Monday, March 31, 2014

झूठी इमारतों के कुछ भ्रामक शिखर....


अभी-अभी एक सरकारी नौकरी में दाखिल हुआ हूँ...अच्छी तनख्वाह, एक ठीक-ठाक सा पद..लोगों की निगाहों में कुछ विशेष होने का सा भाव और ऐसा ही बहुत कुछ है जो हासिल हुआ है। अपने शैशव काल में एक क्रेज हुआ करता था गवर्मेंट ऑफ इंडिया का एम्पलॉय होने का...पर जबसे इन ख़याली मिथ्या इमारतों की असलीयत को करीब से समझने का मौका मिला है एक बात अनुभूत हो रही है कि दुनिया की तमाम ऐसी इमारतों के शिखर कितने भ्रामक है।

इंसान ये समस्त चीज़ें सिर्फ अपना एक झूठा आभामण्डल रचने के लिये प्रयोग करता है...जहाँ उस आभामण्डल की चमक के चलते उसे शोहरत मिले, लोगों में बढ़प्पन का अहसास हो, समाज मेंं पद-प्रतिष्ठा हासिल हो, शादी-दहेज और ऐसी ही तमाम चीज़ें...क्योंकि सफलता से कहीं कुछ नहीं बदलता, सिर्फ लोगों का आपके प्रति नज़रिया बदल जाता है। आपके हुनर पे मुहर लग जाती है..और दरअसल कई बार आप बेहद हुनरमंद होते हुए जिस जगह पहुंचते हैं वहां कोई और बिना किसी अतिरिक्त हुनर के कई दूसरी वजहों से भी पहुंच जाते हैं। ऐसे में इंसान की तमाम हरकतें बेहद बचकानी सी ही साबित होती हैं। किसी वाञ्छित लक्ष्य को पा जाने के बाद ऐसा नहीं इंसान बदल जाता हो, वो इंसान तो वही रहता है पर लोगों के ताने, चंद झूठी तालियों में तब्दील हो जाते हैं..और अक्सर उन तालियों के शोर में आदमी बौरा जाता है और भ्रामक आभामण्डल के चलते उसपे एक ऐसा ही झूठा अहंकार छा जाता है। 

समय की गिज़ा पे जनता और जनता की तालियों की आवाज़ नहीं बदलती..पर हुनरमंद एवं सफल लोग बदलते रहते हैं लेकिन उन तालियों के शोर के कारण इंसान एक ही जीवन में न जाने कितनी ज़िंदगी मरता और जीता  है। कल तक जो लोग आपसे कहते हैं कि उसने इतना हुनरमंद होके क्या कर लिया..वही लोग और उनकी वही जुवान ये कहने लगती है कि मुझे तो उसके हुनर पे पहले से यकीन था वो बहुत आगे जायेगा। लोग, हवाओं का रुख देख अपनी दिशाएं तय करते हैं। अब बताईये किन शब्दों को सही माना जाय...किस पे रोष किया जाय और किस पे प्रसन्न हुआ जाय। इस बारे में पहले भी काफी कुछ अपनी एक पोस्ट भ्रम का आभामण्डल, मिथ्या अहंकार और अंधी आत्ममुग्धता में कह चुका हूँ।

लेकिन इस सबमें एक बात तो बहुत अच्छे से समझ आ ही गई है कि दुनिया में सिर्फ वही चीज़ें महान् है जो आपको हासिल नहीं हुई हैं..हासिल होने के बाद जब उसकी असलियत से रुबरु होते हैं तब उस वस्तु के भ्रामक आभामण्डल को समझते हैं। इसी तरह सिर्फ वही व्यक्ति महान् है जिसका ज़मीर सलामत है या जिसका चरित्र नीलाम नहीं हुआ। अन्यथा इस दुनिया के तमाम तथाकथित बड़े और रुतबे वाले लोग भी निहायती ओछे किस्म के ही हैं। हम भी हमारी समस्त ऊर्जा स्वयं का एक ऐसा आभामण्डल रचने में खर्च करते हैं जिसकी चमक से लोग चौंधिया जाये। भले ही उस आभामण्डल से हम खुद ही परेशान हों, भले ही वो आभामण्डल हमें तनिक भी संतुष्टि देने में सफल न हो पा रहा हो किंतु वो ज़रूरी है क्योंकि इंसान अपने पूरे जीवन काल में खुद के लिये जीता ही नहीं है..उसे सिर्फ समाज और रिवाज़ की ही फ़िक्र है।

