Thursday, May 2, 2013

हिन्दी सिनेमा के सौ बरस

(ये आलेख दैनिक समाचार पत्र 'पीपुल्स समाचार' के संपादकीय में कल अर्थात् 3 मई 2013 को प्रकाशित होने जा रहा है...अपने ब्लॉगर मित्रों से पहले ही इसे साझा कर रहा हूँ)

 कुछ तिथियां अनायास ही ऐसी क्रांतियों की गवाह बन जाती हैं जिन्हें सालों बाद बड़े उत्सवों के साथ याद किया जाता है। इन तिथियों पर किये गये कार्यों को इतिहास में सम्मान के साथ देखा जाता है लेकिन इन कार्यों को जन्म देने वाले लोगों को खुद पता नहीं होता कि वे भविष्य में एक क्रांति के जनक के तौर पर याद किये जायेंगे। 3 मई 1913, की तिथि एक ऐसी ही अभूतपूर्व क्रांति की गवाह है जिस दिन भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के ने एक ऐसे संचार माध्यम का भारतीय सरजमीं पर सूत्रपात किया था जो आगे चलकर समाज का प्रमुख मानसिक भोजन बन गया। पहली बार लोगों ने जिंदगियों को परदे पर अठखेलियां करते देखा और आज हालात यह है कि सिनेमा को निकालकर समाज की कल्पना करना ही मुश्किल हो गया है।

    सौ सालों का लंबा फासला और लाखों फिल्मों की बहुमूल्य विरासत की नींव पर खड़ा आज हमारे देश का सिनेमा पूरे विश्व में हर साल सर्वाधिक फिल्में बनाने के लिये जाना जाता है। अरबों के कारोबार का नियंता आज सिर्फ मनोरंजन का ही नहीं, व्यवसाय का भी प्रमुख माध्यम बन गया है। लेकिन आज के इस विकास के  परे एक लंबी संघर्ष की दास्तान इस रुपहले परदे के पीछे हैं जहां कई बार आलोचनाओं के स्वर मुखर हुए तो कई बार इसने मील के पत्थर समाज में स्थापित किये।
     वैसे तो कई महत्वपूर्ण वस्तुओं की तरह सिनेमा का जन्म भी विदेशी सरजमी पर हुआ। इसके तहत सबसे क्रांतिकारी प्रयोग ल्यूमियर बंधुओं के द्वारा 1890 में हुआ। तब इन्होंने सात लघु फिल्मों का निर्माण करकर उनका प्रदर्शन किया। भारतीय सिनेमा के नजरिए से सबसे महत्वपूर्ण घटना घटी 7 जुलाई 1896 को जब मुम्बई के वाटसन होटल में ल्यूमियर बंधुओं की उन फिल्मों को प्रदर्शित किया गया। भारत में पहली बार फिल्म विद्या का जादू परदे पर देखने को मिला।
इस घटना के बाद कई लोगों ने उन फिल्मों से प्रभावित होकर लघु फिल्मों का निर्माण किया। लेकिन इस कडी में सबसे बडा कार्य किया धुंडी राज गोविंद फाल्के यानि दादा साहेब फाल्के ने। जो लंदन से ‘‘द लाइफ क्राइस्ट’’ देखकर इस कदर प्रभावित हुए कि वहां से उन्होंने फिल्म निर्माण का सारा सामान खरीद लिया और फिल्म बनाने का मन बनाया। उनके मन का ये विचार 3 मई 1913 को साकार हुआ। जब हिन्दी सिनेमा की पहली फिल्म ‘‘राजा हरिशचन्द्र’’ रिलीज हुई। पर्दे पर जीवंत चित्रों को देखना लोगों को इस तरह रास आया कि फिल्म निर्माण की श्रृखंला चल पड़ी। लेकिन इस दौर का सिनेमा सिर्फ दृश्यात्मक था और मौन होकर ही समाज का मनोरंजन करता था।
इस दिशा में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ 14 मार्च 1931 को जब इन मूक दृश्यों को जुवां मिली, और भारत की पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा प्रदर्शित हुई। तीस का दशक हिंदी सिनेमा के लिये कई मायनों में खास था जहां इस दशक में मूक दृश्यों को आवाज नसीब हुई तो दूसरी ओर इसी दशक में देश की पहली रंगीन फ़िल्म किसान कन्या का प्रदर्शन हुआ। सिनेमा की मनोरंजन के साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारी वाली प्रकृति का दर्शन भी हमें इसी दौर में देखने को मिला। जब तत्कालीन सामाजिक परिदृश्य को लेकर वी.शांताराम, महबूब खान और ज्ञान मुखर्जी जैसे निर्देशकों नें अछूत कन्या, औरत और किस्मत जैसी फिल्मों का निर्माण किया। किस्मत फ़िल्म का गीत दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिन्दुस्तान हमारा है तो तत्कालीन भारतीय समाज में आजादी का जयघोष बन गया।

