Friday, December 25, 2009
जीनियस की इडियट्स: आल इज बेल
ये आमिर की फिल्म है, इसके डायरेक्टर राजकुमार हिरानी है, चेतन भगत के फेमस उपन्यास पे लिखी गई है। इतनी चीजें काफी है इस फिल्म को देखने के लिए, लेकिन एक बात आपको बता दूँ- इस फिल्म के साथ 'नाम बड़े और दर्शन छोटे' जैसी कोई बात नहीं है। एक लाजबाव फिल्म है, और यकीन मानिये कुछ दिनों बाद आप इस फिल्म का जलवा खुद देखेंगे। और हाँ आप खुद जल्दी से जाकर इसे देख आइये नहीं तो कुछ दिनों बाद गली-गली में इसकी चर्चा सुनकर आप का फिल्म देखने का मज़ा किरकिरा हो जायेगा।
हास्य जब सार्थक अर्थ देने लग जाये तब वह व्यंग्य कहलाने लगता है, कुछ ऐसा ही इस फिल्म के साथ भी है। भारतीय शिक्षा प्रणाली पर गहरा तमाचा है। मुन्नाभाई के द्वारा चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोलने वाले राजकुमार हिरानी ने इस बार इडियट्स के द्वारा शिक्षा कैसे दे? ये पाठ पढाया है। आमिर का एक और करिश्मा लोगों के सामने है। आमिर के परफेक्शनिस्ट की छवि इस फिल्म से और मजबूत होगी।
लोग अब गांधीगिरी की शिक्षा get well soon के बाद इडियट्स की aal is well को रटने वाले है। इस बार मुन्नाभाई m.b.b.s. का dean डॉ अस्थाना नहीं, इंजीनियर कॉलेज के प्रोफेसर बुद्धे परेशान है। फिर एक स्टुडेंट्स ऐसा आता है जिसे टॉप करने की आदत सी हो गई है। सारे बने-बनाये सिस्टम से लड़ता है और बता देता है कि कैसे सारी भारतीय शिक्षा पद्धत्ति सड़ी हुई है। जो भले सफल इन्सान बनाना तो जानती है पर काबिल इन्सान बनाना नहीं।
काफी छुपे हुए तथ्यों को हिरानी ने अपने महीन नज़रिए से निकाल कर दिखाया है। इतना कसा हुआ फिल्म संपादन है कि दर्शक १ सेकेंड का सीन भी मिस करना नहीं चाहता। फिल्म का संगीत स्टोरी को ही आगे बढाता है। आमिर के अलावा बचे हुए दोनों कलाकार मंजे हुए है, शर्मन और माधवन दोनों ने अपना काम बखूबी निभाया है। करीना को करने के लिए बहुत कुछ नहीं है, पर वे भी याद रखी जाएँगी। इसके अलावा लॉन्ग-इलायची कि तरह ठुसे गए छोटे-छोटे पात्र भी लाजबाव है।
फिल्म देखने के बाद झूमने को दिल करता है। फिल्म में कई conflict है फिल्म ख़त्म होते-होते all is well हो जाता है। ये किस टाइप कि फिल्म है, ऐसी तुलना मै नहीं कर सकता। ये अपने टाइप कि सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। महानता के नाते इसे 'लगे रहो मुन्नाभाई', 'रंग दे बसंती', 'लगान' की श्रेणी में रखा जा सकता है। खैर इसका चमत्कार तो आपके सामने आ ही जायेगा।
बहरहाल , मै आमिर का बहुत बड़ा फेन हूँ तो हो सकता है इसकी चर्चा करने में अतिरेक हो गया हो। लेकिन फिल्म बहुत अच्छी है। और इस पोस्ट का टाइम जरूर देख लेना। बाकि समीक्षाये इसके बाद ही आपको पड़ने मिलेगी।
लेकिन देखना ये भी रोचक होगा कि इस फिल्म का प्रभाव लोगो पर कब तक रहता है? क्योंकि हम ताली तो कई चीजों पर बजाते है, पर उसे जीवन में अपनाते नहीं है। सम्भंतः ये भी 'रंग दे बसंती', 'तारे ज़मीन पर' और लगे रहो मुन्नाभाई' की तरह एक सुखद अतीत बनकर रह जाएगी।
Sunday, December 20, 2009
अवतार : एक फिल्म से बढकर बहुत कुछ........
