Saturday, November 16, 2013

सचिन! एक चिट्ठी तुम्हारे लिये....

क्रिकेट के भगवान के नाम से संबोधित किये जाने वाले, प्रिय सचिन! पिछले पाँच-छह सालों से आपके क्रिकेटीय करियर में हम आखिरी शब्द सुनते आ रहे हैं..यथा- सचिन का आखिरी इंग्लैँड दौरा, आखिरी आस्ट्रेलिया दौरा, आखिरी वर्ल्डकप, आखिरी वनडे, आखिरी आईपीएल, आखिरी ट्वेंटी-ट्वेंटी आदि। लेकिन इन तमाम आखिरी शब्दों से बहुत ज्यादा अलग है ये सुनना और फिर देखना भी कि सचिन का क्रिकेट में आखिरी दिन। आँखों में आँसू। आपके भी और आपके चाहने वाले लाखों दर्शकों के मन में भी..और ये हों भी क्यों न? हम किसी स्कूल-कॉलेज में बमुश्किल दो-पाँच साल बिताने के बाद विदा होते हैं तो रो पड़ते हैं..और फिर आपके लिये तो क्रिकेट वो फलसफा था जिसे आपने अपनी जिंदगी का लगभग आधा हिस्सा दिया है। आपका पहला प्यार, आपकी गर्लफ्रेंड और असल मायनों में आपकी अर्धांगिनी भी बस क्रिकेट ही तो था..तो फिर कैसे कोई इसे एकदम से छूट जाने पर भावुक न हो..आपके मानसिक धरातल पर इसे छोड़ने की तैयारी तो काफी पहले से होगी लेकिन मानसिक तौर पे की गई समस्त तैयारियां कई बार भौतिक ज़मीन पर नाकाम ही साबित होती हैं और ये बखूब आपके चेहरे से ज़ाया हो रहा था। ठीक वैसे ही जैसे कि दो विरुद्ध सांस्कृतिक परिवेश के प्रेमी-युगल चाहे कितनी भी मानसिक तौर पे संबंध विच्छेद करने की तैयारी कर लें पर संबंध टूटने पे निकली आह को दबाना और अचानक पैदा हुआ खालीपन भरना आसान नहीं होता। आखिर आप कैसे इस अचानक छूटे हुए संबंध की टीस को कम कर पायेंगे..क्योंकि भले ये दुनिया और ये मीडिया आपको भगवान की हजार उपमा देदे पर सच तो यही है न कि आप भी आम इंसानों की तरह भावनाओं का एक पुतला, एक अदद इंसान ही हैं।

आपके क्रिकेटीय सफर में बनाये गये उन तमाम रिकार्डस् का ज़िक्र मैं नहीं करूंगा जिनकी बदौलत आप मास्टर-ब्लॉस्टर और भगवान कहलाते हैं...क्योंकि आपका नाम ले देना ही रिकॉर्डस् का ज़िक्र कर देना है और मैंने कभी महज़ आपके उन जादूई आंकड़ों के कारण आपका सम्मान नहीं किया..आपकी कद्र मैंने हमेशा उस एक अच्छे इंसान के रूप में की है जो असीम लोकप्रियता, अगाध सम्मान और बेइंतहा चाहने वालों को पाने के बावजूद कभी अपने लक्ष्य, अपने ध्येय,  अपनी विनम्रता और मानवीयता से नहीं डिगा और आपकी ये भलमनसाहत विदाई के वक्त व्यक्त किये गये आपके वक्तव्य से भी बखूब प्रकट हुई। हाँ ये बात सत्य है कि उस नन्ही उम्र में जबकि मैं क्रिकेट का 'क' भी नहीं जानता था तब मेरे लिये क्रिकेट का मतलब आप ही थे। जिस वक्त आपने अपने करियर की शुरुआत की उस वक्त तो मैंने अपना होश ही नहीं संभाला था..मेरे लिये तो आपके करियर के  बढ़ते जाने का मतलब ही मेरे जीवन का वृंद्धिगत होना रहा है। इसलिय मैं अपनी अदनी सी बौद्धिकता से क्या आपके सूर्य समान विशाल क्रिकेटीय करियर को दीपक दिखाने की गुस्ताखी करूं। हाँ एक चीज़ को ज़रूर बयां करना चाहुँगा क्योंकि उसे मैं समझ सकता हूँ कि आपने इस क्रिकेटीय जीवन के लिये किस बहुमूल्य चीज़ का त्याग किया है- और वो है अपना बचपन और अपनी बिंदास जवानी।