हम आलीशान घर बनाते हैं..ऊंची नौकरी पाना चाहते हैं, हमारा पहनावा, हमारी साज-सज्जा या संपूर्ण जीवन में किये गये हमारे हर एक प्रयास, सिर्फ और सिर्फ दूसरों की एक 'वाह' पाने के लिये ही तो हैं। हमारी खुशी और खिन्नता का रिमोट कंट्रोल दूसरों के हाथ में है जहाँ दूसरे ही ताउम्र कभी अपनी तारीफों के बटन से तो कभी अपनी निंदा के बटन से हमें संचालित करते हैं और हम या तो अहंकारी हो जाते हैं अथवा तनावग्रस्त और क्रोधी बन जाते हैं। इस सबमें हम आखिर खुद के लिये कब जी पाते हैं। हम सिर्फ अपने जूते को ऐसा चमकदार रखते हैं कि लोग उसकी चमक और चिकनाहट से हमारी तारीफ में कसीदे गढ़ते रहें फिर वो जूता हमें कितना ही अंदर से काट क्युं न रहा हो पर हमें उसकी कोई परवाह नहीं।

बहरहाल, ये सब में अपने किसी फ्रस्टेशन या ओवर वर्कलोड के तनाव के चलते नहीं लिख रहा हूँ..बल्कि दुनिया के हर एक गंतव्य का ऐसा ही कुछ हश्ल है..पर हम उस भ्रमजनित आभा में कुछ ऐसा खो जाते हैं कि खुद को ही नहीं देख पाते..और सच तो यही है कि जैसे-जैसे हम मशहूर होते जाते हैं हम खूद से उतना ही दूर होते जाते हैं। मैं दुनिया में कहीं भी जाउं पर खुद के साथ रहना चाहता हूँ इतना बावला होने की तमन्ना नहीं रखता कि मैं अपने अहंकार में खुद को ही भुला दूं...लेकिन मेरी इस अदनी सी नौकरी ने मुझे खुद से दूर करने की कोशिश ज़रूर की थी..इसलिये कुछ हद तक खुद को हिदायतें देने के लिये और प्रायश्चित स्वरूप ये पोस्ट लिखी है..आपके लिये इसके मायने ज्यादा हो न हों पर मेरे लिये मेरी यही सृजनात्मकता सबसे बड़ी वेदी है जहाँ मैं अपने जज्बातों का माथा अक्सर टेकता हूँ...ताकि खुद को अपने अंतर में छुपे खुदा के नज़दीक रख सकूं।

Wednesday, March 19, 2014

तेरे होने के मायने.....

(*मेरा लघु उपन्यास "दो ख़तों के बीच सिमटी एक प्रेम कथा" लंबे समय बाद पूर्ण हुआ..इस उपन्यास का पहला ख़त तेरे जाने के मायने तकरीबन दस महीने पहले आपके साथ साझा किया था अब दूसरा ख़त पेश कर रहा हूँ..चुंकि उपन्यास की घटनाएं अवरोही क्रम में प्रस्तुत हैं इसलिये जुदाई का ख़त पहले साझा किया था और अब मिलन का ख़त प्रस्तुत कर रहा हूँ...प्रेम में होने वाले जज़्बातों के बदलाव को ये दोनों ख़त बयाँ करने की कोशिश करते हैं..प्रस्तुत है अापके समक्ष..तेरे होने के मायने-)

कुछ बातें हैं जो आज तुमसे कहने का दिल कर रहा हैं और बताना चाहता हुं कि तुम्हारा होना क्या है इस दिल के लिए, मेरे लिए। वैसें तो कई बड़ी-बड़ी बातें तुम्हारे सामने बना लेता हुं और ये तो तुम भी जानती ही हो जो अक्सर मुझ पर ये जुमला मारते देर नहीं लगाती कि बातें बनाना कोई तुमसे सीखे। पर उन तमाम बातों को करने के बाद भी मैं कहां बयां कर पाता हुं तुम्हें। 