इस हफ्ते होलिवुड की फिल्म अवतार रिलीज़ हुई है। एक वैज्ञानिक फंतासी फिल्म है। सबसे बड़ी विशेषता ये है कि 'TAITENIC' के निर्देशक जेम्स कैमरून की फिल्म है। बेहद शानदार, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक। ये मैं तब कह रहा हूँ जबकि फिल्मों के मामले में मेरा टेस्ट विशुद्ध भारतीय है। वो इसलिए की शायद मुझे विदेशी फिल्मों में भारतीय आत्मा नहीं मिलती। बहरहाल यदि 'ब्लास्ट फ्रॉम द पास्ट','द डे आफ्टर टुमारो' और अवतार जैसी फ़िल्में हो तो होलीवूड की फिल्मों से भी परहेज़ नहीं।
एक उपग्रह को पृष्ठभूमि में संजोये संवेदनशील फिल्म हैं। जिसमे इन्सान की राक्षसी इच्छाओं का भी पर्दाफास किया गया है। हम पर्यावरण के संरक्षण के लिए असफल कोपेनहगन जैसे सम्मेलन तो कर रहे हैं पर अन्दर समायी अनंत इच्छाए सारा व्रम्हांड लील जाना चाहती है। हमारी भूख को मिटाने में ये धरती समर्थ है पर तमन्नाओं की बाढ़ को शांत करने की हिम्मत इसमें नहीं है। इसलिए ये बहसी इन्सान दुसरे गृहों पर डेरा डालने चला है। उन गृहों पर भी ये अपनी हिंसक प्रवर्ती से साम्राज्य करना चाहता है। युद्ध के अलावा इसे कोई साधन नज़र नहीं आता। कुछ यही सन्देश देती आगे बढती है ये फिल्म। फिल्म में प्रदर्शित चित्रण अयथार्थ है पर इंसानी सोच का प्रतिबिम्ब यथार्थ है।
फिल्म में कई छोटे-छोटे सन्देश समाये हुए हैं, दर्शक अपनी प्रकृति के हिसाब से चीज ग्रहण करता है। कैमरून की taitenic भी एक लव-स्टोरी और एक भीषण हादसे के चित्रण से बढकर बहुत कुछ सिखाती थी। पर ये हम पर निर्भर है की हम उससे क्या लेते हैं।
आज के इस वैज्ञानिक युग में मशीनों की आदत हमें कुछ इस तरह हो गई है कि हम खुद मशीन बन गए है और मशीनों के संवेदना नहीं होती। फिल्म के एक दृश्य में वैज्ञानिक अन्तरिक्ष में जाने वाले नायक से कहता है वहां जाकर कुछ वेवकूफी मत कर देना। यहाँ वेवकूफी का मतलब दिल से काम लेने से है, प्यार करने से है। जी हाँ मशीने दिल नहीं लगाती।
पेन्डोरा नामके उपगृह पे रहने वाले लोगों को लुभाकर उनका राज्य हथियाने का षड़यंत्र रचा जा रहा है। पर अफ़सोस हमारे पास ऐसी कोई चीज नहीं जो उन्हें लुभा सके। हमारे कागज के नोट उनके लिए कागज के टुकड़े है। और उनके पास प्रकृति का खज़ाना है। जिसे हमने हमारी लालसाओं के सैलाब में नष्ट कर दिया।