जिस नादान उम्र में बच्चे छोटी-छोटी सी ज़िद और गुडडे-गुड़ियों के खेल में ही मशरूफ रहते हैं तब आपके हाथ में बल्ला था..जिस उम्र में नितांत मनमौजीपन होता है तब आप सुवह-शाम क्रिकेट के मैदान पे पसीना बहाया करते थे। जिस उम्र में जवानी की दहलीज़ पे कदम रखता एक युवा कॉलेज की अल्हड़ मस्तियों में डूबा रहता है, गर्लफ्रेंड, दोस्तों के साथ मस्ती, पार्टी और बंजारेपन की रंगीनियों में रंगा रहता है उस उम्र में आप देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे..और एक बड़ी भारी जिम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाये हुए थे। जिंदगी के ये छोटे-छोटे मगर बेहद अहम् जज्बातों के साथ कॉम्प्रोमाइज़ करना कभी भी किसी इंसान के लिये आसान नहीं होता..लेकिन आपने अपनी जिंदगी के इस दौर में अपना सर्वस्व क्रिकेट को सौंप दिया था..और आपके इसी समर्पण, एकाग्रता और इच्छाशक्ति का ही परिणाम है कि आज आपको वो सब मिला जिसकी उम्मीद किसी इंसान को स्वप्न में भी नहीं होती। लेकिन एक अहम् बात ये भी है कि जो अकूट दौलत, सम्मान और यश आपको मिला है आपने कभी भी उसे नहीं चाहा..आपने तो बस एक क्रिकेट को चाहा और अपने लक्ष्य के प्रति किये गये शिद्दत से समर्पण ने आपको वो सब दिया जिसे देख लोग बौराये फिरते हैं। आपकी इस क्रिकेटीय निष्ठा को ही हमारा सैल्युट है अगर ये निष्ठा हर इंसान के पास आ जाये तो दुनिया में ऐसी कोई भी मंजिल नहीं जिसे लोग हासिल न कर पाये। वास्तव में कमी हममें ही होती है और हम अक्सर दोष बाहरी चीज़ों को देते हैं। हमें मंज़िल की चमक दिखाई देती है और हम उस मंजिल की चकाचौंध को ही पसंद करते हैं पर कभी भी हमें रास्तों का संघर्ष नज़र नहीं आता यही कारण है कि हमारी निष्ठा उस संघर्ष, उन प्रयासों में नहीं होती..जिन प्रयासों से अभीष्ट मंजिल की प्राप्ति होती है।

एक बात और कि मैंने कभी आपको भगवान की तरह नहीं माना..आप मेंरे लिये अपनी तमाम क्षमताओं का सदुपयोग करने वाले एक अच्छे इंसान ही रहे हैं..यही वजह है कि जब आप अच्छा नहीं खेलते थे तो आपके लिये भला-बुरा भी बहुत बोला है...लेकिन जब भी अच्छा खेले हैं तो आपको सिर-आंखों पे बैठाया है। आपको खेलते देखना मुझे जितना पसंद था उतना ही पसंद आपको सुनना भी है..क्योंकि आपकी मासुमियत और छलरहित इंसानियत आपके शब्दों से बखूब बयाँ होती है। एक अफसोस ज़रूर है कि कभी आपको सीधे मैदान पर जाकर खेलते हुए नहीं देख पाया..2006 की चैंपियंस ट्राफी के जिस इकलौत मैच को मैंने मैदान में जाकर देखा है उसमें आप किसी कारण वश नहीं खेले थे। इसलिये ये मलाल हमेशा रहेगा। लेकिन आपकी ऐसी असंख्य यादें हैं जिन्हें मैं आने वाली पीढ़ियों को सुनाउंगा और उन्हें सुनाते वक्त गर्व से हमारा सीना चौड़ा भी रहेगा कि हमने सचिन को क्रिकेट खेलते देखा है।

