Monday, April 15, 2019

मेरी प्रथम पच्चीसी : पंद्रहवीं किस्त

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(*जीवन की पहली पच्चीसी बयां करने के क्रम में आने वाली 31 जुलाई को ज़िंदगी के 31 बसंत पूरे कर लूंगा। वर्ष 2013 में 31 जुलाई को ही स्वांतसुखाय शुरु की गई जीवन की इस श्रंख्ला को करीब छह वर्ष का वक्त गुज़र गया...पर पच्चीसी का ये सफ़र अब भी जारी है। शुरुआत में सोचा नहीं था कि इतना वक्त लग जायेगा और इन बीते वर्षों में हुए कई तरह के अच्छे-बुरे बदलावों के साथ ज़ेहनी ऊहापोह ने इसे इतने लंबे वक्त तक खींच दिया...कुछ मेरा ही आलस, तो कुछ व्यस्तताओं से श्रृंख्ला लंबे समय अवरुद्ध रही। खैर, आगे बढ़ते हैं उम्मीद है पच्चीसी जल्द अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचेगी)

गतांक से आगे....

मास्टर डिग्री ख़त्म होने के बाद अब दिलोदिमाग की निगाहें एक अदद नौकरी की तलाश कर रही थी...साथ पढ़ाई करने वाले दोस्त-यारों में से कई आजीविका से लग गये थे और ज़िंदगी के अगले पड़ाव में प्रविष्ट हो गये थे तो कई दोस्त मेरी ही तरह बीच भंवर में फंसे थे और बस तब यही दोस्त सहानुभूति और गम का सहारा हुआ करते थे। एक-दूसरे से मिल, बात कर हम आपस में एक दूसरे का संबल बनने की निरर्थक कोशिश करते थे। ये ऐसा दौर होता है जब दीन न होने के बावजूद हम स्वयं को सबसे ज्यादा दीन-हीन महसूस करते हैं। मसलन, एक चाय के लिये पैसे देने पर भी ऐसा महसूस होता था कि हम मानो बाप के पैसे में ऐश कर रहे हों, जो कि एक नैतिक, चारित्रवंत पुत्र को निश्चित ही आत्मग्लानि से भरने के लिये काफी होता है। घर-परिवार के लोग उम्मीद संजोये ये सोचा करते हैं कि बेटा उज्जवल भविष्य की नई इबारत गढ़ रहा है लेकिन उनसे दूर कुछ खुद की जरुरतें और कुछ विलासिता में होने वाले खर्चे ज़ेहन को तोड़े डाल रहे थे। बेसब्री का दौर भी होता है ये, जब हम तुरत-फुरत में ही किसी बड़े पद, मोटी तनख्वाह और सामाजिक प्रतिष्ठा को झट से पाने का ख्वाब पाल लेते हैं लेकिन ये तमाम चीज़ें मिलने में वक़्त लगता है, ये वक़्त गुजरने के बाद ही पता लगता है।

बहरहाल, कुछ छुट-मुट कोशिशों के बाद भी नौकरी न लगी तो अचानक आगे की पढ़ाई करने का प्रस्ताव हाथ लगा.. जब कुछ करने को न था तो सोचा पढ़ ही लिया जाये। और ये बंदा अपने एक अदद दोस्त को साथ लिये पहुंच गया मध्यप्रदेश की व्यवसायिक राजधानी इंदौर, जहाँ देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय से जनसंचार में एम.फिल करने की ठानी। यहाँ एक औपचारिक इंट्रेंस टेस्ट दिया और हो गया एडमिशन। ये फैसला बाइ च्वाइस नहीं, बल्कि बाइ चांस लेना पड़ा लेकिन मैं अपने संगी साथियों में यही बताता था कि ये मेरी पसंद का फैसला है और हेकड़ी बघारते हुए कहता कि नौकरी करने के लिये तो ज़िंदगी पड़ी है पर पढ़ाई करने का वक़्त दोबारा लौटकर नहीं आ सकता। ये बात प्रथम दृष्टया भली जान पड़ती है लेकिन मैं इसे सिर्फ खुद को विशेष बताने के लिये प्रयोग करता क्युंकि असल में तो मैं एक उच्छिष्ट भोगी था जिसने नौकरी न मिल सकने पर पढ़ने का मजबूरी वश मन बनाया था।

इंदौर में जिस वर्ष (2009) एमफिल शुरु की उस वर्ष समूचे मध्यप्रदेश के विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों की हड़ताल का दौर था लिहाजा प्रथम सत्र के शुरुआती तीन महीने कोई अकादमिक डेवलमेंट नहीं हुआ। इन तीन महीनों में न तो अगले सफर पर ही मैंने कुछ कदम बढ़ाये थे और न ही पिछला पड़ाव ही ज़ेहन से छूटने का नाम ले रहा था तो बड़ी त्रिशंकु जैसी हालत थी। ऐसे में जवानी के जुनून, महत्वाकांक्षाओं का सैलाब और फैसलों में नियमित तौर पर वर्तने वाले कन्फ्युसिंग रवैये के चलते दिल बड़ा बेचैन रहा करता। आज जब उस उम्र के कुछ युवाओं से मिलता हूूूँ तो उन्हें भी ऐसे ही परेशान होते देखता हूँ। अपने अनुभव से उन्हें कुछ समझाना भी चाहता हूँ लेकिन ये जानता हूँ कि किसी के समझाने से इस दौर की ऊहापोह दूर नहीं होती, बल्कि भविष्य में गुजरते वक्त, होती गलतियों और बढ़ते अनुभवों से ही ये सब समझ में आता है।