खैर, एक उम्दा फिल्म है। चालू महीने में दो बढ़िया हालीवुड फ़िल्में देखने को मिली-२०१२ और अवतार। आपने यदि इसका लुत्फ़ न उठाया हो तो जरुर देखिये।
Friday, December 18, 2009
हास्य एवं संवेदना की कदमताल- 'पा'
पिछले दिनों अमिताभ के नए अवतार से लबरेज़ फिल्म 'पा' देखी। मज़ा आ गया। यूँ तो अमिताभ ने नित नए-नए रूपों से हमेशा दर्शकों को चकित किया है। दर्शक भी सोचते होंगे की ४० साल के कैरियर के बाद अब कुछ नया नहीं होगा, लेकिन हम सब गलत साबित हुए। बिग बी फिर नए रूप में हाज़िर हैं-ओरो के रूप में।
तकरीबन दो हफ्ते इस फिल्म को रिलीज़ हुए हो चुके हैं और लोग अपने दोस्त यारों से सुन-सुनकर फिल्म देखने पहुँच रहे हैं। फिल्म देखने के बाद एक अलग अहसास के साथ पिक्चर हॉल के बहार निकल रहे हैं। बाहर आकर कोई हसी-मजाक नहीं सब गंभीर होते हैं- असर 'पा' का बरक़रार रहता है। बेहद प्रतिभाशाली निर्देशक बाल्की का ये प्रयास महज़ मनोरंजन ही नहीं सोचने पर मजबूर कर देता है।
फिल्म में खुबसूरत संवाद अदाएगी द्वारा पैदा हुआ विट(एक प्रकार का हास्य) भी मौजूद है तो दूसरी तरफ संवेदना का मर्मस्पर्शी चित्रण। हम समझ ही नहीं पाते कि जिंदगी तकलीफों पे हंस रही है या तकलीफें जिंदगी को हरा रही है। एक तरफ फिल्म में प्रोज़ेरिया पीड़ित औरो की कहानी दौड़ती है तो दूसरी तरफ राजनीती और मीडिया कि हकीकत से दर्शक रूबरू होते हैं। कई छोटे-छोटे दृश्य बड़े-बड़े अर्थ संप्रेषित करते हैं।
अमिताभ का (नए अमिताभ का) स्क्रीन पे होना हमेशा एक सुखद अहसास करता है। विद्या बालन का अभिनय कमाल का है। बालीवुड के सुपर सितारे जो उनसे उम्र में कई बड़े हैं, उनकी माँ का किरदार निभाना निहायती मुश्किल काम था। शायद ये काम 'मदर इंडिया' कि नर्गिस से भी कठिन था। पर वे इसमें बखूबी उत्तीर्ण हुई। जूनियर बच्चन अब वाकई परिपक्व हो गए हैं फिल्म के अंतिम दृश्यों को मजबूती देने के लिए जिस संजीदा एक्टिंग कि कल्पना मै कर रहा था, अभिषेक ने उससे बेहतर किया। अभिषेक ने बता दिया कि सिर्फ मणिरत्नम ही उनसे एक्टिंग नहीं निकाल सकते कोई और भी अपने प्रयासों से ये कर सकता है।
बहरहाल ये 'तारे ज़मीं पर' टाइप कि फिल्म है, उससे बेहतर या कमतर मैं नहीं कहूँगा। दोनों का प्लाट एक जैसा प्रतीत होने पर भी अलग है और प्रयास भी जुदा है। खैर फिल्म देखिये और जान जाइये कि क्यों अमिताभ शहंशाह हैं।
Thursday, December 3, 2009
कड़वे अतीत की वरसी...भोपाल गैसकांड २५ साल बाद...