आपके जाने के बाद का खालीपन कुछ वक्त तो रहेगा लेकिन फिर ये भी भर जायेगा क्योंकि यही दुनिया की रीत है 'द शो मस्ट गो ऑन'। आपके बनाये रिकॉर्ड्स भी एक एक कर टूटेंगे क्योंकि रिकॉर्ड्स की फितरत ही ये होती है..लेकिन कोई टूटा हुआ रिकॉर्ड और आपकी जगह लेने वाले शख्स के आ जाने के बावजूद कभी आपका कद छोटा होने वाला नहीं है...आज क्रिकेटीय जगत में जो गम पसरा है वो भी इस कारण है कि आपने जो खुशियां दी है उनकी कोई सीमा नहीं रही है और खुशियां जितनी ऊंचाई पे जाकर नीचे उतरती हैं ग़म को भी उतना ही गहरा बना जाती हैं..समय के सहलाने वाले हाथ सारे ग़म भर देते हैं लेकिन उस ग़म से पैदा हुआ खालीपन तो जाते जाते ही जायेगा। सचिन! आप क्रिकेट का मैदान छोड़ सकते हैं हमारे दिल की ज़मीं नहीं........

Tuesday, November 12, 2013

सिनेमा के व्यवसायिक दलदल में चंद सार्थकता के कमल

सिनेमाघरों में चैन्नई एक्सप्रेस जैसी बेतुकी और ग्रांड मस्ती जैसी फूहड़ फ़िल्म की व्यवसायिक कामयाबी के बाद...इन दिनों क्रिश-3 जैसी औसत सुपरहीरोनुमा फिल्म जमकर बॉक्स ऑफिस पे पैसा कूट रही है..इसी फेहरिस्त में धूम-3 टाइप मसाला फिल्म प्रदर्शन के इंतजार में है और मौजूदा लहर को देखकर कयास लगाना मुश्किल नहीं कि ये भी सौ करोड़ के मायावी क्लब में शामिल होने वाली फिल्म साबित होगी...जिस सौ करोड़ के आंकड़े को ही इन दिनों सफलता और सार्थकता का पर्याय माना जाने लगा है। प्रायः हर फिल्मकार इसी सौ करोड़ी जंजाल को आदर्श मान सिनेमा निर्माण कर रहा है।

दरअसल ये आज या कल का ही जंतर नहीं है इस सौ करोड़ी सन्निपात से हमारे फिल्मकार लगभग पिछले एक दशक से ग्रसित हैं और इस व्यवसायिक चकाचौंध ने उनसे सार्थकता के आग्रह को छीन लिया है यही वजह है कि दिग्गज फिल्मकार अपनी समस्त समय, शक्ति और बुद्धि का प्रयोग मात्र उस मसाला मनोरंजन के निर्माण मे कर रहे हैं जो उनकी काँखों से रुपयों की सरिताएं प्रवाहित करवा सकें। इस व्यवसायिक चमक के चलते ही उन्होंने सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की वो उक्ति भी विस्मरा दी है जिसमे फाल्के साहब ने कहा था कि 'य़द्यपि सिनेमा मनोरंजन का सशक्त माध्यम है लेकिन इसका उत्तम प्रयोग समाज में ज्ञानवर्धन और जागरुकता के लिये भी किया जा सकता है' फिल्मकारों के व्यवसायिक मोह के कारण तमाम उत्तरदायित्व की भावनाएं हासिये में फेंक दी गई हैं और भौतिकवादिता की हवस के चलते हॉलीवुड और दक्षिण भारतीय मसाला फिल्मों की नकल से भी अब कोई गुरेज़ नहीं रहा है। इन फिल्मों के पहले भी सलमान खान को सितारा बनाने वाली दबंग, वांटेड, बॉडीगार्ड जैसी फिल्में और राउडी राठौर, गोलमाल रिटर्न्स, सिंघम, हाउसफुल टाइप फिल्में इसी व्यवसायिकता के दलदल को गहरा बना चुकी हैं। लेकिन इस सबके बावजूद गुजश्ता दशक को हिन्दी सिनेमा का स्वर्णिम दशक माना जा रहा है...इसका कारण है व्यवसायिकता के दलदल में खिले हुए चंद सार्थक एवं विविध मुद्दों पे बनी फिल्मों के खुशबुदार कमल, जो हिन्दी सिनेमा की गरिमा को अंतर्राष्ट्रीय मंच पे जिंदा रखे हुए हैं।

