Monday, June 20, 2011

प्रार्थना और कर्म का रसायन



(नोट-ये लेख किसी के खास आग्रह पे लिखा गया है अन्यथा मैं इतने जटिल लेखों को अपने ब्लॉग से हमेशा दूर रखता हूँ...अतः आप अपनी स्वयं की रिस्क पर इसमें प्रवेश करें..ये लेख आपको पका सकता है)

चरम मजबूरियों में जन्म लेता है अक्सर एक वाक्य-"होनी को कौन टालसकता है" लेकिन जब तक ये त्रासद समय हमसे दूर रहता है हम इस अहंकार या कहें कि मुगालते में ही जीवन गुजारते हैं कि हम सब कर सकते हैं।

साया फिल्म का एक गीत है 'कोई तो है जिसके आगे है आदमी मजबूर, हर तरफ हर जगह हर कहीं पे है हाँ उसी का नूर'। इन मजबूरियों के हालात ही प्रार्थनाओं को जन्म देते हैं। असफलताएं, लाचारियाँ, परेशानियाँ मजबूर करती हैं दुआओं के लिए। अगर हमें प्रकृति से ये लाचारियाँ न मिले तो शायद हम ये भूल ही जाएँ कि हम एक इन्सान हैं, फिर शायद भगवान की याद भी न आये।

दुःख का दौर हमें भगवान के सामने ये गुनगुनाने को मजबूर करता है कि "तेरा-मेरा रिश्ता है पुराना"। जीवन भर कर्म को सर्वस्व मानने वाले इन्सान के सामने जब विपदाओं के ववंडर आते है तब कर्म बेअसर और प्रार्थनाएं असरदार बन जाती हैं। अनिष्ट की आशंका प्रार्थनाओं की जनक है और अनिष्ट की आशंका हर उस जगह विद्यमान है जहाँ प्रेम होता है। हमें अपने जीवन से, रिश्तों से, संवंधों से इस कदर आसक्ति है जो हमारे अन्दर एक डरको पैदा करती है। जी हाँ डर, इनके खोने का, बिखरने का, टूट जाने का। इस तरह गाहे-बगाहे प्रार्थनाएं प्रेम से जुड़ जाती हैं।

तो क्या प्रार्थनाओं से कुछ होता भी है? या कोई इन्हें सुनता भी है? इस बारे में अलग-अलग मत हो सकते हैं। लेकिन इस संबंध में अपना व्यक्तिगत नजरिया रखूं जो मेरे अब तक के अध्ययन से निर्मित है तो मैं कहूँगा कि प्रार्थनाओं का असर होता है लेकिन सच ये भी है कि कोई इन्हें सुनने वाला नहीं बैठा है। प्रार्थनाओं में चाहत छुपी होती है और जो चीज हम शिद्दत से चाहते हैं वो हमें मिलकर रहती है। यदि कोई चीज आपको नहीं मिल रही है तो आपकी चाहत में शिद्दत की कमी है। हम हमारी दुआओं, प्रार्थनाओं, चाहतों से ऐसे परमाणु (vibration) उत्सर्जित करते हैं जो हमें वांछित वस्तु की उपलब्धि में सहायक साबित होते हैं। तो इस तरह ये जरुरी नहीं की प्रार्थनाओं या दुआओं के लिए किसी भगवान के दर पर माथा टेका जाये या व्रत-उपवास अथवा गंडा-ताबीज का सहारा लिया जाये। व्रत रखकर या निर्जला उपवास करके हम बस अपनी चाहत की शिद्दत दिखाना चाहते हैं।

दरअसल, ये इंसानी फितरत है कि वो नियति को कभी मंजूर नहीं करता और अपने आसपास घट रही समस्त घटनाओं के लिए किसी न किसी को जिम्मेदार या कर्ता मानता है। जब तक सब सही-सही होता है तो कहता है ये मैंने किया, ये मेरा कर्मफल है और जब खुद के अनुकूल घटित नहीं होता तो किस्मत को या भगवान के मत्थे उस यथार्थ को मढ़ देता है और फिर ईश्वर की चौखट पे जाके कहता है तूने मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ किया या मेरा तुझसे विश्वास हट गया। बस इसी क्षणिक सापेक्ष श्रद्धा का नाम छद्म आस्तिकता है। जो गलत हो वो भगवान कैसे हो सकता है ईश्वर के सर पे दोष मढना बंद करें। इसलिए मेरा मानना है कि धार्मिक नहीं, आध्यात्मिक होना चाहिए। god से पहले खुद की पहचान करो।