तकरीबन २५ वर्ष पहले की वो कड़वी रात का मंजर... जब भी उस रात के चश्मदीतों की आंखों के सामने आता है, दिल सहर उठता है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ वही काली, दर्दनाक रात की जिसने भोपाल की खुबसूरत फिजा में ज़हर घोला था। उन लम्हों को बीते तो आज ढाई दशक बीत गए, मगर उसका दर्द लोगों के ज़हन में आज भी जीवंत है।
विश्व की सबसे भयानक घटनाओं में से एक भोपाल गैसकांड की आज रजत जयंती पुरी हुई है। लेकिन इसके पीड़ित लोगों को आज भी इंसाफ की गुहार है। न तो अभी तक असल जरूरतमंद लोगों को सही से मुआवजा मिला है, नाही इस त्रासदी के गुनहगार एंडरसन को सजा मिली है। भोपाल की आबो-हवा में अब भी यूनियन कार्बाइड का ज़हर घुला हुआ है। गैस रिसाव वाले क्षेत्र की कॉलोनियों में आज भी लोग दूषित पानी पीने को मजबूर हैं।
इस त्रासदी का दंश झेल रहे हजारों लोगों की जिंदगी सिर्फ़ अस्पताल, डाक्टर, जाँच, और दवाओं तक सिमट के रह गई है। लाखों रुपये ये अपने इलाज में खर्च कर चुके हैं, लेकिन अब तक राहत नसीब नही हुई है। अफ़सोस इस बात का है कि जो लोग गैस कांड के क्षेत्र से लाखों दूर रहते थे वे अब तक ४-४ बार इसका मुआवजा ले चुके हैं। लेकिन इसके असली हकदार अभी भी गैस रहत कोष के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे हैं। कई लोगों ने तो बकरे को अपना लड़का बताकर मुआवजा हथिया लिया है, और गैस कांड कि राहत में मिलने वाला पैसा रायसेन, होशंगाबाद, सीहोर जिले तक के लोगों ने हथियाया है, जो इस त्रासदी से कोशो दूर थे। कहने को तो ७०२ करोड़ रूपए बतौर मुआवजे बांटे जा चुके हैं पर कितना, असल जरूरतमंद लोगों तक पंहुचा कहना मुश्किल है।
सरकारी आंकड़े के अनुसार तकरीबन पाँच लाख लोग इस गैस त्रासदी से पीड़ित हैं मगर मुआवजा पंहुचा केवल तीन-साढ़े तीन लाख लोगों तक...और उनमे कितने असली हैं और कितने फर्जी कौन जानता है? गैस त्रासदी से पीड़ित ५६ कॉलोनियां मानी गई थी मगर मुआवजे में मात्र ३६ कॉलोनियों को शामिल किया गया।
इस गैस त्रासदी पर खूब राजनीती हुई, विवाद हुए, आन्दोलन हुए, प्रदर्शन हुए मगर इंसाफ का मोहताज इन्सान आज भी अपने हक का इंतजार कर रहा है। पीड़ितों की आँखों के आंसू अब सूख गए हैं, लेकिन दिल आज भी बेचैन बना हुआ है। इस त्रासदी में २५ वर्ष पहले लगभग १६००० लोग मरे थे लेकिन लाखों लोग अब भी पल-पल मर रहे हैं।
यूनियन कोर्बोइड जैसे संयंत्र तो आज भी जगह-जगह बिखरे पड़े हैं, जो हर पल जहरीले तत्व प्रकृति में छोड़ रहे हैं। यदा-कदा जयपुर गैस कांड जैसी वारदातें भी सामने आ जाती हैं पर कौन ये सब देखने-सुनने वाला है। जब गैस त्रासदी कि माँ भोपाल गैस कांड पर प्रशासन आँखे मूंदे बैठा है तो दूसरों का तो कहना ही क्या? हमारी आंखों के सामने हमारे विनाश का बिगुल बज रहा है और हम इसे अपना विकास समझकर तालियाँ बजा रहे हैं। इस आधुनिकीकरण के जरिये हम अपनी आने वाली पीड़ी को क्या एक ऐसा माहौल दे पाएँगे, जहाँ साफ पानी-हवा और बेहतर भविष्य हो?
भोपाल गैस कांड का काला अतीत हमें नसीहत देता है, लेकिन ये हमारे ऊपर है कि हम उसे मानते हैं या नही। अंत में इन पंक्तियों के साथ बात ख़त्म करता हूँ-
आसमानों तुम्ही कुछ कहो, मैं बेजुबान हो गया हूँ...ये मंज़र देखकर.
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