इस समझने के लिये ज्यादा पीछे जाने की ज़रूरत नहीं है इरफान ख़ान स्टारर लंचबॉक्स और राजकुमार यादव अभिनीत शाहिद, उन फिल्मों के उदाहरण हैं जो हिन्दी सिनेमा की सार्थकता को बयां करती हैं। लेकिन अफसोस होता है जब दबंग और चैन्नई एक्सप्रेस जैसी फिल्में हाउसफुल जाती हैं और इन सार्थक फिल्मों पे सिनेमाघरों में सीटें खाली पड़ी रहती हैं। जनता की ये प्रवृत्ति इस बात को बयाँ करती है कि हमारा रवैया ज़बरदस्त ढंग से बेहुदा तमाशे पे ताली बजाने वाला ही बना हुआ है भले ही हम कितनी ही बौद्धिकता की जुगाली लोगों के सामने करते नज़र आये। अपने मनोरंजन चुनने के लिये हम हमेशा अतार्किकता, सतही भावनाओं और अश्लीलता को ही आदर्श मानकर चलते हैं। ऐसा नहीं है कि मुख्यधारा के परे हास्यात्मक मनोरंजन देखने को नहीं मिलता बल्कि कई ऑफबीट फिल्में बेहद इंटेलीजेंस पूर्ण सिचुएशनल कॉमेडी एवं आला दर्जे के विट (हास्य जो संवादों से पैदा होता है) के माध्यम से उत्तमोत्तम हास्य पैदा करती हैं। इन मनोरंजक फिल्मों की कॉमेडी किसी अतार्किक, बेढंगी उछलकूदों में आधारित नहीं बल्कि हमारे आसपास की ज़िंदगी से जुड़ी हुई प्रतीत होती है। इसका बखूब दर्शन हमनें विकी डोनर, खोसला का घोसला, भेजा फ्राय, चलो दिल्ली, दो दूनी चार जैसी फिल्मों में किया है।


इन हास्यात्मक फिल्मों के अलावा कई ऐसी भी फिल्में रही हैं जो संवेदनाओं एवं वैचारिकता की चासनी में इस कदर डूबी होती है कि उनका आस्वादन करते वक्त अपने ज़हन को छुईमुई सा बना लेना होता है..मानो रुह का थोड़ा भी कड़क मिज़ाज इनके संपूर्ण जायके को मटियामेट करके रख देगा। इकबाल, डोर, उड़ान, शिप ऑफ थीसिस, दसविदानिया और मि.एंड मिसेज अय्यर कुछ इसी श्रेणी की फिल्में हैं। आतंकवाद, गरीबी, बेवशी, बेरोजगारी, सांप्रदायिकता जैसे मुद्दों पर भी सिनेमा की इस दूसरी पंक्ति की धारा ने शानदार इंटेलेक्चुअल मनोरंजन पैदा किया है। ए वेडनेसडे, आमिर, मुंबई मेरी जान, फिराक़, ये मेरा इंडिया, द नेमसेक, पीपली लाइव, धर्म और फंस गए रे ओबामा जैसी कुछ फिल्में हिन्दी सिनेमा को सैल्युट मारने को मजबूर करती हैं। विविध विषयों पर बनी इन तमाम फिल्मों को देख ये यकीन करना मुश्किल होता है कि सामान्य से दिखने वाले इन विषयों पर इस कद़र मनोरंजन गढ़ा जा सकता है। पिछले वर्ष प्रदर्शित होने वाली ओह मॉय गॉड और इंग्लिश-विंग्लिश का ज़िक्र करना भी इस कड़ी में बेहद आवश्यक है।

