तकरीबन एक हफ्ता बीतने को है जब मैंने रितेश बत्रा निर्देशित इस फिल्म को देखा था...लेकिन इस 'लंचबॉक्स' का टेस्ट कुछ ऐसा है कि एक हफ्ता बीतने के बाद भी इसके टेस्ट को महसूस किया जा सकता है और कई बार किसी बेहतरीन जायके को खाते वक्त उसकी जो महिमा आती है उससे कही ज्यादा महिमा उसे पूरा खत्म करने के बाद अनुभूत होती है वैसा ही कुछ 'लंचबॉक्स' के साथ है।
संवेदनाओं और महीन अनुभूतियों से कदमताल मिलाते आगे बढ़ती इस फिल्म के कथ्य से आप बरबस ही चिपक से जाते हैं और प्रस्तुतिकरण कुछ ऐसा है कि सभी पात्र और घटनाएं अपने आसपास की सी प्रतीत होती हैं। फिल्म का सारा कथानक महज साढ़े पाँच पात्रों के ईर्द-गिर्द घूमता नज़र आता है और इन साढ़े पाँच किरदारों ने ही मनोरंजन का वो संमा बांधा है कि अच्छी-अच्छी मल्टीस्टारर फिल्में पानी मांगती दिखाई पड़े। जिन्होंने इस फिल्म को देखा होगा वो निश्चित ही अचंभित होंगे कि भला साढ़े पांच किरदार भी कहाँ है इस फिल्म में..लेकिन मैंने इन साढ़ें पाँच किरदारों की बेहतरीन भूमिका के चलते ही फिल्म का असंख्य आनंद अनुभव किया है। एक अधेड़ उम्र के आदमी के किरदार में इरफान ख़ान, एक तन्हा पत्नी के किरदार में निरमत कौर, फर्नांडीज (इरफान ख़ान) के मित्र का किरदार निभा रहे नवाजुद्दीन सिद्दकी तथा इनके साथ ही फिल्म का चौथा पात्र खुद मुंबई शहर, पाँचवा टिफिन का डब्बा और आधा मगर दमदार किरदार निभाती अदृश्य देशपांडे आंटी, जिनकी महज आवाज से ही हम रुबरू होते हैं।
भीड भरे मुंबई जैसे कई हाईटेक शहरों में.. जहाँ एकतरफ विशाल जनसैलाब पसरा हुआ है, मनोरंजन के हाईटेक साधन फैले पड़े हैं, चौड़ी सड़कें, ऊंची इमारतें और अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाईयाँ देते अनेक उद्योग भरे पड़े हैं..पर इस सघन फैलाव के बीच इन शहरों में बिखरी है कभी न ख़त्म होने वाली तन्हाई...अकेलापन, लाचारी, बेवशी और अपनों के बीच ही हर क्षण सर्प की भांति डसती खामोशी तथा अजनबीपन का भाव। जहाँ गर जुवाँ है तो उनमें लफ्ज़ नहीं है, गर लफ्ज़ हैं तो उनमें अर्थ नहीं है और गर अर्थ हैं तो वे भावनाओं से शून्य हैं। बौद्धिकता निरंतर अपने चरम को छू रही हैं पर अनुभूतियाँ कालीन के नीचे तड़फड़ा रही हैं। उन अनुभूतियों को ही दूर कहीं से तलाशने के सफर में निकल पड़ता है 'लंचबॉक्स'। ये लंचबॉक्स पहले पेट को संतृप्त करता है और फिर उस रास्ते से ही दिल में दस्तक देता है..क्योंकि कहा जाता है कि आदमी के दिल का रास्ता पेट से होकर ही गुजरता है।
इस भीड़ भरे सूने बीहड़ में लाखों महिलाओं की तरह इला (निरमत कौर) भी शुमार है..जिसकी शादी को कई बरस बीत चुके हैं पर अब उसका अपने पति से रिश्ता, महज उसके लिये लंचबॉक्स पैक करने तक सिमट कर रह गया है..उसके पास अपने पति के आलिंगन का इकलौता ज़रिया, पसीने की गंध लिये पति के वो कपड़े हैं जिनकी महक वो अक्सर उन्हें धोते वक्त लेती है..और इस महक के बीच ही उसे अपनी सौत की महक आ जाती है और अपने एकाकीपन, पति की बेरुखी व अपने प्रणयनिवेदनों को ठुकराये जाने के कारणों से वो वाकिफ हो जाती है। सालों से अपने पति के मुख से तारीफ के दो लफ्ज़ सुनने को बेकरार, इस तन्हा पत्नि को उसके हुनर की तारीफ और अपने अकेलेपन का साथी मिलता है...तो कुछ वक्त के लिये उसके जीवन में भी बसंत की बहार का सा अनुभव होता है। एकाकीपन में मिले ऐसे तमाम साथ कब हमारी आदत औऱ फिर जिंदगी बन जाते हैं, हमें खुद पता नहीं चलता। बिना मिले, बिना देखे, बिना जाने एक अनजान व्यक्ति अपने निकट के लोगों से भी ज्यादा अपना लगने लगता है और आसपास के लोग बेगाने नज़र आने लगते हैं। लंचबॉक्स में चिट्ठियों की अदला-बदली के बेहतरीन दृश्य, आज के हाईटेक टेलीकम्युनिकेशन वाले युग को पारंपरिक माध्यमों के द्वारा मूँह चिढ़ाते से नज़र आते हैं।