तुम, हां तुम ही हो वो जो हो वजह मेरी परेशानी की, मेरी नादानी की, लापरवाह कोशिशों की, गुस्ताख़ चाहतों की...यकीनन गुस्सा आ रहा होगा न, ये सब सुनकर? लेकिन हर वक्त कोई परेशान हुए बिनासमझदार बनकर, सतर्क, गुस्ताख़ियों के बिना कैसे रह सकता है भला। गर इंसान है तो परेशानी, नादानी, लापरवाहियां और गुस्ताखियां भी तो ज़रुरी है। तो तुम, हां तुम ही हो जो अहसास कराती हो कि मेरे अंदर भी एक इंसान का दिल है। जो अहसास कराती हो कि परेशानियां, नादानियां, गुस्ताख़िया, लापरवाहियां कितनी खूबसूरत होती है और कितनी ज़रुरी होती है जीने के लिए। जो बताती हो कि कितनी अधूरी है ज़िन्दगी इन गुस्ताख़ियों के बगेर।

दोस्ती, क्या है? क्युं हैं? कैसे है? ये वो प्रश्न है जिनके उत्तर मैं देता भी हूं तो  उनमें कतरा भर भी दोस्ती के भाव को नहीं भर पाता। लेकिन तुम्हें सामने रख मैं दोस्ती को समझ भी सकता हूं और समझा भी सकता हूं, लेकिन सिर्फ खुद को। शायद ही ज़िंदगी में मेरा कोई दोस्त होगा जिसके सामने लगातार कई बार मैं अकड़ता रहूं, लड़ता रहूं, ज़िद करता रहूं, उसका दिल दुखाता रहूं, और वो मेरा हाथ थामे रहे...जिसकी आंखों में आंसू हों मेरी वजह से और वो फिर भी मेरे मुस्काने का, उसे मनाने का इंतज़ार करता रहे...और गर फिर भी मैं अपने अहम् के कारण या किसी और वजह से उससे दूर भागूं पर फिर भी वो अपने सारे दर्द भुलाके खुद मान जाए और मुझे अपने रूप में लाने की ज़द्दोज़हद में लग जाए....पर तुम, हां तुम ही हो जो अपनी सारी कोशिशें मुझ पे लगा देती हो, मेरी मुस्कान वापस लाने के लिए...क्या तुमसे बड़ा और बेहतर दोस्त हो सकता है?  नहीं, क्योंकि तुम, तुम ही हो जो इस पैमाने पे ख़री उतरती हो...दोस्ती का मतलब तुमसे अलग कैसे हो सकता है मेरे लिए.......

दोस्ती की ही तरह प्यार को समझने में भी मैं अनजान हूं...लेकिन तुम्हारे होने का मतलब सिर्फ तुम्हारा होना है। मैं कैंसे कह दूं कि तुम्हारे होने का मतलब ख़ुशी का होना है, मस्ती का होना है या चांद, तारे या रोशनी का होना है....नहीं जितने अच्छे से मैं तुम्हें समझता हूं उतने अच्छे से न मैं ख़ुशी को समझता हूं, न मस्ती को, न चांद-तारे या रोशनी को ...फिर जिसे मैं समझता ही नहीं हूं उन्हें मैं कैसे तुमसे जोड़ दूं...तो तुम्हारे होने का मतलब बस तुम्हारा ही होना है। तुम ख़ुशी, मस्ती, चांद-तारे, रोशनी की भरपाई कर सकती हो मेरे लिए, पर ये सब बेचारे तुम्हारी भरपाई कैसे कर सकते हैं मेरी ज़िंदगी में। तुम्हारा मेरे लिए इतना खास होना ही शायद मेरे लिए प्यार होगा...तुमसे अलग मैं प्यार को कैसे समझा दूं और तुमसे अलग प्यार को कैसे मैं समझ लूं क्योंकि मैं तुम्हें जानता हूं प्यार-व्यार को नहीं...

