Thursday, December 13, 2012

मुर्दा इंसानों की भीड़ में गुमनाम ज़िंदगी !!!

अखबार। इन दिनों दुनिया की सबसे खतरनाक वस्तु जान पड़ता है...जो दिल में एक चुभन सी पैदा करता है और घोर निराशावाद की ओर धकेलता नज़र आता है। ये मैं तब कह रहा हूं जबकि मैं विधिवत् जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक उपाधि ग्रहण कर..लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में किसी न किसी तरह अपनी सहभागिता निभा रहा हूं। लेकिन आये दिन अखबार के पन्नों पर प्रकाशित होने वाली ख़बरें दिल बहुत छोटा कर देती हैं, साथ ही मुझे खुद से ये प्रश्न करने पर मजबूर कर देती हैं कि मैं किस भीड़ का हिस्सा हूं और किस दुनिया में सांसे ले रहा हूं?

मैं यहां फिलहाल भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कालाबाज़ारी, महंगाई, गरीबी जैसे देशव्यापी मुद्दों की बात नहीं कर रहा हूं...बल्कि मेरा इशारा तो उन टूटती संवेदनाओं, बिखरते रिश्ते और मुर्दा भावनाओं की तरफ है जिन संवेदनाओं, भावनाओं और रिश्ते-नातों के कारण हम इंसान कहलाते हैं। मेरा इशारा अखबार की उन ख़बरों की तरफ है जो अक्सर फ्रंट पेज पर नहीं नज़र आती..पर जो ख़बरें तीसरे, पांचवे, सातवें या पंद्रहवे पेज पर ख़ामोशी से सिसक रही होती है। हर दिन उत्साह से अखबार को उठाने वाले हाथ, उदास मन से उसे फेंक देते हैं और माथे पर सलवटें लिए हुए लवों से यही लफ़्ज निकलते हैं-'क्या हो गया है इंसान को'।

दिल को इंडियन क्रिकेट टीम की जीत की ख़बर से मिली खुशी या शेयर मार्केट की छलांग से मिली राहत बड़ी तुच्छ नज़र आती है...जब नज़रें उन ख़बरों पर जाती है जहां किसी नवजात शिशु के कूड़ेदान में पड़े होने की, पिता द्वारा अपनी बेटी के बलात्कार की, भाई-भाई के खूनी युद्ध की, अपनी प्रेमिका पर तेजाब डाले जाने की या अध्यापक द्वारा छात्र का सिर दीवार से दे मारने की बात होती है। दिल में ख्याल आता है कि जिस संवेदना, ज्ञान और विवेक के कारण इंसान को इस प्रकृति के अन्य प्राणियों से अलग और उत्कृष्ट माना जाता है वे सब कहां हैं? अपने दिमाग और शिक्षा के ज़रिए इंसान ने कहीं न कहीं अपनी आकांक्षा, इच्छा, भोगलिप्सा, स्वार्थपरकता और लोलुपता को ही बढ़ाया है। यदि इंसान के पास ज्ञान या संवेदना है भी..तो वह भी रोबोटनुमा ज्ञान-संवेदना है। इंसान को इंसान बनाने वाली ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान कहीं भी नज़र नहीं आता। मुर्दा शरीरों में दिल धड़क तो रहा है पर वे जिंदा नहीं है।

सभ्यता और संस्कृति की बड़ी-बड़ी बातें महज ढकोसला लगती है...इंसान की हवस तो आज भी पशुमय है। यदा-कदा निखरकर आने वाली इंसान की दुर्दांत प्रवृत्तियां ये बताने के लिए काफी है कि आदमी..आदमी नहीं, वह तो मूलरूप से पशु है। शिक्षा-सभ्यता के ज़रिए वह अपनी पशुता पर महज़ मुखौटे लगाने का प्रयास करता है। वासना और तृष्णा का ऐसा कॉकटेल इंसान के हृदय में पड़ा है जहां अपने आनंद और संतुष्टि के लिए वह किसी भी दूसरे इंसान के कलेजे पर से गुज़र सकता है। इस सबमें इंसान कहां है और कहां है जिंदगी?

