(मुन्शी प्रेमचंद की 142वी जयंती पर विशेष, पीपल्स समाचार पत्र के संपादकीय पर भी प्रकाशित)
“सिनेमा की शक्ति को सब पहचानते हैं, परन्तु साहित्यिक अहंकार और संकुचित सोच के कारण, इस नये माध्यम को आत्मसात करने से घबराते हैं - वे ये भूल जाते हैं कि सम्यक्-सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए शक्तिशाली माध्यमों की जरूरत होती है”। - कमलेश्वर
आज से तकरीबन दो दशक पहले प्रसिद्ध
साहित्येकार और पटकथा लेखक कमलेश्वर की ये युक्ति, वर्तमान दौर में सिनेमा और
साहित्य के रिश्ते को भी बतलाती है और दोनों माध्यमों के बीच उपस्थित अंतर्द्वंद
का भी चित्रण करती है। सिनेमा और साहित्य दोनों ही शिक्षा, जागरुकता और मनोरंजन के
माध्यम है बस फर्क ये है कि सिनेमा संप्रेषण का एक नव्योत्तर माध्यम है और साहित्य
एक पारंपरिक माध्यम। हर नवीन माध्यम को, पुरातन माध्यम के समर्थकों से आलोचना
झेलनी ही पड़ती हैं तो वहीं आधुनिक माध्यम, प्राचीन माध्यम को हासिये पर धकेलता
हुआ आगे बढ़ता है। लेकिन इन आलोचनाओं और प्रतिस्पर्धाओं के बावजूद दोनों माध्यम
अपनी-अपनी उपयोगिता को बरकरार रखते हुए तथा एकदूसरे पर अपना-अपना प्रभाव छोड़ते
हुए आगे बढ़ते हैं।
सिनेमा ने भी अपनी विकास यात्रा के लिये
साहित्य का अवलंबन लिया और उसे अपने में समाहित अंतर्वस्तु, साहित्य की चौखट पे ही
मिली। जब साहित्य पर सिनेमा की ये घुसपैठ शुरु हुई तो साहित्यकार भला कहाँ चुप
रहने वाले थे और आलोचना के इस दौर में खुद मुंशी प्रेमचंद ने ही सिनेमा पर
निराशवादी प्रतिक्रिया व्यक्त की- “साहित्य
ऊंचे भाव, पवित्र भाव अथवा सुंदरम् को सामने लाता
है। पारसी ड्रामे, होली, कजरी, बारहमासी
चित्रपट आदि साहित्य नहीं हैं क्योंकि इन्हें सुरूचि
से कोई प्रयोजन नहीं है। सिनेमा में वही तमाशे खूब चलते हैं जिनमें निम्न
भावनाओं की विशेष तृप्ति हो। साहित्य दूध होने का दावेदार है, जबकि सिनेमा
ताड़ी या शराब की भूख को शांत करता है। साहित्य जनरूचि का पथ-प्रदर्शक
होता है, उसका अनुगामी नहीं, सिनेमा जनरूचि के
पीछे चलता है।”।
शुरुआती दौर में सिनेमा की आलोचना करने
वाला यही उपन्यास सम्राट, सिनेमा का सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यकार बना। हिन्दी साहित्य
में सबसे ज्यादा फ़िल्में प्रेमचंद की रचनाओं पर ही बनी और ये स्वाभाविक भी है
क्योंकि प्रेमचंद-सा ख्यातिप्राप्त और प्रासांगिक रचनाकार दूसरा कोई हिन्दी
साहित्य में हुआ भी नहीं है। जब बंबई में बोलती फ़िल्मों का दौर शुरु हुआ तो
प्रेमचंद ने खुद बंबई का रुख किया, पर इस माया नगरी और व्यवसायिक फिल्म इंडस्ट्री
में वे असफल ही हुए। मोहन
भावनानी की कंपनी अजंता सिनेटोन के प्रस्ताव पर 1934 में आठ हजार रुपए सालाना के अच्छे-खासे
अनुबंध पर वे मुंबई पहुंचे। प्रेमचंद की कहानी पर मोहन भावनानी ने 1934 में ‘मजदूर ‘ बनाई। प्रेमचंद का क्रांतिकारी तेवर
उसमें इतना प्रभावी था कि फिल्म सेंसर के हत्थे चढ़ गई। मुंबई प्रांत; पंजाब/लाहौर; फिर दिल्ली- फिल्म पर प्रतिबंध लगते
गए। उसमें ‘श्रमिक
अशांति’
का खतरा देखा गया। फिल्म की विधा तब नई
थी,
समाज में फिल्म का असर तब निरक्षर
समुदाय तक भी पुरजोर पहुंचता था। अंतत: ‘मजदूर ‘ सेंसर
से पास हुई, पर
चली नहीं। हां, उसके
असर के बारे में कहते हैं कि प्रेमचंद ने अपने सरस्वती प्रेस के मजदूरों को ‘जागृत’ कर दिया था। वहां के श्रमिकों में असंतोष भड़क
गया। साहित्य की तरह सिनेमा में भी प्रेमचंद का आगाज़ क्रांतिकारी ढंग से हुआ। इस
फिल्म में न सिर्फ मुंशीजी ने संवाद लिखे, बल्कि एक संक्षिप्त किरदार भी निभाया।
सिल्वर स्क्रीन पर यह संभवतः प्रेमचंद की इकलौती प्रस्तुति थी।
इस फिल्म की असफलता के बाद
प्रेमचंद का संचार की इस विधा से मोहभंग हो गया। उन्होंने कहा- “मैं
जिन इरादों से आया था, उनमें
से एक भी पूरा होता नजर नहीं आता। ये प्रोड्यूसर जिस ढंग की कहानियां बनाते आए हैं, उसकी लीक से जौ भर भी नहीं हट सकते। ‘वल्गैरिटी’ को ये ‘एंटरटेनमेंट बैल्यू’ कहते हैं।अभी वह ज़माना बहुत दूर है, जब सिनेमा और साहित्य का
