Tuesday, June 4, 2013

कौन सुनेगा पर्यावरण की आवाज....???

 संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम के अंतर्गत प्रारंभ किये गए विश्व पर्यावरण दिवस को हम 1973 से मनाते चले आ रहे हैं। हर साल तरह-तरह के कामचलाउ और उत्सवी आयोजन करके हम इस दिन पर्यावरण के प्रति अपनी गंभीरता प्रगट करने का बखूब ढोंग रचते हैं। इंसानी संवेदनाएं आज सिर्फ दिनों की मोहताज हो गई है और हर एक जज्बात, रिश्तों, जिम्मेदारियों और यादों को दिनों का गुलाम बना दिया गया है। इन दिनों पे कुछ समारोह, संगोष्ठी या जलसे का आयोजन करके खुद को सामाजिक और संवेदनशील साबित करने के तमाम जतन हमारे द्वारा किये जाते हैं। इन आयोजनों में इंसान का शोर ही इतना तीव्रतम होता है कि पर्यावरण की आवाज को सुनने की जहमत कोई नहीं उठाता।

विकास की नई-नई इबारतें लिखने में मशगूल मानव को ये पता ही नहीं है कि वो अपने विनाश का गड्डा खोद कर विकास का जश्न मना रहा है। पिछले कुछ दशकों से महसूस किया जा रहा जलवायु परिवर्तन निरंतर खतरे की घंटी बजा रहा है लेकिन फिर भी इससे बेखबर मानव अपने तथाकथित विकास और महत्वकांक्षा के नाम पर जमकर प्रकृति का शोषण कर रहा है। मानव की इस तीव्रतम भौतिक प्यास और लालची प्रवृत्ति ने उसे अंधा बना दिया है और अपने आसपास मंडरा रहे खतरे के बादल उसे नज़र ही नहीं आ रहे हैं। क्योटो, रियो द जेनेरियो और कोपेनहेगन जैसे सम्मेलन पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर किये जाते हैं पर वहां महज कुछ कागजी संधियों और जलवायु में आ रहे परिवर्तनों के आंकड़े प्रदर्शन के अलावा और कुछ होता नहीं देखा जा रहा।

पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरुकता फैलाने की बात की जाती है। हमने हमारे देश में प्रायः हर कक्षा के पाठ्यक्रम में पर्यावरण को एक विषय के रूप में स्थान दे दिया है किंतु पर्यावरण संरक्षण का सतही ज्ञान हो जाने मात्र से समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता। जब तक पर्यावरण के प्रति सच्ची संवेदना लोगों के हृदय में पैदा नहीं होगी और पर्यावरण के क्षरण से होने वाली हानियों का सही मायनों में भावभासन नहीं होगा तब तक पर्यावरण के प्रति दिखाई जाने वाली हमारी चिंता महज बौद्धिक जुगाली के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 

वनों की अंधाधुंध कटाई, भुमि का कांक्रीटीकरण, नदियों में फैलने वाला औद्योगिक और मानवकृत कचरा, भुमिगत जल का अंधाधुंध दोहन ये कुछ ऐसी चीजें हैं जो प्रकृति की उत्पादकता को कमजोर बना रही हैं। मानव अपनी बेइंतहा भौतिक विकास की हवस में सब कुछ भुलाकर सिर्फ अपना आज बेहतर करने के प्रयास में अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक दूषित वातावरण में जीने को मजबूर बना रहा है। इंसान की अगली पीढ़ी क्या डॉलर से अपना पेट भरेगी? क्या इंफ्रास्ट्रकचर उसे ऑक्सीजन देगा? या फिर अपनी प्यास बुझाने के लिये उसे टैक्नोलॉजी की मदद लेना होगी? ऐसे कई प्रश्न है जो मानव के अस्तित्व के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। डायनासोर के करोड़ो साल पहले विलुप्त होने का शोक आज मानव मना सकता है पर आज से करोड़ो साल बाद मानव के विलुप्त होने का शोक कौन मनाएगा?