इन सरल-सहज विषयों के अलावा कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जो ग्रे शेड या कालीन के नीचे के स्याह पक्ष को उजागर करती नज़र आती है देखने में बेहद उलझी हुई और जटिल फिल्में मालुम होती हैं इनका प्रस्तुतिकरण भी अतिरेकपूर्ण जान पड़ता है..लेकिन इस सबके बावजूद ये व्यवसायिक मसाला फिल्मों से पूर्णतः भिन्न प्रकृति की होती हैं और इन फिल्मों पर भी व्यवसायिकता के परे कलापक्ष ही मजबूती से जाहिर होता है। अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी, मणिरत्नम इसी कोटि की फ़िल्में बनाने वाले फिल्मकार रहे हैं और ब्लैक फ्राइडे, गैंग्स ऑफ वासेपुर, अब तक छप्पन, मद्रास कैफे, शंघाई, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, मैट्रो, गुलाल, कहानी जैसी फिल्में ऑफबीट सिनेमा के इस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं।

बहरहाल, इस व्यवसायिकता के दलदल में यदा-कदा नज़र आने वाले ये सार्थकता के कमल राहत पहुंचाते हैं और कमसकम मेरे सिनेमाई प्रेम को जीवित रखे हुए हैं अन्यथा चैन्नई एक्सप्रेस, ग्रांडमस्ती, दबंग टाइप फिल्में कई बार मेरा सिनेमा से मोहभंग कर चुकी हैं। खुशी की बात ये भी है कि इस तरह नवीन व छुपे हुए विषयों पे प्रायः नई उम्र के फिल्मकार फिल्में बना रहे हैं और स्थापित फिल्मकारों को मूंह चिढ़ा रहे हैं जो बॉक्स ऑफिस का प्रयोग धन कूटने के लिये ही करते हैं। फिल्मों के साथ-साथ अब फिल्मकारों में भी विविधता है अन्यथा पहले हम ऑफबीट फिल्मों के लिये महज श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणिकौल जैसे निर्देशकों पर ही आश्रित थे। ऊपर वर्णित इन फिल्मों ने ही हिन्दी सिनेमा को विश्व मंच पर अगले पायदान पे पहुंचा दिया है...हालांकि कुछ मुख्यधारा की फिल्में भी मनोरंजन के साथ सार्थक प्रयास कर रही है जिनमें थ्री इडियट्स, जब वी मेट, लगे रहो मुन्नाभाई, लगान, रंग दे बसंती, भाग मिल्खा भाग प्रमुख हैं किंतु उनकी संख्या भी बहुत कम है। मुख्यधारा की सार्थक फिल्मों के परे ऑफबीट सार्थक फिल्मों का ज़िक्र इसलिये भी ज़रूरी हो जाता है कि अक्सर ये फिल्में अनदेखी ही रह जाती हैं जबकि मैनस्ट्रीम सिनेमा को तो बहुलता में दर्शकवर्ग मिल ही जाता है।

खैर, आज अपने कंप्यूटर में एक बेहद छोटे बैनर की ऐसी ही गुमनाम फिल्म सड्डा अड्डा देखने के कारण..अनायास ही मेरे मन में इन सार्थक मगर गुमनाम फिल्मों के प्रति कुछ लिखने का खयाल आया..जिस वजह से ये लेख लिखने की प्रेरणा मिली। एक बात ज़रूर है कि इस तरह के सिनेमा से आने वाली महक से व्यवसायिक प्रयासो पे आने वाली खुन्नस कुछ कम जरुर होती है.....