          आजादी के बाद हिनदुस्तानी सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय आयाम दिलाने में पचास के दशक की महत्वपूर्ण भूमिका रही। जहां बंगाली सिनेमा में सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली, अपराजितो जैसी फ़िल्मों ने देश को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ख्याति दिलाई, जिससे सत्यजीत रे फ़िल्म विधा के अध्यापक की तरह देखे जाने लगे। वहीं हिन्दी सिनेमा में राजकपूर, विमलरॉय, गुरुदत्त जैसे फ़िल्मकारों ने नवीन मानवीय दर्शनों का सिनेमा में आविर्भाव करके सिनेमा को महज मनोरंजन की सतही श्रेणी से उठाकर बुद्धिमत्ता की परिपक्व कक्षा में स्थापित कर दिया। विमल रॉय की दो बीघा जमीन हिन्दी सिनेमा में नवयथार्थवाद की जनक बनी तो राजकपूर की आवारा और गुरुदत्त की प्यासा इंसान की भावनात्मक छटपटाहट को उजागर करने वाली महत्वपूर्ण फ़िल्में मानी गई।

          साठ के दशक में जब देश हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के कारण आई समृद्धि का जश्न मना रहा था तो सिनेमा ने भी देश की सीमा से बाहर निकलकर खूबसूरत मखमली ख्वाबों को जीना शुरु किया। सिनेमा का कैमरा हमारे देश की सरहदों से बाहर निकलकर स्विटजरलैण्ड, लंदन और अमेरिका की चकाचौंध को दर्शकों के सामने लेकर आया। यश चोपड़ा का रोमांटिज्म और ऋषिकेष मुखर्जी के आदर्शवाद का बेहतरीन कॉकटेल देखने को मिला। तो देव आनंद, राजेश खन्ना और शम्मी कपूर जैसे सितारों ने कश्मीर की वादियों में जाकर मोहब्बत के पाठ पढ़ाये। सितारों की दीवानगी दर्शकों के सर चढ़कर बोलने लगी और युवतियों के सिरहाने सितारों की तस्वीरें और बदन पर गुदने नज़र आने लगे।

     देश में समृद्धि बढ़ी तो भ्रष्टाचार ने भी दस्तक दी। इंसान पहले हालात से मजबूर था अब भ्रष्ट सिस्टम ने उसे लाचार बना दिया। दिल में आक्रोश लिये आम आदमी किसी अवतार की तलाश में था जो उसके क्रोध को परिभाषित करे। सिनेमा ने समाज को इस दौर में एक ऐसा ही एंग्री यंग मेन दिया जो सिस्टम से लड़ता-जूझता नज़र आता था। जंजीर, दीवार और त्रिशूल जैसी फ़िल्मों ने अमिताभ बच्चन को आम आदमी का सितारा बना दिया। तो इसी दौर में श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों ने लीक से हटकर अव्यवसायिक समानांतर सिनेमा का निर्माण कर समाज के स्याह पक्ष को उजागर किया। बेनेगल की अंकुर, निशांत, मंथन और निहलानी की आक्रोश, अर्धसत्य उपेक्षित समाज का आईना साबित हुई।

