Tuesday, May 29, 2012

प्रताड़ित होने से बेहतर पराजित होना : सत्यमेव जयते


बचपन से ये सीख सुनता आ रहा हूँ कि सच प्रताड़ित तो हो सकता है पर पराजित नहीं..और इसी बात पे यकीन रखते हुए कठिन विपदाओं में भी सच का आँचल नहीं छोड़ता...लेकिन कई बार वर्तमान दौर की प्रताड़नायें बर्दाश्त के बाहर हो जाती है तब ये आँचल भले न छूटे, पर उस आँचल पे अपनी पकड़ ढीली होती हुयी जरुर महसूस करता हूँ...तब भी एक विश्वास के साथ किसी न किसी तरह थामे रहता हू उस दामन को..ये सोचकर कि कोई तो होगा जो इन प्रताडनाऑ में साथ देने आएगा, पर नहीं...मूल्यविहीनता के इस दौर में साथ तो दूर कोई उस राह पे बढते रहने के लिए हौसला-अफजाई भी नहीं करता...जो आवाजें आती है वो यही कहती है...समय के साथ चलो...और ये वक़्त सच के चीरहरण का है ये वक़्त सत्य को पैरों तले कुचलने का है...ये वक़्त निजी स्वार्थों में सच को अनदेखा करने का है...तब ये दिल भी कह उठता है कि साला प्रताड़ित होने से बेहतर तो पराजित होना है!

डार्विन का survival of fittest (शक्तिशाली ही जियेंगे, बाकि हासिये पे फेंक दिए जायेंगे) का सिद्धांत भी इसी ओर इशारा करता है कि भैया शक्ति का संचार अपने अंदर करो और ताकतवरों की ही संगत करो...अपने अंदर शक्ति का उत्सर्जन कर ही आप इस दौर में ज़माने से कदमताल मिलाकर आगे बढ़ पाओगे...लेकिन उस शक्ति के लिए हमें भ्रष्टता की संगत करनी होगी, मूल्यविहीनता का आलिंगन करना होगा, ज़माने के हितों से आँखें मूंद कर स्वार्थी होना होगा...क्योंकि वर्तमान दौर की शक्ति इन्ही सब चीजों में निहित है...और भ्रष्टता के पुजारी ही फल-फूल रहे है...चुनाव आपके हाथ में है..एक तरफ चौंधिया देने वाली भौतिक समृद्धि तो एक ओर फटे हुए सच का दामन थामे अकेले खड़े आप...

बात सच के साथ आमिर के बहुचर्चित शो सत्यमेव जयते’’ की भी करनी है...बहुत पहले से इस बारे में कुछ लिखने का सोच रहा हूँ...पर आमिर खान का हॉट फेनहोने के कारण सोचा कि अभी यदि कुछ लिखा तो आमिर के पक्षव्यामोह से ग्रसित होने के कारण संतुलित लेख न लिख पाउँगा...और लेखन में अतिरेक हो जाने का भय बना रहेगा... किन्तु अब चार एपिसोड बीत जाने के बाद भी मुझे यही लग रहा है कि लेखन अतिरेक पूर्ण ही होगा क्योंकि भले इस शो की आलोचना के स्वर भी सुनाई दे रहे हैं...पर मैं शो के उद्देश्य, और विषय-चयन को महान मानते हुए आमिर का और अधिक कद्रदान हो गया हूँ.....

भ्रूण-हत्या, बालयौन-शोषण, दहेज और चिकित्सातंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को अब तक के चार एपिसोड में प्रस्तुत किया गया है...इन्हें देख कई बार रगों में खून तेज हो जाता है तो कई बार कमबख्त पानी बनकर आँखों से झर भी जाता है...माथे पे सलवटें आ जाती है...तो कई बार शर्म भी कि हम इस माहौल में जी रहे हैं...सच की कड़वाहट गले की नीचे उतरते हुए बहुत तड़पाती है...दिल दिमाग से सवाल पूछता है कि कैसे इंसान इतना बहसी और संवेदनशून्य हो सकता है?