बहरहाल, गीता के कर्मफलवाद, जैनदर्शन के क्रमबद्धपर्याय और बौद्ध मत के सृष्टि रहस्यवाद को समझने के बाद नियति पर यकीन हो। पाश्चात्य दार्शनिक अरस्तु, सुकरात घटनाओ के इस नियम को 'predestined uncontrollable incident' कहते हैं। वहीँ आइन्स्टीन का इस बारे में कथन भी दृष्टव्य है-"Events do not heppen, they already exist and are seen on the time-machine" वे घटनाओं को पूर्व नियोजित और पहले से विद्यमान मानते हैं। तो फिर प्रश्न उठता है कि यदि नियति ही सब कुछ है तो क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें तो मैं कहना चाहूँगा कि नहीं, हमें अपने स्तर पर कर्म करना कभी बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि हमारे हाथ न तो नियति है नहीं कर्म का फल। हमारे हाथ सिर्फ और सिर्फ कर्म है जिसे पुरुषार्थ भी कहते हैं....और हमें अपना काम बंद नहीं करना चाहिए। लेकिन उस काम में ईमानदारी और सद्भावना बनी रहने दें। यही गीता का 'कर्म करो और फल की इच्छा न करो' का सिद्धांत है....और भगवान को अनावश्यक जगत का कर्ता बनाकर इस पचड़े में न डालें तभी बेहतर है।

प्रार्थनाएं तो करें पर निरपेक्ष, जो सापेक्ष होती है वे प्रार्थनाएं नहीं इच्छाएं होती है। भगवान के दर दुनिया की चीजें नहीं स्वयं के लिए आत्मबल मांगने जाएँ। समस्याओं को समस्या की तरह देखना बंद करें। अनुकूलता में अति उत्साह और प्रतिकूलता में अवसाद से बचें तथा इस तरह के व्यक्तित्व को बनाना स्थितप्रज्ञ या स्थिरबुद्धि हो जाना है।

प्रार्थनाओं से ज्यादा जरुरी है कभी सत्य का साथ न छोड़ना, चाहे कुछ मिले या न मिले। दुनिया की बड़ी टुच्ची चीजों (पैसा, पद, प्रतिष्ठा) के लिए जिस तरह से हम सत्य और सिद्धांतों का बलात्कार करते हैं वह तो महा अशोभनीय है। दुनिया की चीजों से क्षणभर की ख़ुशी मिल सकती है परमसुख अपने अन्दर से ही आता है। इसलिए 'प्यासा' फिल्म में साहिर लुधयानवी कहते हैं "ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है"।

खैर, प्रार्थनाओं और कर्म के रसायन की तरह ये लेख भी बहुत जटिल हो गया...इस संबंध में कहा तो बहुत कुछ जा सकता है लेकिन फ़िलहाल इतना ही...लेख अतिविस्तार पा लेगा। ये सारी मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच है जो आपके हिसाब से गलत भी हो सकती है...और आप इससे सहमत हों ऐसा मेरा कतई आग्रह नहीं है।

Sunday, June 19, 2011

एक ख़ूबसूरत प्रेम-पत्र



ब्लॉग भ्रमण के दरमियाँ एक ख़ूबसूरत प्रेमपत्र मिला जिसे अपने ब्लॉग पर आप सबसे साझा कर रहा हूँ....ये टीस किसी एक की नहीं, प्रायः हर जवान दिल की हो सकती है...सुन्दर शब्दों के साथ अपने अहसासों को कागज पे उतारता ये प्रेमपत्र कई आशिकों का प्रतिनिधि हो सकता है-


