सिनेमाघरों
में चैन्नई एक्सप्रेस जैसी बेतुकी और ग्रांड मस्ती जैसी फूहड़ फ़िल्म की व्यवसायिक कामयाबी के बाद...इन दिनों क्रिश-3 जैसी औसत सुपरहीरोनुमा फिल्म जमकर बॉक्स ऑफिस पे पैसा कूट रही
है..इसी फेहरिस्त में धूम-3 टाइप मसाला फिल्म प्रदर्शन के इंतजार
में है और मौजूदा लहर को देखकर कयास लगाना मुश्किल नहीं कि ये भी सौ करोड़ के
मायावी क्लब में शामिल होने वाली फिल्म साबित होगी...जिस सौ करोड़ के आंकड़े को ही
इन दिनों सफलता और सार्थकता का पर्याय माना जाने लगा है। प्रायः हर फिल्मकार इसी
सौ करोड़ी जंजाल को आदर्श मान सिनेमा निर्माण कर रहा है।
दरअसल ये आज या कल का ही जंतर नहीं है
इस सौ करोड़ी सन्निपात से हमारे फिल्मकार लगभग पिछले एक दशक से ग्रसित हैं और इस
व्यवसायिक चकाचौंध ने उनसे सार्थकता के आग्रह को छीन लिया है यही वजह है कि दिग्गज
फिल्मकार अपनी समस्त समय, शक्ति और
बुद्धि का प्रयोग मात्र उस मसाला मनोरंजन के निर्माण मे कर रहे हैं जो उनकी काँखों
से रुपयों की सरिताएं प्रवाहित करवा सकें। इस व्यवसायिक चमक के चलते ही उन्होंने
सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की वो उक्ति भी विस्मरा दी है जिसमे फाल्के साहब
ने कहा था कि 'य़द्यपि सिनेमा मनोरंजन का सशक्त
माध्यम है लेकिन इसका उत्तम प्रयोग समाज में ज्ञानवर्धन और जागरुकता के लिये भी किया
जा सकता है'। फिल्मकारों के व्यवसायिक मोह के कारण तमाम उत्तरदायित्व की भावनाएं
हासिये में फेंक दी गई हैं और भौतिकवादिता की हवस के चलते हॉलीवुड और दक्षिण
भारतीय मसाला फिल्मों की नकल से भी अब कोई गुरेज़ नहीं रहा है। इन फिल्मों के पहले
भी सलमान खान को सितारा बनाने वाली दबंग, वांटेड, बॉडीगार्ड जैसी फिल्में और राउडी
राठौर, गोलमाल रिटर्न्स, सिंघम, हाउसफुल टाइप फिल्में इसी व्यवसायिकता के दलदल को गहरा बना चुकी हैं। लेकिन
इस सबके बावजूद गुजश्ता दशक को हिन्दी सिनेमा का स्वर्णिम दशक माना जा रहा
है...इसका कारण है व्यवसायिकता के दलदल में खिले हुए चंद सार्थक एवं विविध मुद्दों
पे बनी फिल्मों के खुशबुदार कमल, जो हिन्दी सिनेमा की गरिमा को अंतर्राष्ट्रीय मंच पे जिंदा
रखे हुए हैं।
इस समझने
के लिये ज्यादा पीछे जाने की ज़रूरत नहीं है इरफान ख़ान स्टारर लंचबॉक्स और राजकुमार यादव अभिनीत शाहिद, उन
फिल्मों के उदाहरण हैं जो हिन्दी सिनेमा की सार्थकता को बयां करती हैं। लेकिन
अफसोस होता है जब दबंग और चैन्नई एक्सप्रेस जैसी फिल्में हाउसफुल जाती हैं और इन सार्थक फिल्मों पे सिनेमाघरों
में सीटें खाली पड़ी रहती हैं। जनता की ये प्रवृत्ति इस बात को बयाँ करती है कि
हमारा रवैया ज़बरदस्त ढंग से बेहुदा तमाशे पे ताली बजाने वाला ही बना हुआ है भले
ही हम कितनी ही बौद्धिकता की जुगाली लोगों के सामने करते नज़र आये। अपने मनोरंजन
चुनने के लिये हम हमेशा अतार्किकता, सतही भावनाओं और अश्लीलता को ही आदर्श
मानकर चलते हैं। ऐसा नहीं है कि मुख्यधारा के परे हास्यात्मक मनोरंजन देखने को
नहीं मिलता बल्कि कई ऑफबीट फिल्में बेहद इंटेलीजेंस पूर्ण सिचुएशनल कॉमेडी एवं आला
