(नोट-ये लेख किसी के खास आग्रह पे लिखा गया है अन्यथा मैं इतने जटिल लेखों को अपने ब्लॉग से हमेशा दूर रखता हूँ...अतः आप अपनी स्वयं की रिस्क पर इसमें प्रवेश करें..ये लेख आपको पका सकता है)
चरम मजबूरियों में जन्म लेता है अक्सर एक वाक्य-"होनी को कौन टालसकता है" लेकिन जब तक ये त्रासद समय हमसे दूर रहता है हम इस अहंकार या कहें कि मुगालते में ही जीवन गुजारते हैं कि हम सब कर सकते हैं।
साया फिल्म का एक गीत है 'कोई तो है जिसके आगे है आदमी मजबूर, हर तरफ हर जगह हर कहीं पे है हाँ उसी का नूर'। इन मजबूरियों के हालात ही प्रार्थनाओं को जन्म देते हैं। असफलताएं, लाचारियाँ, परेशानियाँ मजबूर करती हैं दुआओं के लिए। अगर हमें प्रकृति से ये लाचारियाँ न मिले तो शायद हम ये भूल ही जाएँ कि हम एक इन्सान हैं, फिर शायद भगवान की याद भी न आये।
दुःख का दौर हमें भगवान के सामने ये गुनगुनाने को मजबूर करता है कि "तेरा-मेरा रिश्ता है पुराना"। जीवन भर कर्म को सर्वस्व मानने वाले इन्सान के सामने जब विपदाओं के ववंडर आते है तब कर्म बेअसर और प्रार्थनाएं असरदार बन जाती हैं। अनिष्ट की आशंका प्रार्थनाओं की जनक है और अनिष्ट की आशंका हर उस जगह विद्यमान है जहाँ प्रेम होता है। हमें अपने जीवन से, रिश्तों से, संवंधों से इस कदर आसक्ति है जो हमारे अन्दर एक डरको पैदा करती है। जी हाँ डर, इनके खोने का, बिखरने का, टूट जाने का। इस तरह गाहे-बगाहे प्रार्थनाएं प्रेम से जुड़ जाती हैं।
तो क्या प्रार्थनाओं से कुछ होता भी है? या कोई इन्हें सुनता भी है? इस बारे में अलग-अलग मत हो सकते हैं। लेकिन इस संबंध में अपना व्यक्तिगत नजरिया रखूं जो मेरे अब तक के अध्ययन से निर्मित है तो मैं कहूँगा कि प्रार्थनाओं का असर होता है लेकिन सच ये भी है कि कोई इन्हें सुनने वाला नहीं बैठा है। प्रार्थनाओं में चाहत छुपी होती है और जो चीज हम शिद्दत से चाहते हैं वो हमें मिलकर रहती है। यदि कोई चीज आपको नहीं मिल रही है तो आपकी चाहत में शिद्दत की कमी है। हम हमारी दुआओं, प्रार्थनाओं, चाहतों से ऐसे परमाणु (vibration) उत्सर्जित करते हैं जो हमें वांछित वस्तु की उपलब्धि में सहायक साबित होते हैं। तो इस तरह ये जरुरी नहीं की प्रार्थनाओं या दुआओं के लिए किसी भगवान के दर पर माथा टेका जाये या व्रत-उपवास अथवा गंडा-ताबीज का सहारा लिया जाये। व्रत रखकर या निर्जला उपवास करके हम बस अपनी चाहत की शिद्दत दिखाना चाहते हैं।
दरअसल, ये इंसानी फितरत है कि वो नियति को कभी मंजूर नहीं करता और अपने आसपास घट रही समस्त घटनाओं के लिए किसी न किसी को जिम्मेदार या कर्ता मानता है। जब तक सब सही-सही होता है तो कहता है ये मैंने किया, ये मेरा कर्मफल है और जब खुद के अनुकूल घटित नहीं होता तो किस्मत को या भगवान के मत्थे उस यथार्थ को मढ़ देता है और फिर ईश्वर की चौखट पे जाके कहता है तूने मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ किया या मेरा तुझसे विश्वास हट गया। बस इसी क्षणिक सापेक्ष श्रद्धा का नाम छद्म आस्तिकता है। जो गलत हो वो भगवान कैसे हो सकता है ईश्वर के सर पे दोष मढना बंद करें। इसलिए मेरा मानना है कि धार्मिक नहीं, आध्यात्मिक होना चाहिए। god से पहले खुद की पहचान करो।
बहरहाल, गीता के कर्मफलवाद, जैनदर्शन के क्रमबद्धपर्याय और बौद्ध मत के सृष्टि रहस्यवाद को समझने के बाद नियति पर यकीन हो। पाश्चात्य दार्शनिक अरस्तु, सुकरात घटनाओ के इस नियम को 'predestined uncontrollable incident' कहते हैं। वहीँ आइन्स्टीन का इस बारे में कथन भी दृष्टव्य है-"Events do not heppen, they already exist and are seen on the time-machine" वे घटनाओं को पूर्व नियोजित और पहले से विद्यमान मानते हैं। तो फिर प्रश्न उठता है कि यदि नियति ही सब कुछ है तो क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें तो मैं कहना चाहूँगा कि नहीं, हमें अपने स्तर पर कर्म करना कभी बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि हमारे हाथ न तो नियति है नहीं कर्म का फल। हमारे हाथ सिर्फ और सिर्फ कर्म है जिसे पुरुषार्थ भी कहते हैं....और हमें अपना काम बंद नहीं करना चाहिए। लेकिन उस काम में ईमानदारी और सद्भावना बनी रहने दें। यही गीता का 'कर्म करो और फल की इच्छा न करो' का सिद्धांत है....और भगवान को अनावश्यक जगत का कर्ता बनाकर इस पचड़े में न डालें तभी बेहतर है।
प्रार्थनाएं तो करें पर निरपेक्ष, जो सापेक्ष होती है वे प्रार्थनाएं नहीं इच्छाएं होती है। भगवान के दर दुनिया की चीजें नहीं स्वयं के लिए आत्मबल मांगने जाएँ। समस्याओं को समस्या की तरह देखना बंद करें। अनुकूलता में अति उत्साह और प्रतिकूलता में अवसाद से बचें तथा इस तरह के व्यक्तित्व को बनाना स्थितप्रज्ञ या स्थिरबुद्धि हो जाना है।
प्रार्थनाओं से ज्यादा जरुरी है कभी सत्य का साथ न छोड़ना, चाहे कुछ मिले या न मिले। दुनिया की बड़ी टुच्ची चीजों (पैसा, पद, प्रतिष्ठा) के लिए जिस तरह से हम सत्य और सिद्धांतों का बलात्कार करते हैं वह तो महा अशोभनीय है। दुनिया की चीजों से क्षणभर की ख़ुशी मिल सकती है परमसुख अपने अन्दर से ही आता है। इसलिए 'प्यासा' फिल्म में साहिर लुधयानवी कहते हैं "ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है"।
खैर, प्रार्थनाओं और कर्म के रसायन की तरह ये लेख भी बहुत जटिल हो गया...इस संबंध में कहा तो बहुत कुछ जा सकता है लेकिन फ़िलहाल इतना ही...लेख अतिविस्तार पा लेगा। ये सारी मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच है जो आपके हिसाब से गलत भी हो सकती है...और आप इससे सहमत हों ऐसा मेरा कतई आग्रह नहीं है।