प्रिये,
काफ़ी लंबे वक़्त बाद प्रेम पत्र लिखने का मौक़ा मिल रहा है, यक़ीन मानों. हां इतना ज़रूर है कि स्कूली दिनों में गुलाबी कागज़ों पर कलम चला लिया करता था.. लेकिन कामयाबी शायद ही कभी मिली हो... मिलती भी कैसे, वो ख़त या तो दोस्तों के ख़ातिर हुआ करता या फिर इकतरफ़ा आकर्षण की ज़ोर आजमाइश।। ख़ैर, आज मौक़ा मिला है,
ठिकाना भी मिला है... और ख़ुद के भावों को उकेरने का दस्तूर भी... सो लिख देता हूं।
पहला सवाल, कैसी हो... बिन मेरे। मैं तो हालात की तपिश और ज़िम्मेदारियों का भरम पाल बैठा हूं, लगा हुआ हूं.. चल रहा हूं... ज़िंदगी में कुछ हासिल करने की होड़ में ना-ना करते मैं भी शामिल हो ही गया। मैं वो वादा तोड़ चुका हूं, जिसमें तुमसे और सिर्फ़ तुमसे चाहत का क़रार हुआ था... ऐसा नहीं कि तुमसे मेरी चाहत में किसी भी तरह की कमी आई हो... हुआ तो बस इतना है कि मुझे एहसास हो गया है कि ज़िंदगी सिर्फ़ और सिर्फ़ माशूका की ज़ुल्फों तले नहीं गुज़ारी जा सकती। और भी कई हैं, जो मुझमें, खुद की उम्मीदें देखते हैं... और भी हैं जो ये सोचते हैं कि मैं हूं ना.... । कैसे उनकी उम्मीदों से छल कर लूं
, कैसे सिर्फ़ खुद की सोचूं, कैसे ये कह दूं कि मैं नहीं हूं।

ख़ैर, तुमसे मिले लंबा वक़्त गुज़र चुका है, इस बीच मैनें तो कुछ ख़ास हासिल नहीं किया लेकिन उम्मीद है तुम्हें वो सब मिल रहा होगा.. जिसकी ख़्वाहिश तुमने की थी। मैं उस वक़्त तो नहीं कह पाया, लेकिन यक़ीन मानो तुम्हारे जाने से जो खालीपन मेरी ज़िदंगी में आया है, जाने क्यों वो जाता ही नहीं। शायद मैं ही इस सूनेपन से दिल लगा बैठा हूं, वैसे ये भी है कि इस खालीपन ने मुझे हमेशा इस बात का एहसास कराया है कि जो मेरा है वो कितना ख़ास है, और उसके खो जाने या छूट जाने पर कितनी तकलीफ़ होती है। तुम समझ रही हो ना...। अरे, ये क्या कह रहा हूं, तुम भला क्यूं समझोगी... तुमने कभी समझा ही कहां... और मैं भी ना चाहते हुए, तुम्हे समझा ही तो रहा हूं। ख़ैर छोड़ो, हम क्यों उलझ रहे हैं,
लंबा वक़्त निकल गया पिछली उलझन को सुलझाने में। यक़ीनन तुम्हारे दिलों दिमाग़ में ये सवाल ज़रूर आया होगा कि मैनें तुम्हे ख़त लिखने का कैसे सोचा, कैसे तुम्हे उसी हक़ से प्रिये कहा... जवाब बड़ा आसान है, हालात तुम्हारे लिए बदले होंगे, लेकिन मैं तो अब भी उसी मोड़ पर खड़ा हूं। वक़्त के गुज़रते लम्हे भी मेरी चाहत को कम करने में बेअसर साबित हुए, यूं समझो कि किसी वीराने में खुद को पनाह देती पुरानी आहटें आज भी पुरअसर तरीके से गूंज रही हैं।