भौतिकता की आस, असीमित इच्छाएं और स्वार्थ अपराधों को जन्म दे रही हैं पर उन अपराधों का रूप इतना भयावह है कि दिल परेशान हो उठता है..हर इंसान अपराधी जान पड़ता है...अपने रिश्ते-नातेदार और करीबी दोस्त भी संदिग्ध निगाहों से देखे जाने लगते हैं...हद इस बात की नहीं कि ये अपराध हो रहे हैं...हद तो तब होती है कि अपराध चौराहों पे नहीं घरों में ही हो रहे हैं...घर में ही हत्या, घरों में ही बलात्कार और घरों के अंदर ही लूट हो रही है...और ये हत्यारे, बलात्कारी और लुटेरे कोई असभ्य, अशिक्षित समाज के नहीं बल्कि सभ्य, सुसंस्कृत, सुशिक्षित समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं...और घर के बाहर इनकी अपनी अलग चमक है, सम्मान है...गोयाकि घर के बाहर चमकीला डिस्टेम्पर है और अंदर की दीवारें उधड़ रही है..ब्रांडेड कमीज के अंदर फटी बनियान है... इंसान का चेहरा उसकी फितरत बयां नहीं कर रहा...चेहरे पे सभ्यता का मुखौटा और दिल में हवस का सांप लहरा रहा है....

आमिर का ये प्रयास सराहनीय है...हालाँकि कुछ लोग इसे उनकी व्यावसायिक बुद्धि मानते है और सिर्फ पैसा कमाना ही एक मात्र उद्देश्य कहते हैं...व्यावसायिकता का होना बुरा नहीं है किन्तु आप उस व्यावसायिकता के जरिये यदि सामाजिक सरोकार का भी कुछ काम कर पाए तो वो उत्तम ही है...सिर्फ धंधा करना और सामाजिक जिम्मेदारी को निभाते हुए बिजनेस करने में फर्क होता है...पैसा कमाना बुरा नहीं है पर आप उस पैसे को कमाने का जरिया किसे बनाते हो ये आपके दृष्टिकोण का परिचायक होता है...शाहरुख खान की आईपीएल वाली टीम भी पैसा कमा रही है और आमिर का सत्यमेव जयते भी..पर दोनों कमाई में फर्क तो है न..और फर्क दोनों के नजरिये में भी है....एक अखवार के संपादक ने कहा था कि सत्यमेव जयते जैसा शो न्यूज चैनल के ४ इंटर्न ही बना सकते हैं...शायद वो सही कह रहे हों..पर क्या वो न्यूज चैनल वाले इतनी व्यापकता दे पाते अपने शो को...शायद नहीं...तो भले आमिर की लोकप्रियता ही इस शो को चर्चित बना रही हो...पर प्रशंसनीय तो ये भी है न कि उन्होंने अपनी लोकप्रियता का प्रयोग किस दिशा में किया...सोनी टीवी पे प्रसारित शो क्राइम पेट्रोल भी उम्दा प्रयास है..किन्तु उसका कथ्य कुछ अलग है.....

खैर, इस शो में दिखने वाले कड़वे सच एक बात और बयां करते हैं कि इन सारे अपराधों के पीछे कहीं न कहीं हमारी कमजोर बुनियाद भी जिम्मेदार है...जो हमें अपने परिवार से और प्रारंभिक शिक्षा से मिलती है...बच्चों को बचपन से ही महत्वाकांक्षाऑ का पाठ पढाया जाता है...नाम,पैसा,शोहरत कमाने के लिए ही जीवन है ऐसे उपदेश मिलते हैं...और यही चीज उन्हें अपनी शिक्षा पद्धति से सीखने को मिलती है...पर इन महत्वाकांक्षाऑ में नैतिकता और सामाजिक मूल्य हासिये पे फेंक दिए जाते हैं...गांधीजी कहते थे कि शिक्षा की बुनियाद चरित्र होना चाहिए, बाकि चीजें तो बच्चे अपनी प्रतिभा और माहौल से स्वतः सीख लेंगे...किन्तु शिक्षा ने उस बुनियाद को ही मजबूत बनाने की कोशिश नहीं की..इससे न तो चरित्र विकसित हो पाया नाही दृष्टिकोण व्यापक बन पाया!