कोई पूछे मुझसे कि तुममें ऐसा क्या है जो मेरे लिए तुम ही तुम्हारी जगह हो कोई और नहीं..भला कैसे मैं उसे समझा दूं कोई और तो कोई और की जगह है तुम्हारी जगह तो तुम ही हो सकती हो। यकीनन तुम रब़ नहीं मैं तुम्हें उस जगह रखुंगा भी नहीं...क्योंकि रब़ तो रब़ की जगह हो सकता है और तुम तुम्हारी...और इंसान भक्ति भले फ़रिश्तों की करते हैं पर प्यार तो इंसानों से ही होता है...और किस इंसान से प्यार करना है ये हमें ढूंढना नहीं पड़ता, कमबख़्त प्यार खुद हमें ढूंढ लेता है..और प्यार ने तुम्हें ही मेरे लिए ढ़ुंढा है तो फिर कैसे मैं जमाने से बता दूं कि क्यूं तुम ही तुम्हारी जगह हो कोई और नहीं।

तुमसे कुछ चाहूं, या सोचु कि तुम मेरे लिए क्या करती हो...ऐसी गुस्ताख़ी की इज़ाजत ये दिल मुझे नहीं देता...न ही मेरे वहीखाते में ये हिसाब होता है कि मैं तुम्हारे लिए क्या-क्या करता हूं...मेरा दिमागी हिरण जहां उछल-कूद करता है वहां सिर्फ इस सोच के वृक्ष लगे हुए हैं कि मैं क्या कर सकता हूं अपनी क्षमताओं के आखिरी हिस्से तक से तुम्हारे लिए...

हो सकता है मेरी ये सारी बातें आज तुम्हें मेरी उस छवि से परे लग रही होंगी जो छवि तुमने अपने दिलो-दिमाग में बसा रखी है और लग रहा होगा कि मेरी बुद्धिजीविता को क्या हो गया जो युं दिवानों की तरह बात कर रहा हूं...पर यकीन मानों दिवानगी का मज़ा बुद्धिमत्ता में कतई नहीं है और इस आवारगी और दीवानगी की खूबसूरती को तुम्हारे कारण ही समझ पाया हूं मैं।

तुम, हां तुम ही हो वो जिसके लिए इतना कुछ कह देने के बाद भी बहुत कुछ कहना बाकि रह जाता है...कहे हुए शब्दों की पीठ पीछे छुपके बैठे शब्दों को शायद तुम न देख पाती हो पर उन छुपे हुए शब्दों का दायरा बहुत बड़ा है...इतना बड़ा कि उनके लिए अक्षरों के लिबास छोटे पड़ जाते है....और वैसे भी अहसासों के लफ़्ज नहीं होते...और तुम तो सभी शब्दों से परे बस तुम ही हो...तुम में ये सारे शब्द समा सकते हैं शब्दों में तुम नहीं......

तुम्हारा-
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Monday, March 10, 2014

परिवर्तन : ज़रुरी या मजबूरी

वक्त के पहियों पे अनायास ही जीवन रथ को हांकते-हांकते हम विविध परिवर्तनों से दो-चार होते हुए आगे बढ़ते रहते हैं..ज़िंदगी जिंदादिली से ज्यादा मशक्कत के थपेड़े झेलती है और हर एक मुश्किल दौर के बाद कुछ रुह को सुकून पहुंचाने वाली ठंडी हवाओं से भी सामना होता है...लेकिन चाहे सकारात्मक हो अथवा नकारात्मक, पर जब-जब बदलाव होता है हम थोड़े से विचलित ज़रूर हो जाते हैं। हर एक बदलाव जहाँ एकरसता को चीरता हुआ जीवन को तनिक उद्वेगपूर्ण बनाता है वहीं पुराने बिन्दु के छूटने से चित्त में भांत-भांत के व्यग्रता एवं आशंका के बादल मंडरा उठते हैं।