मैनें तो हर पल तुम्हे सोचा, मेरे ख़्वाब-ख़याल, मेरा मक़सद.. सभी कुछ तो तुमसे मिला था, तुम ही तो थीं जो मुझसे कहती थी कि फलां ठीक है, और फलां ग़लत... और मैं हमेशा की तरह कुछ नहीं कह रहा होता। लेकिन सच तो ये है कि मेरा आज उसी दौर में लिख दिया गया था... उन्ही ख़ुशगवार लम्हों ने आने वाले कल की इबारत लिख दी थी।
आज भी मेरे सच और झूठ, सही और ग़लत का पैमाना वही है जो तुमने सिखाया था। तुम भूल चुकी होगी, यक़ीनन तुम्हे याद न हो... लेकिन तुम्हारी हर बात अब मेरा किस्सा है। कुछ कमियां मैं आज भी दूर नहीं कर सका हूं
, शायद दूर करना भी नहीं चाहता... मुझे ताउम्र अफ़सोस रहेगा कि मैं तुम्हे वो भरोसा नहीं दिला सका जो तुम चाहती रही। जिस एक अफ़साने पर मोहब्बत टिकी होती है, वो अफ़साना कब शुरू हुआ, कहां जाकर ख़त्म भी हो गया, पता ही नहीं चला... अब सोचता हूं कि रिश्तों का जो ताना-बाना हमने बुना था, क्या वो इतना कमज़ोर था। नहीं वो कमज़ोर नहीं हो सकता.. फिर कैसे दरक गई ये दीवार, जिसकी नींव गुलशन से चुने गए ताज़े फूलों पर रखी गई थी। लगता है उन फूलों में पहले जैसी बात नहीं रही, लेकिन सुना तो कुछ और ही था कि मुहब्बत के बासी फूल ज़िंदा सांसों से भी ज़्यादा असर रखते हैं।

कभी हालात मेहरबां हुए तो उम्मीद करता हूं कि फ़िज़ां फिर बदलेगी, सूख चुके दरख़्तों पर फिर कोपलें खिलेंगी, अरसे से सन्नाटे का दामन थामे मेरे दरो-दीवार किसी आहट को महसूस करेंगे, तेज़ चलती आंधियों में खुद का वजूद तलाशते क़दमों के निशान फिर कहेंगे कि यहां भी कोई चलता है। बुलबुल फिर कब्रगाह बन चुके मेरे आशियाने का रुख़ करेगी। जब तुम आओगी तो देखोगी, वक़्त के लम्हे आज भी वहीं ठहरे हुए हैं जहां तुम उन्हे छोड़कर गईं थी। हां एक बात और मेरे आंगन के सबसे कोने में एक ईंट है, उसके नीचे सुनहरे रंग की डिब्बी में एक पर्चा लिखा मिलेगा, उसे पढ़ना.. सोचना... और हां आंसू मत छलकने देना... क्योंकि मैं अगर ज़िंदा होता तो शायद तुम्हे रोने न देता।

तुम्हारा
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साभार गृहीत- aapaskibat-nishant.blogspot.com

Saturday, June 18, 2011

परम्पराओं का आग्रह और शिक्षा




लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धत्ति को पाश्चात्य दृष्टि से देखने पर हम कह सकते हैं की आज रूढ़ीवाद, धर्मान्धता, कट्टरवाद का अंत हुआ है पर गहराई में जाकर विचार करने से हम देखते हैं कि कुछ नहीं बदला सिवा कलेवर के।

ऊपर से जींस-टी शर्ट पहने नजर आ रही संस्कृति आज भी उसी कच्छे-बनयान में हैं। सारा mordanization खान-पान बोलचाल और पहनावे तक सीमित है विचारों पर आज भी जंग लगी है। तमाम शिक्षा संस्थानों में महज साक्षरता का प्रतिशत बढाया जा रहा है शिक्षित कोई नहीं हो रहा है। इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज में दाखिला लेकर छात्र रचनात्मकता के नाम पर बस हालीवुड की फ़िल्में देखना और सिगरेट के धुंए का छल्ला बनाना सीख रहे हैं सोच तो मरी पड़ी है।

शिक्षा सफलता के लिए है सफलता स्टेटस पर निर्भर है स्टेटस सिर्फ अर्निंग और प्रापर्टी केन्द्रित है। ऐसे में कौन विचारों कि बात करे, कैसे नवीन सुसंगातियो का प्रसार हो? यहाँ तो विसंगतियों का बोझा परम्पराओं के नाम पर ढ़ोया जा रहा है। शिक्षा का हथोडा कोने में खड़े परम्पराओं के स्तम्भ को नहीं तोड़ पाता मजबूरन उस स्तम्भ पर छद्म-आधुनिकता का डिस्टेम्पर पोतना पड़ता है।

