकर पूजने को मन करता है। दिल करता है तनाव के भंवर में उसके कांधे पर सिर रख रोया जाये.. भ्रम के हालातों में अपनी उस भ्रमणा का समाधान तलाशा जाये। "सबका कोई न कोई एक फेवरेट टीचर ज़रूर होता है लेकिन क्या आपको उसकी उस वक्त की सैलरी पता है?"

कुछ ऐसे ही सुर से उठी और इस सुर को और भी सुरीला बनाती, हिन्दी सिनेमा की बेहतरीन फिल्म है हिचकी। तारे ज़मीं पर, इम्तिहान, किताब, जागृति, ब्लैक, हिन्दी मीडियम जैसी फिल्मों के बाद शिक्षक और शिक्षण को एक और आदरांजलि प्रस्तुत करती निर्देशक सिद्धार्थ मल्होत्रा और अभिनेत्री रानी मुखर्जी की ये फिल्म अध्यापक के मायनों को तमाम भौतिक उपलभ्य से परे ले जाती है। भारतीय संस्कृति, साहित्य और समाज गुरु के महात्मय को सदियों से बयां करता चला आ रहा है... सिनेमा ने उस सुर को मौजूदार दौर के मुताबिक तनिक बदले कलेवर के साथ प्रस्तुत किया है लेकिन उसका मूल भाव अब भी वही है। हिन्दी सिनेमा में अध्यापकों के बदलते प्रतिमान पर पहले इसी ब्लॉग पर एक अन्य लेख लिख चुका हूँ।

ये फिल्म अमेरिकन मोटिवेशनल स्पीकर और टीचर ब्रैड कोहेन के जीवन से प्रेरित है जो खुद टॉरेट सिंड्रोम नामक बीमारी के चलते तमाम परेशानियां झेलकर भी कामयाब टीचर बने। उन्होंने अपनी लाइफ पर एक किताब लिखी, जिस पर 2008 में फ्रंट ऑफ द क्लास नाम से अमेरिकन फिल्म भी आई। 'हिचकी' फिल्म कुछ कुछ इसी का  हिन्दी रुपांतरण है लेकिन फिल्म में मौजूद भारतीयता इसकी अपनी मौलिक है जो कि हिन्दी सिनेमा की आत्मा को संजोये हुए है। 

रानी मुखर्जी के जीवंत अभिनय ने इसे सिनेमाई अर्काइव में सहेजकर रखा जाने वाला और गौरव से प्रस्तुत किया जाने वाला दस्तावेज बना दिया है। 'मर्दानी' फिल्म के तकरीबन चार साल बाद सिल्वर स्क्रीन पर वापसी करने वाली रानी के लिये इससे अच्छी कहानी नहीं हो सकती थी और इन्होंने इसके जरिये बताया भी है कि बेहतर अभिनय का कोई विकल्प नहीं हो सकता। अपने दौर की शिखर सितारा रहीं रानी मुखर्जी...एकल महिला सितारा होने के बावजूद अपने दम पर फिल्म खींचकर ऑलटाइम हिट श्रीदेवी की याद दिलाती हैं जिन्होंने इंग्लिश-विंग्लिश और मॉम जैसी महिला-केन्द्रित फिल्मों से सफल वापसी कर खुद की प्रतिभा एक बार फिर साबित की थी। 

"हिचकी" नाकामयाबियों और नैसर्गिक कमियों को मूँह चिढ़ाता नायाब सृजन है। ये मेहनत, जिजीविषा और दृढ इच्छाशक्ति का मधुरम राग है जो दर्जनों बार गिरने के बाद भी फिर दोगुने उत्साह से खड़े होने का संबल देता है। जो बताती है कि नाकामयाबियों का चरम पर होना, कामयाबी के करीब होने का इशारा है और उस कामयाबी के दरबाजे पर "बस एक और" दस्तक की दरकार है। ये "क्यों और क्यों नहीं" के फर्क को बयां करता बिगुल है जो नाउम्मीदी के अरण्य में घिरे व्यक्ति को उसके गंतव्य की ओर बुला रहा है। "हिचकी" का कथ्य वो ध्रुुव तारा है जो अवसाद की अंधियारी निशा में घिरे पथिक को दिशा देता है।

ये सिनेमा की उन अनुपम कृतियों में से एक है जिन्हें देखा नहीं जाता बल्कि जो नैनों की जुवां से प्रविष्ट हो जेहन रूपी उदर की भूख को तृप्त करती है और फिर अहसासों की सरगर्मी कुछ ऐसी चढ़ती है जो अपनी अभिव्यक्ति में कई मर्तबा आंखों को भी गीला कर देती है। फिल्म के कई दृश्य भावनाओं का ऐसा ही ज्वार लेकर आते हैं जो कपोलों पर नजर आता है। हम अपनी भावुकता छुपाने के लिये बगल में बैठे शख्स को भी मुड़कर नहीं देखते और बगल में बैठा व्यक्ति भी इसी मनोभाव से दो चार हो रहा होता है।

"हिचकी" में नैना माथुुर (रानी मुखर्जी) का प्रिंसिपल के पद से रिटायर होकर वापस जाने वाला दृश्य व्यक्तिगत तौर पर मुझे काफी भावुक करता है क्योंकि इस नाचीज़ को भी अपने अध्यापन करियर छोड़ने के बादछात्रों द्वारा मिली भावभीनी विदाई स्मृतिपटल पर उभर आती है। संयोग से अब से चार वर्ष पहले, मार्च माह की यही कुछ तारीख रहीं होंगी जब ज़रुरतों की मृगतृष्णा में घायल हो और धन के आभामंडल में मुग्ध हो मैंने अपने पसंदीदा करियर को तिलांजलि दी थी। दुनिया की नजर में शायद में पहले से कुछ अच्छा कर गया हूँ लेकिन वो अफसोस हर पल नासूर बनकर कचोटता है।

बहरहाल, फिल्म का उपसंहारात्मक बोल अध्यापन के क्षेत्र में फैली विसंगति को आईना दिखाता है जब नैना माथुर का प्रतिस्पर्धी रहा अध्यापक अपनी गलती का अहसास होने पर कहता है कि दुनिया का कोई स्टूडेंट बुरा नहीं होता, अध्यापक ही अच्छे या बुरे होते हैं और वास्तव में जो मानवीय तौर पर बुरे होते हैं वे अध्यापक ही नहीं होते। चलते चलते अपने विद्यार्थियों द्वारा दी गई विदाई के वीडियो (नीचे यूट्यूब लिंक पर मौजूद) को याद कर इस फिल्म को जरुर देखने की अनुशंसा करता हुआ विराम लेता हूँ।


इत्यलम्।

4 comments:

  1. हर बार की तरह अदभुत..फिल्म की आत्मा को महसूस करके लिखा गया लेख है..यह सुंदर इसलिए और भी हो गया है क्योंकि इसे एक अध्यापक ने लिखा है

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    1. शुक्रिया। वैसे अब अध्यापक कहाँ रहे हम :)

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  2. Pehli baar aapko padhne ka avsar prapt hua hai... achcha laga... umeed hai bhavishya me aapke anubhavon se ek preranabal prapt hota rahega

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  3. बहुत ही अच्छी समीक्षा ...
    मैंने देखी है फ़िल्म और सच में प्रेरित करती है ...

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