इंदौर में क्लासेस जब शुरु हुईं तो उन्हें रस्मी तौर पर अटेंड करता लेकिन किसी से दिली जुड़ान न हो पा रहा था क्युंकि पुराने दरख़्तों से दिल अब भी चिपटा हुआ था। इस वक़्त में कुछ सुकून था तो वो अपने पुराने कुछ दोस्तों से आये दिन फोन पर होने वाली अतीत की जुगाली ही थी और इसी खालीपन के दौर में पल्लवित हो रही प्रेम की कोंपल भी एक और खुशी का जरिया रही। वहीं अपने फ्लैट पर साथी बने तीन अन्य रूममेट्स के साथ होने वाली तफरी और विचारों का विरेचन नये रिश्ते गढ़ रहा था इन तीन साथियों में से दो मेरे जयपुर में अध्ययन के दौरान के सीनियर थे जिनसे पहचान तो थी पर उस वक्त ये रिश्ता और गहरा बना।

वक़्त अपनी रफ़्तार से गुजर रहा था एमफिल का प्रथम सत्र भी गुजरा। चुंकि दूसरे सत्र में सिर्फ डिजर्टेशन बनाने की जिम्मेदारी थी तो नियमित कॉलेज जाने की कोई बाध्यता नहीं थी इसलिये अब वापस अपने ज़ेहनी रिश्ते वाले शहर भोपाल लौट आया था और यदा-कदा ही इंदौर जाना होता। इस खाली वक़्त में कुछ किताबें पढ़ने, लिखने और अपने चंद दोस्तों के बीच थोड़ा-बहुत ज्ञान पेलने के अलावा कोई खास काम नहीं था। इस वक़्त में एक बार फिर नौकरी के लिये हाथ-पैर मारे पर 6-7 हजार मासिक वेतन वाली नौकरियों तक में कहीं सिलेक्शन न हो सका। इस हताशा के वक़्त में हम अपने आसपास कुछ फ़जूल के ख़याली किले बना लेते हैं तब न हम किसी से मिलना चाहते हैं, न किसी जगह जाना चाहते हैं बस अपने ही सेफ ज़ोन में रहते हुुए खुद की घुटन को महसूस करते हैं क्युंकि महफिल़ों में अक्सर पूछा जाने वाला सवाल- "और क्या चल रहा है?" इसका हमारे पास कोई अदद जवाब नहीं होता। और हम तन्हाईंयों से ही अपना वास्ता जोड़े रखने में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। इस तरह अमूमन 2010 का पूरा वर्ष, यूं ही 'बिना कुछ अच्छा या बिना कुछ ज्यादा बुरा' हुए बगैर ही गुजरा।

कोई खास काम-धंधा न होने से मिला खालीपन प्रेम के पल्लवन का सबसे मुफीद वक़्त होता है और इस वक्त जो भी कोई अपोजिट जेंडर का शख़्स आपके परिचय में सबसे करीब होता है उससे आप दिल लगा बैठते हैं। कई मामलों में व्यस्तताएं प्रेम विच्छेदन की वजह बनती हैं तो खालीपन, मुफलिसी और बेचारगी उसी प्रेम के खाद-पानी बन जाते हैं। इस ख़ाकसार के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था... लौटूंगा उस ज़ेहनी दास्तां को लेकर, बिना किसी व्यक्ति-विशेष को निशाना बनाये, सिर्फ अपने जज़्बात लिये। इंतजार कीजिये अगली किस्त का....

3 comments:

  1. बढ़िया.
    ब्लॉग की कलर थीम ब्लैक एंड व्हाइट रखें - जैसा कि किसी आम किताब का होता है जिससे पढ़ने में आसानी होती है. वर्तमान कलर थीम पढ़ने में थकान पैदा कर रहा है. मैंने इस पाठ को तो वर्ड में कॉपी-पेस्ट कर पढ़ा :(

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  2. जीवन के अनुभूत समय को बड़ी साफगोई से लिखा है । सुन्दर लेखन शैली ।

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  3. पच्चीसवी बढती भी रहे तो कोई फर्क नहीं ... हाँ आपने जीवन के दिलचस्प पहलुओं को जीने का जो मजा है वो कोई दूसरा विकल्प कहाँ ...
    आपके अगले अंक जहाँ प्रेम की हवाएं छाने वाली हैं उसका इंतज़ार रहेगा ...

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