एक रूप होगा। लोक-रुचि जब इतनी परिष्कृत हो जायगी कि वह नीचे ले जाने वाली
चीज़ों से घृणा करेगी, तभी सिनेमा में साहित्य की सुरुचि
दिखाई पड़ सकती है”। 1934 में ही प्रेमचंद के उपन्यास सेवासदन (जो पहले उर्दू में 'बाजारे-हुस्न' नाम से लिखा गया था) पर नानूभाई वकील ने फिल्म बनाई। यह फिल्म बिना
प्रेमचंद की मर्जी के उनकी रचना से खिलवाड़ करके प्रस्तुत हुई थी। प्रेमचंद उससे
उखड़ गए थे। हिंदी साहित्य में लेखक और फिल्मकार की तकरार की कहानी वहीं से प्रारंभ
हुई मानी जा सकती है। हालांकि कुछ साल बाद इसी उपन्यास पर तमिल में के. सुब्रमण्यम
ने जब फिल्म बनाई, तो प्रेमचंद
उससे शायद संतुष्ट हुए हों, क्योंकि यह एक सफल फिल्म थी। अगले वर्ष उनके उपन्यास नवजीवन पर फिल्म बनी, यह भी एक सार्थक फिल्म
मानी गई। सिनेमा में उपन्यास सम्राट के सक्रिय योगदान की कहानी बस यही तक थी।
1936 में उनका निधन हो गया। लेकिन उनके साहित्य का दामन सिनेमा ने कभी नहीं छोड़ा।
निधन के बाद उनकी कहानी पर स्वामी फिल्म बनी जो कि औरत
की फितरत और तिरिया-चरित्र नामक कहानियों पर आधारित थी। इसके
अलावा उनकी प्रसिद्ध कहानी दो बैलों की कथा पर भी 1959 में कृष्ण
चोपड़ा के निर्देशन में हीरा-मोती नामक फिल्म बनी। जिसकी काफी सराहना हुई।
साठ के दशक में सिनेमा को प्रेमचंद की रचनाओं
पे कुछ नायाब कृतियाँ देखने को मिली। उनके लोकप्रिय उपन्यास गोदान और गबन पर इसी
नाम से 1963 और 1966 में फिल्में प्रदर्शित हुई। गोदान का निर्देशन त्रिलोक जेटली
ने किया था। इस फिल्म में राजकुमार और महमूद जैसे निष्णांत कलाकारों ने अभिनय किया।
गोदान की लोकप्रियता का आलम यह रहा कि दूरदर्शन ने इस उपन्यास पर 26 एपिसोड के एक
धारावाहिक का भी निर्माण किया जिसका निर्देशन गुलजार द्वारा किया गया। गोदान के
अलावा गबन भी हिन्दी सिनेमा की एक चर्चित फिल्म है जिसका निर्देशन ऋषिकेष मुखर्जी
द्वारा किया गया तथा इसमें सुनील दत्त, साधना और मुमताज जैसे कलाकारों ने मुख्य
भुमिका अदा की।
हिन्दी सिनेमा के इतर क्षेत्रीय सिनेमा में
भी प्रेमचंद एक चर्चित साहित्यिक हस्ती रहे। प्रायः विभिन्न साहित्यिक कृतियों पर
फिल्म निर्माण के लिये पहचाने जाने वाले भारतीय सिनेमा के वरिष्ठतम, सुप्रसिद्ध
फिल्मकार सत्यजीत रे ने, प्रेमचंद की कहानी ‘सद्गति’ पर इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया। जिसे राष्ट्रीय अवार्ड से
नवाजा गया। बंगाली सिनेमा के अलावा 1977 में मृणाल
सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर
आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म
का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।
सिनेमा के अध्यापक की तरह जाने वाले सत्यजीत
रे ने हिन्दी में सिर्फ एक फिल्म का निर्माण किया- ‘शतरंज
के खिलाड़ी’। ये भी
प्रेमचंद की कहानी पर ही आधारित थी। कहा जाता है प्रेमचंद के अंतरंग को जितने
अच्छे से सत्यजीत रॉय ने समझा है उतना कोई और फिल्मकार नहीं समझ पाया। प्रेमचंद की
कथाओं के भावों और संवेदनाओं को पूर्ण न्याय के साथ रॉय ने अपनी फिल्मों में
प्रस्तुत किया है।
इन तमाम फिल्मों और कई टेली धारावाहिकों के
अलावा, आज भी प्रेमचंद के साहित्य का अकूट भंडार फिल्मकारों को कई कथानक उपलब्ध
करा सकता है। ये साहित्य आज भी सिनेमा से अछूता है। इस साहित्य पर सामाजिक
सोद्देश्यता से भरपूर सार्थक सिनेमा का निर्माण किया जा सकता है किंतु आज के इस
सायबर युग में किसे फुरसत है जो प्रेमचंद के साहित्य को टटोले। यही वजह है कि
हमारा सिनेमा, विदेशी और दक्षिण भारतीय फिल्मों के मोहपाश में उलझा हुआ है। उन
मसाला फिल्मों का ही हिन्दी कलेवर तैयार कर हमारे फिल्मकार महान् निर्देशक होने का
राग आलापे हुए हैं और अच्छी कथाएं न मिलने का रोना रो रहे हैं। सिनेमा की गरिमा को
आसमानी ऊंचाई देने के लिये हमें सार्थक साहित्य की शरण में जाना ही होगा और इस
रास्ते में हमारी मुलाकात प्रेमचंद से न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।
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