Friday, December 18, 2009
हास्य एवं संवेदना की कदमताल- 'पा'
पिछले दिनों अमिताभ के नए अवतार से लबरेज़ फिल्म 'पा' देखी। मज़ा आ गया। यूँ तो अमिताभ ने नित नए-नए रूपों से हमेशा दर्शकों को चकित किया है। दर्शक भी सोचते होंगे की ४० साल के कैरियर के बाद अब कुछ नया नहीं होगा, लेकिन हम सब गलत साबित हुए। बिग बी फिर नए रूप में हाज़िर हैं-ओरो के रूप में।
तकरीबन दो हफ्ते इस फिल्म को रिलीज़ हुए हो चुके हैं और लोग अपने दोस्त यारों से सुन-सुनकर फिल्म देखने पहुँच रहे हैं। फिल्म देखने के बाद एक अलग अहसास के साथ पिक्चर हॉल के बहार निकल रहे हैं। बाहर आकर कोई हसी-मजाक नहीं सब गंभीर होते हैं- असर 'पा' का बरक़रार रहता है। बेहद प्रतिभाशाली निर्देशक बाल्की का ये प्रयास महज़ मनोरंजन ही नहीं सोचने पर मजबूर कर देता है।
फिल्म में खुबसूरत संवाद अदाएगी द्वारा पैदा हुआ विट(एक प्रकार का हास्य) भी मौजूद है तो दूसरी तरफ संवेदना का मर्मस्पर्शी चित्रण। हम समझ ही नहीं पाते कि जिंदगी तकलीफों पे हंस रही है या तकलीफें जिंदगी को हरा रही है। एक तरफ फिल्म में प्रोज़ेरिया पीड़ित औरो की कहानी दौड़ती है तो दूसरी तरफ राजनीती और मीडिया कि हकीकत से दर्शक रूबरू होते हैं। कई छोटे-छोटे दृश्य बड़े-बड़े अर्थ संप्रेषित करते हैं।
अमिताभ का (नए अमिताभ का) स्क्रीन पे होना हमेशा एक सुखद अहसास करता है। विद्या बालन का अभिनय कमाल का है। बालीवुड के सुपर सितारे जो उनसे उम्र में कई बड़े हैं, उनकी माँ का किरदार निभाना निहायती मुश्किल काम था। शायद ये काम 'मदर इंडिया' कि नर्गिस से भी कठिन था। पर वे इसमें बखूबी उत्तीर्ण हुई। जूनियर बच्चन अब वाकई परिपक्व हो गए हैं फिल्म के अंतिम दृश्यों को मजबूती देने के लिए जिस संजीदा एक्टिंग कि कल्पना मै कर रहा था, अभिषेक ने उससे बेहतर किया। अभिषेक ने बता दिया कि सिर्फ मणिरत्नम ही उनसे एक्टिंग नहीं निकाल सकते कोई और भी अपने प्रयासों से ये कर सकता है।
बहरहाल ये 'तारे ज़मीं पर' टाइप कि फिल्म है, उससे बेहतर या कमतर मैं नहीं कहूँगा। दोनों का प्लाट एक जैसा प्रतीत होने पर भी अलग है और प्रयास भी जुदा है। खैर फिल्म देखिये और जान जाइये कि क्यों अमिताभ शहंशाह हैं।
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good.....kafi achha likha hai.....
ReplyDeletemaja a gaya.
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