दिल में पैठी पुरानी मान्यताएं महज जानकारी बढ़ाने से नहीं मिटने वाली, सूचनाओं की सुनामी से समझ नहीं बढती। जनरल नालेज कभी कॉमन सेन्स विकसित नहीं करता। जनरल नालेज बहार से आता है कॉमन सेन्स अन्दर पैदा होता है। विस्डम कभी सूचनाओं से हासिल नहीं होता। भोजन बाहर मिल सकता है पर भूख और भोजन पचाने की ताकत अन्दर होती है। इन्फार्मेशन एक्सटर्नल हैं पर विचार इन्टरनल। अभिवयक्ति आउटर होती है पर अनुभूति इनर।

पर आज हालात सिर्फ इमारतों को मजबूत कर रहे हैं नींव का खोखलापन बरक़रार है। इसी कारण चंद संवेदनाओं के भूचाल से ये इमारतें ढह जाती हैं। फौलादी जिस्म के आग्रही इस दौर में श्रद्धा सबसे कमजोर है। उस कमजोर श्रद्धा का फायदा उठाने ठगों की टोली हर चौक-चौराहों पर बैठी है। गले में ताबीज, हाथ में कड़ा, अँगुलियों में कई ग्रहों की अंगूठियाँ पहनकर लोग किस्मत बदलना चाहते हैं। व्रत, उपवास, पूजा, अर्चना बरक़रार है पर नम्रता, शील, संयम आउटडेटेड हो गए हैं। जितनी भी तथाकथित धार्मिकता की आग धधक रही है वह लोगों के दिमाग में पड़े भूसे के कारण जल रही है इनमें तर्क कहीं नहीं है।

गोयाकि वेस्टर्न टायलेट पर बैठने का स्टाइल खालिश भारतीय है। ऐसे में खुद को माडर्न बताने का राग आलाप जा रहा है। नए वक्त में परम्पराएँ पुरानी ही है और उन परम्पराओं का अहम् भी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर सड़ी हुई रूढ़ियाँ धोयी जा रही हैं और न्यू-माडर्नस्म के नाम पर नंगापन आयात किया जा रहा है। इन्सान की फितरत भी समंदर सी हो गयी है परिवर्तन बस ऊपर-ऊपर है तल में स्थिति जस की तस है।

विचारों के ज्वार-भाटे परम्पराओं की चट्टानों से माथा कूट-कूटकर रह जाते हैं पर सदियों से उन चट्टानों में एक दरार तक नहीं आई। शिक्षा पद्धति की उत्कृष्टता का बखान करने वाले लोगों के लिए ये सांस्कृतिक शुन्यता आईना दिखाने का काम करती है।

Monday, June 13, 2011

अभिव्यक्ति और अनुभूति

एक विचारणीय sms कुछ इस प्रकार है- "किलोग हमें हमारे प्रस्तुतिकरण से आंकते हैं, हमारे अभिप्रायों से नहीं जबकि ईश्वर हमें हमारे अभिप्रायों से आंकते हैं प्रस्तुतिकरण से नहीं"। विज्ञापन के इस दौर में जो दिखता है वही बिकता है। संस्कार सम्पन्नता महज एक दिखावा है जिसे so called manners कहते हैं।

अभिव्यक्ति पूर्णतः अचेतन प्रक्रिया है जिसे चेतन इंसानी पुतलों ने अपना लिया है। शुभेच्छाए, प्यार, सम्मान, विनम्रता सब अभिव्यक्ति तक सीमित है। सूचनाएँ जीवन को अनुशाषित कर रही है पर नैतिक कोई नहीं हो रहा। अनुशाषन भी so called manners है। प्रैक्टिकल होने के उपदेश दिए जाते हैं, इमोशंस सबसे बड़ी कमजोरी बताई जाती है। डिप्लोमेटिक होने के लिए मैनेजमेंट की शिक्षा है सत्य को पर्स में दबाकर रखना ही समझदारी है। बस आप वही कहिये जो लोग सुनना चाहते हैं वह नहीं जो सुनाना चाहिए। गर्दन को सलामत रखना है तो सत्य छुपाकर रखिये।

