प्रसिद्ध जैन आचार्य अमृतचंद्र उक्त पंक्ति में कहबराहे हैं कि मौत की कीमत पे भी तत्त्व के यानि विश्व के वास्तविक स्वरूप के समझने के कौतुहली बनो। अच्छा! भला कौन की ऐसी बुद्धि फिर गई जो अव्यक्त के कौतूहल में व्यक्त की कद्र न करें, मौत की कीमत पे कोई किसी का कौतुहली होता भी है?
होता है, अमूमन हर रोज होता है, अनेक बार होता है। हालिया उदाहरण देखिए - दो दो करोड़ से ज्यादा खर्च करके सिर्फ टाइटैनिक का मलबा देखने और फोटोग्राफी करने के मंतव्य से अपनी जान गवा बैठे 5 अरबपति। गहन सोच में डालने वाली खबर है, सिर्फ पढ़कर छोड़ने लायक नहीं, अज्ञान जन्य मानवीय प्रवृत्ति की गहन पड़ताल करने वाली खबर। आखिरी समय उनका समय कैसा पीड़ा, संक्लेश परिणामों वाला रहा होगा कोई सोच भी नही सकता।
और अब "ओसीएन गेट" पनडुब्बी में सवार सभी अरबपति मृत घोषित कर दिए गए। उनके पास चाहे कितना ही पैसा था पर आखिरी समय में केवल "जीवित रहने" और धरती पर वापस आने की प्रार्थना रही होगी। मौत की कीमत पे भी अव्यक्त के कौतूहल में इन्होंने व्यक्त की कद्र कहाँ की? अमुक को जानने की इच्छा, अमुक को भोगने की इच्छा, हममें से न जाने किन किन को, किस किस का कौतुहली बनाती है... मौत की कीमत पर भी।
हमारा पर्यटन, हमारा रोजगार, हमारे शौक, हमारा एडवेंचर, हमारे संबंध और... न जाने क्या क्या? ऐसी जाने कितनी चीजें हैं... जो सिर्फ कौतूहलवश की जा रही हैं बिना किसी खास प्रयोजन या हासिल के।
ऐसे में यदि आचार्य विश्व के सर्वोत्कृष्ट हासिल के लिए, मौत की कीमत पे भी तत्त्व के, जड़-चेतन के, स्व-पर के समझने का कौतुहली होने का उपदेश दे रहे हैं तो इसमें क्या बड़ी बात! ये जीवन उस तत्व को समझने में चला भी गया तो कुछ खास नहीं खोया... पर इस कौतूहल में यदि कुछ पा गए तो समझना अनादि भव संतति/संसार चक्र में जो न पा सके, वो अमूल्य अब मिल गया।
जीवन अपने आप में कितना अनमोल है, इसे महत्व दें, इसके लिए आभारी रहें। मिले हुए संसाधनों का सदुपयोग करें, पर प्रीति एकमात्र शुद्धात्मा से ही करें आपके पास ज्यादा समय, शक्ति, बुद्धि व धन हो तो व्यवहार में अधिकतम प्रभावना/वात्सल्य/सेवा आदि में यथायोग्य प्रवृतें; पर श्रद्धान तो इन्हें भी बंध का या दुख का कारण मानने का ही रखें और कौतुहली तो एक निज ज्ञायकभाव/अपने आत्मस्वभाव/ अपने वास्तविक स्वरूप को समझने के ही रहें।
ओसीएन गेट पनडुब्बी में सवार लोगों से Ocean Gate कंपनी पहले ही एफिडेविट ले चुकी थी कि अगर इस 8 घंटे के हैरतंगेज टूर में जान चली जाती है तो उसका कोई क्लेम नही होगा। सोचकर ही रोंगटे खड़े होते है के यह कैसा हैरतंगेज काम था जो लगभग एक सदी पहले डूब चुके टाइटैनिक जहाज का मलबा मात्र देखने का प्रोग्राम था। इस कौतूहल में क्या बौद्धिकता रही है कोई यदि बता दें तो मैं जरूर समझना चाहूंगा।
सोचकर देखो उस जगह पर हजार से ज्यादा लोग पहले ही कई साल पहले अपनी जान गंवा चुके हैं और अब यह लोग भी उन्हीं दिवंगतों की लिस्ट में कुछ संख्याओं का इजाफा करने वाले बन गए, महज एक नंबर। मृतकों का नंबर।
बताईए! इस सहज प्राप्त कौतूहल की ऊर्जा का किस दिशा में उपयोग लाभकारी है... ज्ञान के या स्व के कौतुहली होने में या ज्ञेयनिष्ठ होकर जगत के कौतुहली होने में?🤔
~अंकुर
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