     सिनेमा ने अधिक लोकतांत्रिक स्वरूप अख्तियार किया और हर दर्शक वर्ग के हिसाब से एक तरफ शोले और मिस्टर इंडिया जैसी मसाला फ़िल्में थी तो दूसरी तरफ मजबूरियों को बताती अर्थ और सारांश जैसी यथार्थवादी फ़िल्में। नब्बे के दशक से पहले सिनेमा में प्रेम कहानियां तो थी पर वो आज के पारंपरिक प्रेमपाश के बजाय परिस्थितियों को भलीभांति समझ के पैदा होने वाले प्रेम को प्रदर्शित करती थी। नब्बे के दशक की शुरुआत में देश ने उदारवाद और भूमंडलीकरण को अपनाया, देश में पैसा आया और लाचारियां धीरे-धीरे विदा होने लगी। लोगों के पेट भराने लगे तो उन्होंने दिल लगाना शुरु कर दिया। सिनेमा में भी नायक-नायिका के संबंधों में बदलाव आया, कॉलेज रोमांस ने दस्तक दी। कयामत से कयामत तक, दिल, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे और कुछ-कुछ होता है जैसी विशुद्ध प्रेमकहानियों का समावेश हुआ। शाहरुख, सलमान, आमिर लोगों के चहेते बने। तो आदित्य चोपड़ा, सूरज बड़जात्या और करण जौहर का स्विटजरलैण्ड, शिफॉन और करवाचौथ वाला सिनेमा हिट हुआ। इसी दौर में रामगोपाल वर्मा और राजकुमार संतोषी का नायक अभी भी सिस्टम से लड़ रहा था। 

     सदी बदली, सोच बदली और सिनेमा ने भी नई उम्र के दर्शक का दामन थामा। पारंपरिक, आदर्शवादी सोच से बाहर निकलकर युवा प्रेक्टिकल हुआ। प्रेम और विवाह अब उसकी मंजिल नहीं, रास्ते के पड़ाव भर रह गये। दिल चाहता है, वेकअपसिड, रंग दे बसंती, थ्री इडियट्स जैसी फ़िल्में बनी जिन्हें न्यू एज्ड सिनेमा के नाम से जाना गया। आज के सिनेमा में कई धारायें एकसाथ प्रवाहित हो रही हैं। दबंग, सिंघम और राउड़ी राठौड़ का एक्शन है तो जब वी मेट, लव आजकल, बरफी के रुहानी मोहब्बती जज्बात भी। अनुराग कश्यप का विशुद्ध डार्क कलेवर वाला वासेपुर है तो प्रकाश झा का गंगाजल, राजनीति और चक्रव्यूह वाला अपराध जगत।
 
     बहरहाल, 3 मई 2013 को शूटआउट एट वडाला प्रदर्शित हो रही है यह महज संयोग ही है कि आज से सौ साल पहले इस दिन प्रदर्शित होने वाली फ़िल्म राजा हरिश्चन्द्रतत्कालीन धार्मिक और पौराणिक मान्यता वाले समाज को बयां करती थी और शूटआउट एट वडाला वर्तमान के आपराधिक वृत्ति वाले समाज की प्रतिनिधि है। जिस समाज में दामिनी और गुड़िया पे हुए दुष्कृत्यों पर इंसाफ मांगने के लिए जनता सड़क पर है। सिनेमा भी तो आखिर समाज और सड़क का ही आईना है......

8 comments:

  1. सिनेमा भी तो आखिर समाज और सड़क का ही आईना है......बहुत बेहतरीन सुंदर प्रस्तुति ,,,
    RECENT POST: मधुशाला,

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  2. फिल्मी इतिहास की रोचक जानकारी..

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  3. सधे हुए शब्‍दों में धाराप्रवाह लेखन .... शुरू से अंत तक अपनी रोचकता के साथ
    जानकारी का अनुपम खजाना लुटाता हुआ ... यह आलेख
    ...

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  4. बहुत उम्दा पोस्ट और लेखन |

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  5. अच्छा लगा उस पुराने इतिहास को जानना ... दादा साहब की परिपाटी आज किन ऊंचाइयों पे है ... ये देख के खुशी होती है ...

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  6. पड़ने मैं इतना मगन होगया ऐसा लग रहा था पुरे सो साल का सफ़र कर रहा हूँ | शुक्रिया सर इस यात्रा के लिए |

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  7. बहुत अच्छी समीक्षा अंकुर, शूट आउट एट वडाला के शीर्षक को सोचकर मुझे अजीब सा लगा, वडाला ऐसी जगह जिसे कभी देखा नहीं और वहाँ शूट आउट की घटना, जबकि हरिशचंद्र तो ऐसे कैरेक्टर रहे हैं जिसे हम हमेशा से जानते हैं। सचमुच सिनेमा बहुत आकर्षक है और वैविध्य ही उसकी शक्ति है।

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