अपनी विलासिता के लिये एयर कंडीशनर, रेफ्रीजरेटर, हाईटेक कार, बाइक और न जाने कितने साधन मानव ने तैयार कर लिये हैं और उनका अनियंत्रित उपभोग भी कर रहा है। इन तमाम वस्तुओं के अनावश्यक उपयोग से कॉर्बन डाइ ऑक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कॉर्बन, मीथेन, नाइट्रेट ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इंसान की इस विलासिता पूर्ण जीवनशैली के कारण हो रहा है। जिससे निरंतर भूतापीयता में वृद्धि हो रही है। पृथ्वी पर बढ़ने वाली ये गर्मी कई तरह के नकारात्मक जलवायु परिवर्तन की तरफ इशारा करती है। एक शोध के अनुसार यदि पृथ्वी की सतह का औसत वार्षिक तापमान यदि छः डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाये जोकि अभी 14 डिग्री के आसपास है तो कई समुद्री तटवर्ती क्षेत्र और छोटे द्वीप समुद्र का जलस्तर बढ़ने से जलमग्न हो जायेंगे। हिमपर्वतों के ग्लेशियर के पिघलने से कई देशों में तीव्रतम बाढ़ के हालात बनेंगे। मरुस्थलीय इलाकों में भीषण सूखा और पर्वतीय क्षेत्रों में भयंकर बारिश, चक्रवात जैसी प्रलयकारी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। इसका सबसे ज्यादा असर दक्षिणी गोलार्ध के देशों यथा भारत, इंडोनेशिया, फिलीपीन्स, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और कई छोटे द्वीपीय देशों में देखने को मिलेगा। जहां की अरबों की जनसंख्या के जीवन पे संकट मंडराएगा परिणामस्वरूप उत्तरी गोलार्ध में पलायन की प्रवृत्ति देखने को मिलेगी। जबकि उत्तरी गोलार्ध में इस बड़े जनसंख्या घनत्व को सह पाने की क्षमता, रहने योग्य स्थान व प्राकृतिक विविधता न के बराबर है। प्राकृतिक आपदाओं के कुछ उदाहरण तो हम पिछले कुछ दशकों में देख ही चुके हैं।

पर्यावरण संकट का एक अहम् पक्ष जैवविविधता को होने वाला नुकसान भी है जिसके कारण आज कई जन्तुओं की प्रजाति या तो विलुप्त हो चुकी है या फिर विलुप्तता की कगार पर है। जीव-जन्तुओं की प्रजातियों पर आने वाला ये संकट सीधे तौर पर खाद्य श्रंख्ला पर असर डालता है और इस खाद्य श्रंख्ला के संकट का जिम्मेदार भी कहीं न कहीं मानव ही है जिसने खेती और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में कई तरह के जहरीले रसायनिकों का प्रयोग कर खाद्य श्रंख्ला के प्राथमिक उत्पादकों को ख़त्म करने में भूमिका निभाई। इसी तरह मानवबस्ती के निर्माण हेतु एवं स्थानांतरी कृषि के लिए जंगलों की कटाई ने कई बड़े मांसभक्षी जीवों शेर, चीता, भालू आदि के जीवन पर संकट पैदा किया। पहले के समय में आसानी से दिखाई देने वाले भंवरा, तितली जैसे जीव जो कि वनस्पति विविधता हेतु प्रमुख कारण माने जाते थे आज दिखना मुश्किल हो गये हैं क्योंकि इनके रहने योग्य स्थान ही अब ख़त्म हो चुके हैं। इसी तरह शापिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स और लग्जरी अपार्टमेंट के निर्माण वाले इस दौर में प्राकृतिक सौंदर्य के नजारे देखना मुश्किल हो गया है यहां तक कि शहरों में प्रकाश और धुंध के कारण होने वाले प्रदूषण के चलते अब आकाश भी तारों से रहित दिखाई देता है।

पर्यावरण में होने वाले ये बदलाव नजरअंदाज नहीं किये जा सकते। पर्यावरण का ये नुकसान हमारी अपनी हानि है। यदि हम आने वाले भविष्य हेतु हमारी अगली पीढ़ी को स्वस्थ वातावरण नहीं दे सकते तो हमें कोई हक़ नहीं कि हम उस पीढ़ी को इस धरती पर लेकर आयें। आने वाली पीढ़ी अपने बुजुर्गों की इन करतूतों पर हमें गाली ही देने वाली है। प्रकृति के हर संसाधन के प्रति गहन संवेदना प्रदर्शित करना बेहद आवश्यक है। इसकी शुरुआत किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर नहीं बल्कि हमारे अपने घरों और हमारे छोटे-छोटे से क्रियाकलापों से होगी। अपनी जीवनशैली में परिवर्तन लाकर अपने हर एक क्रियाकलाप को ईकोफ्रेंडली बनाना जरुरी है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिये लिया गया आपका एक संकल्प ही असल मायनों में पर्यावरण दिवस को मनाना है। 

आज इंसान चाँद और मंगल जैसे ग्रहों पर जीवन की खोज कर रहा है। पृथ्वी को दूषित करने के बाद दूसरे ग्रहों पर जीवन की खोज करने की ये छटपटाहट देखना आश्चर्यजनक नहीं लगता। लेकिन ये इंसान इतना भयंकर प्राणी है जो अपनी लालची प्रवृतियों के चलते एक दिन उन ग्रहों पर कहर ढाने से भी बाज नहीं आएगा......   

4 comments:

  1. इंसान का शोर ही इतना तीव्रतम होता है कि पर्यावरण की आवाज को सुनने की जहमत कोई नहीं उठाता।.........बहुत गम्‍भीर विश्‍लेषण किया है आपने। काश हम आधुनिक उपकरणों पर अपनी निर्भरता कम कर पाते, और प्रकृति को संरक्षित कर पाते तो कितना अच्‍छा होता!

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  2. विकास की कलम से विनाश का लेख लिखती मानवजाति।

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  3. दुनिया में जो भी कोमल है सुंदर है नष्ट हो रहा है और हम एक दिन उन नष्ट हो रही चीजों की पुण्यतिथि मनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।

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