बहरहाल, माजरा कुछ युं है कि अपनी ज़िंदगी में ही बदलाव के सुनहरे दौर की दस्तक हुई है...युं तो उपलब्धि कोई बड़ी नहीं पर हाँ एक नज़र ऐसी भी है जो इसे विगत के प्राप्य से बेहतर होने का अहसास कराती है। अब चुंकि परिवर्तन है तो उत्कंठा, उत्साह, उद्वेग के साथ ही साथ भय, आशंका और ऊहोपोह की स्थिति भी बनी हुई है..इसलिये मन का हिरण जहाँ-तहाँ छलांगें मार रहा है। दरअसल अपने पुराने संस्थान को छोड़कर अब एक नये संगठन के साथ अपने जीविकोपार्जन के कृत्य को अंजाम देने का वक्त आ रहा है...दूरदर्शन जैसे सरकारी एवं बड़े मीडिया संस्थान से जुड़ना निश्चित ही गौरव की बात है इसलिये बधाईयों का तांता भी लगा हुआ है लेकिन जैसे-जैसे अपने पुराने संस्थान और साथियों से विदाई लेने का वक्त निकट आ रहा है तो एक घबराहट सी भी हो रही है। तकरीबन तीन वर्षों से जिस संस्थान के साथ अपना रुहानी रिश्ता जोड़ रखा था उसे झट से छोड़ देना निश्चित ही कष्टकर है...एक सहज आसक्ति अपने मौजूदा कार्यस्थल व वहाँ के लोगों से हो गई थी। पद, पहचान, और रुतबा कायम हो चुका था लेकिन ये सब छोड़ अब पुुनः शुरुआत शून्य से करना होगी...और जब तक अपने अग्रिम संस्थान से मित्रवत् हो पाउंगा तो हो सकता है इसे छोड़ फिर किसी नयी शुरुआत में निकल जाना हो..इस बदलाव, इन रास्तों या इस संपूर्ण सफ़र के ज़रिये जाना कहाँ है ये समझ नहीं आता।

लगातार किसी एक जगह पे बने रहने के बाद, मन चाहता है कि ज़िंदगी में कुछ नया और बेहतर हो..पर वो चीज़ जिसे हम अब तक बेहतर मान रहे थे उसकी उपलब्धि होती है तो लगता है क्या जीवन को बस इसकी ही तलाश थी? असंतुष्टि और आशंका का आलम तो जस का तस विद्यमान रहता है। लोगों की बधाईयां लेते हुए हम धन्यवाद ज्ञापित किये जाते हैं पर ये समझ नहीं आता कि जिस ख़ुशी का इज़हार जो हम युं लफ्ज़ों में कर रहे हैं उसका कितना प्रतिशत हमारे ज़हन की वास्तविक सच्चाई है। औपचारिक बधाईयों के साथ उन पर व्यक्त की गई कृतज्ञता भी महज़ औपचारिक ही होती है...इस सबमें सच्ची प्रसन्नता कहाँ है ये ढूंढ पाना ख़ासा मुश्किल है।

हम रिश्ते चाहते हैं, सम्पत्ति, ऐश्वर्य और प्रतिष्ठा चाहते हैं पर जीवन के हर एक पड़ाव पर जब-जब ये तमाम चीज़ें हमें मिलती जाती है आकांक्षाऐं और वृद्धिंगत होती जाती हैं...और जिसे पाने के लिये हम अब तक बेचैन थे उसकी उपलब्धि के बाद जब उससे भी कोई उत्कृष्ट चीज़ हासिल होती है तो हम बड़ी ही आसानी से पुराने प्राप्य को ठुकरा देते हैं। पुरानी समस्त उपलब्धियां अब राह का रोड़ा लगने लगती है...सच ही है महत्वकांक्षाएं बड़ी ही स्वार्थी होती हैं...इनकी तासीर बस बढ़ते जाना है और इस बढ़ने के क्रम में यदि अपने अजीज़ रिश्तों का भी क़त्ल करना पड़े तो इंसान बड़ी आसानी से कर देता है।

किंतु इस संपूर्ण परिवर्तन के चक्र में समझ नहीं आता कि परिवर्तन ज़रूरी है या मजबूरी..न हमें मौजूदा वक्त की एकरसता रास आती है और न ही अनचाहा बदलाव। भय, आशंका, उकताहट, घबराहट और असंतुष्टि का माहौल सदैव व्याप्त रहता है और जब इतनी सारी नकारात्मक भावनायें व्याप्त हों तो समझ नहीं आता कि इस सबमें सुख कहाँ मिलेगा..पर मजे की बात ये है कि चाहे इंसान बदलाव की आकांक्षा करें या मौजूदा संयोगों को बरकरार रखना चाहे..इस सबमें एकमात्र खुश होने की, सुखी होने की ख्वाहिश ही व्याप्त है पर अफसोस, हमारे संपूर्ण उपक्रम बस बेचैनियों में ही इज़ाफा करते हैं। परिवर्तनों के साथ एक दिन ज़िंदगी ख़त्म हो जाती है पर तलाश बरकरार ही रहती है.................