भर्तहरी, चाणक्य, सुकनास के सिद्धांतो पर फेयोल और कोटलर कि शिक्षा भारी हो गयी है। रामायण और गीता के चीरहरण का दौर जारी है। संवेदन शुन्यता को परिपक्वता का पर्याय माना जाता है। ख़बरों की बाढ़ के चलते खबर का असर होना बंद हो गया है। गोयाकि बासी रोटी गरम करके बेंची जा रही है या गोबर की मिठाई पर चांदी की वर्क चढ़ी हुई है।

पढ़-सुनकर हम अच्छे वक्ता हो रहे है या फिर अच्छे लेखक, पर घटनाएँ अनुभूत नहीं हो रही है। प्रेम की परिभाषा रटने वाले या प्रेम पर पी एच डी करने वाले जीवन भर प्रेम से अछूते रहते हैं। तथाकथित प्रेमप्रदर्शन के तरीके ईजाद हो रहे हैं पर मौन रहकर महसूस किया जाने वाला उत्कृष्ट अहसास कहाँ हैं? मदर्स डे फादर्स वेलेंटाइन डे से लेकर कुत्ते-बिल्ली को पुचकारने वाले दिन तक उत्साह से सेलिब्रेट किये जा रहे हैं पर माँ-बाप का असल सम्मान नदारद है। प्रातःकालीन चरण स्पर्श पर ग्रीटिंग कार्ड्स का अतिक्रमण है। सम्मान के बदले गिफ्ट्स के लोलीपोप पकड़ा दिए जाते हैं। श्रवण कुमार को कौन याद करता है? तमाम ताम-झाम अभिव्यक्ति की मुख्यता से हैं।

अभिव्यक्ति की चकाचौंध में अनुभूति भी दूषित हो रही है। सहानुभूति शब्द सर्वाधिक बदनाम हो गया है। दुःख में सहानुभूति सांत्वना पुरुस्कार सरीखी लगती है एक sms, scrap या readymade email ही सहानुभूति के लिए काफी है। समझ नहीं आता इस अभिव्यक्ति में अनुभूति कहाँ है? विपदा में सहानुभूति तो बहुत मिल जाती है पर साथ नहीं मिलता। एक्सपेक्टेशन बहुत हावी हैं इंटेंशन पर। सहज प्रेम, करुणा, त्याग गयी गुजरी बात बन गये हैं।

उसूल सिर्फ बघारने के लिए हैं जिन पर ताली बजती है जीवन जीने के लिए 'सब चलता है' के जुमले बोले जाते हैं। किसी ने कहा भी है-"झूठ न कहें, चोरी भी न करें..पेट भरने के लिए क्या उसूल सेंककर खायेंगे" भैया उसूलों से चलकर पेट भर जाता है अलबत्ता पेटी न भर पाए। नवसंस्कृति मशीनी हो गयी है और मशीनों के अनुभूति नहीं होती। इस संस्कृति ने दादी-नानी को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है, पुराने साहित्य और पुराणों के पन्ने समोसे के नीचे पड़े हैं, पुरानी धरोहरें, इमारतें टूटकर कोम्प्लेक्स और शापिंग माल में बदल गयी हैं ऐसे में पुरा संस्कारों के समस्त स्त्रोत अपाहिज हो गए हैं।

बहरहाल, इस शुन्यता के माहौल में भी कहीं न कहीं भावनाओं का दीपक टिमटिमा रहा है जो राहत देता है। जो आधुनिकता की आंधी को ललकार रहा है ....और यही संवेदना, संस्कारो और भावनाओं का दिया मजबूर कर रहा है हमें आश्चर्य करने पर कि जो असंवेदना और संस्कारविहीनता के सूरज को सिद्धांतों की रौशनी दिखाने का उद्यम कर रहा है।