बहरहाल, इस शो में नकारात्मकता के साथ कुछ सकारात्मक पहलु भी उजागर किये जाते है पर वो बहुत थोड़े है...और बरबाद होते इस समाज को आबाद करने में नाकाफी हैं...किन्तु वो सकारात्मक प्रयास राहत देते हैं...और कभी तो सवेरा होगाकी उम्मीद जागते हैं...इन छुटमुट सी रोशनियों का सहारा लेकर हमें भी सच का साथ देना है...और सच को जिन्दा रखने के लिए अपने-अपने स्तर पर प्रयास करते रहना है...सच पे से विश्वास खो देना कभी समस्या का समाधान नही हो सकता...भले इस डगर में आप अकेले हों लेकिन फिर भी आपको सच का दिया लेके इस घनघोर दुनिया के जंगल में अपने-अपने स्तर पे रोशनी बिखेरते रहना है...आपकी ये रोशनी कभी न कभी, किसी न किसी वन में भटके पथिक की जिंदगी में उजियारा जरुर लाएगी............


Tuesday, May 22, 2012

ढलते सूरज की तपिश : राहुल द्रविड़

विवादों से घिरे आईपीएल के पांचवे संस्करण का अंत होने जा रहा है और इस आईपीएल पांच से राजस्थान रॉयल बाहर हो चुकी है। सीमित संसाधन और गैरसितारा खिलाडियों से भरी टीम को राहुल द्रविड़ की कप्तानी भी पार न लगा पाई...लेकिन सारे टूर्नामेंट में राजस्थान के जुझारू प्रदर्शन ने कई यादगार, रोमांचक मेच बनाये...यूँ तो टीम के सबसे सफल बल्लेबाज अजिंक्य रहाणे रहे..लेकिन ढलती उम्र में भी राहुल द्रविड़ की जीवटता देखने लायक रही और उनकी आकर्षक बल्लेबाजी हमें ये गीत गुनगुनाने को मजबूर कर देती है कि अभी न जाओ छोड़ के, कि दिल अभी भरा नहीं

भारतीय टीम की ‘दीवार’ का रंग धुंधला पड़ गया पर मजबूती आज भी बरक़रार है..और किसी ज़माने में मैक्ग्राथ, एलन डोनाल्ड, कर्टनी वाल्श जैसे धुरंधर गेंदबाजो के प्रहारों को सहने वाली ये दीवार आज मलिंगा, डेल स्टेन, ब्रेट ली को भी उसी मुस्तैदी से खेलती है। सिर्फ संयत बल्लेबाजी ही नहीं, संयत व्यक्तित्व भी द्रविड़ की पहचान है। १६ साल के क्रिकेट करियर में न कभी द्रविड़ के बल्ले ने आग उगली, न उनकी बातों ने। उनके बल्ले से सितार की सुरलहरियां प्रवाहित होती थी और वाणी से फूल झड़ते थे। विवादों की गूंज इस साउंडप्रूफ दीवार में प्रवेश नहीं कर पाई। अपने करियर में मैच  फिक्सिंग और चैपल-गांगुली जैसे विवादों की कीचड़ के बीच भी इन्होंने खुद को कमल की तरह खुद को उस कीचड़ से दूर रखा।

राहुल द्रविड़ उन चुनिन्दा खिलाडियों में से थे जिनके परफार्मेंस और फिटनेस में निरंतरता रही। यही कारण है कि अपने डेब्यू टेस्ट मेच से लेकर लगातार ८४ टेस्ट खेलने का रिकार्ड इनके नाम है। यह रिकार्ड उनकी मानसिक मजबूती के साथ शारीरिक मजबूती को दर्शाता है और एक अनुशासित, आदर्श जीवन शैली की ओर इशारा करता है क्योंकि ये निरंतरता बिना अनुशासन के नहीं आ सकती। उनकी जीवनशैली आज के हुड़दंगी गैर जिम्मेदार युवा के लिए एक सीख देती है...द्रविड़ उस सदाबहार फूल की तरह रहे जो मदहोश करने वाली महक तो नहीं बिखेरता लेकिन हर मौसम में खिला रहना जनता है।