यदि संवेदना, प्रेम और रिश्तों की गर्माहट हो तो संसाधनों के अभाव में भी बखूब जिंदगी बसर की जा सकती है..पर जिस दुनिया में हर कोई अपनी पीठ के पीछे छुरा लेके चलता हो वहां कैसे जीवन गुजरेगा? जहां अपने रिश्ते-नातों से ही डर हो वह इंसान कहां आसरा तलाशेगा? और जब इतना भयावह माहौल हमने अपने ईर्द-गिर्द बना रखा है तो हमें क्या हक बनता है कि हम नयी पीढ़ी को इस दुनिया में लाए। जब इंसानों की इस भीड़ में अभी एक खूबसूरत जिंदगी का निर्माण हम नहीं कर पा रहे हैं तो आने वाली ज़िंदगी आखिर किन हालातों के साथ जिंदा रहेगी? 

ये सारे वे सवाल है जो दिल में उमड़-घुमड़ कर मुझे खुलकर मुस्कुराने से रोक देते हैं।  इन हालातों को गौढ़ कर हम अपनी ही दुनिया में स्वछंद बन मस्त रह सकते हैं लेकिन समष्टि का एक अहम् हिस्सा होने के चलते इन हालातों को गौढ़ कर देना इंसानियत तो नहीं हो सकती। व्यष्टि(व्यक्ति) का अस्तित्व समष्टि(समाज) से हैं और अपनी समष्टि के प्रति आंखें बंद कर  कृतघ्न हो जाने की इज़ाजत ये दिल नहीं देता। दिल बहलाने के लिए अक्सर सामाजिक यथार्थ से लबरेज़ समाचारों से दूर हो..सास-बहू के उबाऊ सीरियल, फूहड़ कॉमेडी शो, स्पोर्टस चैनल और अजीबोगरीब भूतहा-सस्पेंस कहानियों को देखने-पढ़ने का प्रयास करता हूं...पर मेरी ज्ञानात्मक संवेदना मुझे वापस सामाजिक यथार्थ के करीब ले जाती है।

11 comments:

  1. जीवन को भी मोल मिलेगा

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  2. समाज के हित में किया गया एक छोटा सा कार्य भी हमें इस भीड़ से अलग कर सकता है, कोई जरुरी नहीं कि नाम हो बस अपनी आत्मा संतुष्ट हो यही काफी है... अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर...सार्थक विचार

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  3. बहुत उम्दा सार्थक विचार ,,,, बधाई।

    अंकुर जी,,,आप फालोवर बने तो हार्दिक खुशी होगी,,,,

    recent post हमको रखवालो ने लूटा

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  4. सार्थक और सारगर्भित विवेचना |

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  5. सारे वे सवाल है जो दिल में उमड़-घुमड़ कर मुझे खुलकर मुस्कुराने से रोक देते हैं। इन हालातों को गौढ़ कर हम अपनी ही दुनिया में स्वछंद बन मस्त रह सकते हैं लेकिन समष्टि का एक अहम् हिस्सा होने के चलते इन हालातों को गौढ़ कर देना इंसानियत तो नहीं हो सकती।

    सार्थक विचार

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  6. ankur ji ..vastav mein bahut kuch hai jo humko vichlit kar deta hai..aise sawaal kain baar khade hotey hai aur hum 'shuny' se ho jate hain..

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  7. कुछ ऐसी ही भयावाह हालत, अजीब सी वितृष्णा होती है.... ! बहुत दुख होता है....

    सार्थक रचना !

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  8. awesome post ..... plz keep blogging ..kudos to u ( Ankur ji ) :)

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  9. ये एक ऐसी हक़ीक़त है जिससे रोज़ सुबह-सुबह रू-ब-रू होने की आदत पड़ गई है।

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  10. उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  11. सच में चिंता का विषय है ..कब हम पशु से इन्सान बनेगे

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