दर्जे के विट (हास्य जो संवादों से पैदा होता है) के माध्यम से उत्तमोत्तम हास्य
पैदा करती हैं। इन मनोरंजक फिल्मों की कॉमेडी किसी अतार्किक, बेढंगी उछलकूदों में आधारित नहीं
बल्कि हमारे आसपास की ज़िंदगी से जुड़ी हुई प्रतीत होती है। इसका बखूब दर्शन हमनें विकी डोनर, खोसला का घोसला, भेजा फ्राय, चलो दिल्ली, दो दूनी चार जैसी फिल्मों में किया है।
इन
हास्यात्मक फिल्मों के अलावा कई ऐसी भी फिल्में रही हैं जो संवेदनाओं एवं वैचारिकता
की चासनी में इस कदर डूबी होती है कि उनका आस्वादन करते वक्त अपने ज़हन को छुईमुई
सा बना लेना होता है..मानो रुह का थोड़ा भी कड़क मिज़ाज इनके संपूर्ण जायके को
मटियामेट करके रख देगा। इकबाल, डोर, उड़ान, शिप ऑफ थीसिस, दसविदानिया और मि.एंड मिसेज अय्यर कुछ इसी श्रेणी की फिल्में हैं।
आतंकवाद, गरीबी, बेवशी, बेरोजगारी, सांप्रदायिकता जैसे मुद्दों पर भी
सिनेमा की इस दूसरी पंक्ति की धारा ने शानदार इंटेलेक्चुअल मनोरंजन पैदा किया है। ए वेडनेसडे, आमिर, मुंबई मेरी जान, फिराक़, ये मेरा इंडिया, द नेमसेक, पीपली लाइव, धर्म और फंस गए रे ओबामा जैसी कुछ फिल्में हिन्दी सिनेमा को
सैल्युट मारने को मजबूर करती हैं। विविध विषयों पर बनी इन तमाम फिल्मों को देख ये
यकीन करना मुश्किल होता है कि सामान्य से दिखने वाले इन विषयों पर इस कद़र मनोरंजन
गढ़ा जा सकता है। पिछले वर्ष प्रदर्शित होने वाली ओह मॉय गॉड और इंग्लिश-विंग्लिश का ज़िक्र करना भी इस कड़ी में बेहद
आवश्यक है।
इन सरल-सहज विषयों के अलावा कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जो ग्रे
शेड या कालीन के नीचे के स्याह पक्ष को उजागर करती नज़र आती है देखने में बेहद
उलझी हुई और जटिल फिल्में मालुम होती हैं इनका प्रस्तुतिकरण भी अतिरेकपूर्ण जान
पड़ता है..लेकिन इस सबके बावजूद ये व्यवसायिक मसाला फिल्मों से पूर्णतः भिन्न
प्रकृति की होती हैं और इन फिल्मों पर भी व्यवसायिकता के परे कलापक्ष ही मजबूती से
जाहिर होता है। अनुराग कश्यप, दिबाकर
बनर्जी, मणिरत्नम
इसी कोटि की फ़िल्में बनाने वाले फिल्मकार रहे हैं और ब्लैक फ्राइडे, गैंग्स ऑफ वासेपुर, अब तक छप्पन, मद्रास कैफे, शंघाई, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, मैट्रो, गुलाल, कहानी जैसी फिल्में ऑफबीट सिनेमा के इस वर्ग
का प्रतिनिधित्व करती हैं।
बहरहाल, इस व्यवसायिकता के दलदल में यदा-कदा
नज़र आने वाले ये सार्थकता के कमल राहत पहुंचाते हैं और कमसकम मेरे सिनेमाई प्रेम
को जीवित रखे हुए हैं अन्यथा चैन्नई
एक्सप्रेस, ग्रांडमस्ती, दबंग टाइप फिल्में कई बार मेरा सिनेमा से
मोहभंग कर चुकी हैं। खुशी की बात ये भी है कि इस तरह नवीन व छुपे हुए विषयों पे
प्रायः नई उम्र के फिल्मकार फिल्में बना रहे हैं और स्थापित फिल्मकारों को मूंह
चिढ़ा रहे हैं जो बॉक्स ऑफिस का प्रयोग धन कूटने के लिये ही करते हैं। फिल्मों के
साथ-साथ अब फिल्मकारों में भी विविधता है अन्यथा पहले हम ऑफबीट फिल्मों के लिये
महज श्याम बेनेगल, गोविंद