करियर के शुरूआती दिनों में कई विशेषज्ञों ने द्रविड़ को टेस्ट क्रिकेटर कहकर वनडे मैचों के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिया था। लेकिन वनडे का भी स्थापित बल्लेबाज बनकर द्रविड़ ने उनके मुंह पे ताला लगा दिया..और वनडे क्रिकेट में १०००० से ज्यादा रन बनाने वाले चंद वनडे विशेषज्ञ बल्लेबाजों की जमात में शामिल हुए। १९९९ के क्रिकेट विश्वकप में सचिन तेंदुलकर, ब्रायन लारा, सनत जयसूर्या, रिकी पोंटिंग जैसे धमाकेदार बल्लेबाज होने के बाबजूद द्रविड़ विश्वकप के टॉप स्कोरर रहे। २००३ के विश्वकप में विकेटकीपर की समस्या से जूझ रही भारतीय टीम के लिए द्रविड़ ने दस्ताने पहनकर विकेट के पीछे भी शानदार काम किया। वे सही मायने में टीम के संकटमोचक थे लेकिन इस संकटमोचक का योगदान हमेशा किसी न किसी वजह से दब जाता था और उन्हें वो तारीफें नहीं मिलती थी जिसके वे हक़दार थे। ये भूत करियर के शुरुआत से ही उनपे हावी रहा, जब अपने डेब्यू टेस्ट में ९७ रन की बेहतरीन पारी गांगुली के शतक के नीचे दब गयी। २००१ के ऐतिहासिक कोलकाता टेस्ट की लाजबाव १८० रन की पारी लक्ष्मण के २८१ रन के आगे धुंधली पड़ गयी। १९९९ विश्वकप में गांगुली के १८३ रन और २००० में सचिन तेंदुलकर के न्यूजीलेंड के खिलाफ वनडे में बनाये १८६ रन के पीछे दूसरे छोर पे मुस्तैदी से खड़े द्रविड़ के शतक भुला दिए गए। पाकिस्तान के खिलाफ मुल्तान टेस्ट में सहवाग के ३०९ रन ने और पाकिस्तान के ही खिलाफ २००६ में द्रविड़-सहवाग के विश्वरिकार्ड ४१० रन की ओपनिंग भागीदारी में सहवाग के दोहरे शतक ने द्रविड़ के शतक की चमक को फीका कर दिया। ऐसे न जाने कितने रिकार्ड होंगे जो उस समय किसी न किसी कारण से हमारा ध्यान द्रविड़ की तरफ नहीं खींच पाए...पर द्रविड़ ने इन सब बातों की परवाह किये वगेर अपना ध्यान सिर्फ अपने खेल पर लगाया...और इसी जीवटता से खेलते हुए जब उन्हें लगा कि अब उन्हें अपनी जगह नए युवा खिलाडियों के लिए खाली कर देना चाहिए तब उन्होंने वनडे और टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कह दिया।

दरअसल, राहुल द्रविड़ अब एक इंसान नहीं एक प्रवृत्ति बन चुके है..और शायद आने वाले क्रिकेटर्स को यह तालीम दी जाये कि अपने अंदर द्रविड़त्व लाओ। द्रविड़ होने का मतलब धैर्य, साहस और अनुशासन का होना है..और क्रिकेट के इस जेंटलमेन गेम के लिए इन गुणों का होना अत्यधिक जरुरी है। क्रिकेट के असली जेंटलमेन बनकर रहे राहुल द्रविड़...धोनी, सहवाग अगर क्रिकेट की आंधी है तो द्रविड़ वो मधुर हवा है जो रूह को सुकून देती है। द्रविड़ के स्ट्रेट ड्राइव, लेट कट और पुल शाट को देखना लता मंगेशकर के गीतों को सुनने की तरह राहत का अहसास कराता है।
  
खैर, क्रिकेट के इस धुरंधर ने आईपीएल के इस संस्करण में ४५० से ज्यादा रन बनाकर खुद को क्रिकेट के इस तीसरे फॉरमेट का भी पुरोधा साबित किया। आज उम्र के इस पड़ाव पे आके भी राहुल ने जिस तरह का प्रदर्शन किया वो ये साबित करता है कि ढलते सूरज में भी तपिश होती है...उसका प्रकाश और प्रताप रात के चाँद-सितारों से कही ज्यादा होता है। अपने आगे के करियर को द्रविड़ अनिश्चित बताते है और किसी पूर्वनियोजित योजना के इतर वे समय की मांग के अनुरूप फैसले लेने को वरीयता देते हैं। क्रिकेट छोड़ने के बाद द्रविड़ के जीवन की दिशा क्या होगी ये तो वक्त बताएगा पर इतना पता है है कि अपनी खूबसूरती से संवारी क्रिकेटीय पारी की तरह उनके जीवन की पारी भी बेहद मजबूत होगी...जिसमे उनके परिवार, मित्र और रिश्ते-नातेदारों की अहमियत सर्वोपरि होगी।