वहीं एक अधेड़ उम्र के पुरुष साजन फर्नांडीज़ (इरफान ख़ान), जिसकी जिंदगी अब सिर्फ अपने ऑफिस और सूने घर के बीच किसी यंत्र की तरह डोल रही है। जिसके पास न कोई ऐसा शख्स है जो ऑफिस जाते वक्त उसको टिफिन लगाकर रवाना करे और न ही घर में कोई ऐसा है जो उसके वापस लौटने का इंतज़ार करे। हर रात अपनी तन्हाई में वो अपने सामने वाले घर की चहल-पहल को निहारता है जो उसके एकाकीपन को हर रात तमाचा मारती है..इन हालातों में इंसान अंधेरा तलाशता है क्योंकि उजालों में अक्सर तन्हाई के जख्म नज़र आने लगते हैं और वैसे भी जब ज़हन में गहन अंधकार छाया हो तो भला कौन निगाहों के सामने रोशनी देखना पसंद करेगा। लेकिन लंचबॉक्स इस इंसान के जीवन में भी कुछ पल के लिये खुशहाली लाता है..और बंजर हो चुकी दिल की जंमी पे फिर प्रेम की पींगे फूटती हैं।
प्रेम का ये नवांकुर निश्चित ही आनंद देता है..लेकिन उस अंकुर को पल्लवित होने के लिये उपयुक्त माहौल की बेहद दरकार होती है। इला और फर्नांडीज दोनों ज़िंदगी के उस दौर में खड़े हैं जहाँ उनकी स्वयं की अंतरात्मा और समाज उन्हें प्रेम को पल्लवित करने की इजाजत नहीं देता। प्रेम एकबार फिर मंजिल बन पाने में नाकाम ही होता है क्योंकि मंजिल पे पहुंचना प्रेम की फितरत नहीं है। एकाकीपन शाश्वत है और प्रेम-प्रदत्त खुशहाली क्षणिक। एकबारगी इन दोनों एकाकी पात्रों के मन में भौतिकता को दरकिनार कर प्रेम की आध्यात्मिकता को साकार करने का साहसी विचार आता है..पर यथार्थ के आईने में जब हालातों का दर्शन होता है तो अपने उस विचार का गला घोंटने पे उन्हें मजबूर होना पड़ता है। ये हिन्दुस्तान की 'सकल घरेलु उत्पाद' वाली अवधारणा से दूर, भूटान की 'सकल घरेलू खुशहाली' वाली विचारणा का आलिंगन करना चाहते हैं पर जल्द ही दोनों इस बात से वाकिफ हो जाते हैं कि GDP यथार्थ है और GNH (Gross National Happiness) एक स्वपन।
बहरहाल, एक अनजानी तलाश से शुरु हुई फिल्म, उसी अनजानी तलाश के साथ ही ख़त्म हो जाती है पर हमारी जिंदगी के कई संवेदनात्मक सुप्त पहलुओं को हिलाकर जगा जाती है। कमाल की कवितामयी प्रस्तुति है शायद इसी वजह से कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में ये सराही गयी है। फिल्म के सभी पात्रों के अभिनय में उत्कृष्टता की पराकाष्ठा देखी जा सकती है..और ये कई मुख्यधारा के पॉपुलर अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिये अभिनय के स्कूल की तरह है। संवाद लाजवाब हैं..संवादों मे मौजूद विट ही हास्य का मुख्य जरिया है और संवाद ही भावनात्मकता को परोसने वाले मुख्य अस्त्र हैं। फिल्म में कोई गीत नहीं है और इस कथा को गीतों की ज़रूरत भी नहीं थी। स्क्रीनप्ले सीधा-सहज और फिल्म का प्रवाह अत्यंत सुदृढ़ है जिसके चलते हमें इंटरवल में मिला ब्रेक भी बाधा पहुंचाता सा नज़र आता है। बहुत कुछ कहना तो इस लघु समीक्षा में संभव नहीं है क्योंकि अनुभूतियों को लफ्जों में सर्वांगीणता से पिरोना बहुत मुश्किल होता है।
अपनी रूह की भावनात्मक अभिव्यक्ति को लयबद्ध ढंग से सुनना है तो लंचबॉक्स को ज़रूर देखा जाना चाहिये..यकीन मानिये इस 'लंचबॉक्स' के जायके से आपको कतई अपच नहीं होगी।