निहलानी, मणिकौल
जैसे निर्देशकों पर ही आश्रित थे। ऊपर वर्णित इन फिल्मों ने ही हिन्दी सिनेमा को
विश्व मंच पर अगले पायदान पे पहुंचा दिया है...हालांकि कुछ मुख्यधारा की फिल्में
भी मनोरंजन के साथ सार्थक प्रयास कर रही है जिनमें थ्री इडियट्स, जब वी मेट, लगे रहो मुन्नाभाई, लगान, रंग दे बसंती, भाग मिल्खा भाग प्रमुख हैं किंतु उनकी संख्या भी बहुत
कम है। मुख्यधारा की सार्थक फिल्मों के परे ऑफबीट सार्थक फिल्मों का ज़िक्र इसलिये
भी ज़रूरी हो जाता है कि अक्सर ये फिल्में अनदेखी ही रह जाती हैं जबकि मैनस्ट्रीम
सिनेमा को तो बहुलता में दर्शकवर्ग मिल ही जाता है।
खैर, आज अपने
कंप्यूटर में एक बेहद छोटे बैनर की ऐसी ही गुमनाम फिल्म सड्डा अड्डा देखने के कारण..अनायास ही मेरे मन में
इन सार्थक मगर गुमनाम फिल्मों के प्रति कुछ लिखने का खयाल आया..जिस वजह से ये लेख
लिखने की प्रेरणा मिली। एक बात ज़रूर है कि इस तरह के सिनेमा से आने वाली महक से
व्यवसायिक प्रयासो पे आने वाली खुन्नस कुछ कम जरुर होती है.....
मस्ती जैसी फिल्मो को हिट करवाने मिने भी जनता का ही हाथ है , अच्छे साहित्य को उतने दर्शक नहीं मिलते इससे क्या ज़ाहिर होता है लफ्जों में कहना उचित नहीं है , एक बार शुश्मिता सेन ने एक साक्षात्कार में कहा था अगर वो हमेशा सारी पहनेगी तो दर्शक उन्हें देखना बंद करदेंगे , दर्शक की सोच पे किसका परभाव है ये भी एक विचार करने वाली बात है .... जिस तरह आज सिनेमा के नाम पे गंदगी परोसी जा रही है वो निंदिये है लेकिन उसे जनता खूब लुफ्त लेके पसंद भी करती है | अलतमश
ReplyDeleteधन्यवाद अल्तमश...
Deleteआज के सिने जगत की प्रवृत्तियों और दर्शकों के रुझान पर एक कमाल का आलेख लिखा आपने । बहुत ही उम्दा अंकुर जी बहुत ही उम्दा ।
ReplyDeleteअजय जी आभार आपका इस प्रतिक्रिया के लिये...
Deleteसाल भर की फिल्मों और आज के फ़िल्मी दौर का लेखा जोखा दे दिया ... पर कई बार ये समझ नहीं आता कुछ फिल्में चलती हैं तो क्यों ... और कुछ नहीं तो क्यों नहीं ...
ReplyDeleteअच्छा आलेख ...
धन्यवाद नासवाजी...
Deleteआज के दर्शक की रूचि रुझान बदल गया है इसके लिए कौन जिम्मेदार है? बुद्धिमान लोग इसे सिनेमा का प्रभाव मानते हैं जबकि सिनेमा जगत के लोग खुद को दर्शकों की रूचि के अनुसार ढल जाना सिनेमा में परिवर्तन का कारण मानते हैं,कारण जो भी हों समाज में नैतिक पतन का जिम्मेदार बहुत हद्द तकबदला हुआ घटिया सिनेमा रहेगा ही.
ReplyDeleteसहमत हूं आपकी बात से...
Deletesachmuch achcha cinema hashiye main hai.
ReplyDeleteबिल्कुल सौरभ जी...सार्थक सिनेमा पे सिनेमा हॉल की खाली पड़ी सीटें ये बयाँ करती हैं।
Deletemovies that deserve recognition are rejected by public..
ReplyDeleteone that reflects the truth... never really succeeds on box office
I think public as well as film industry both are equally responsible...
absolutely right jyoti ji...n thnks for these beautiful words :)
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