उसे रास्ते पसंद हैं..और उन रास्तों से ही कुछ ऐसी मोहब्बत है कि मनमर्जी से जहाँ-तहाँ, जब-तब वो रिश्तों या जज़्बातों का ओवरटेक करते हुए मस्तमौला बन बस चलते रहना चाहता है...और उसकी फ़िल्मों की हर नायिका 'हाईवे' की वीरा की तरह वहाँ नहीं लौटना चाहती जहाँ से वो आई है और वहाँ भी नहीं जाना चाहती जहाँ उसे ले जाया जा रहा है..गोया सफ़र ही रास्ता है और सफ़र ही मंजिल...और इन्हीं वजहों से इम्तियाज़ अपनी फ़िल्मों में एकआध ऐसा गाना भी रख देते हैं जिसमें इरशाद क़ामिल को कुछ ऐसा लिखना होता है..'हम जो चलने लगे, चलने लगे हैं ये रास्ते..मंजिल से बेहतर लगने लगे हैं ये रास्ते'।
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सदियों से नारी को चारदीवारी में दबोच कर रखने वाले समाज के अंदर.. इम्तियाज़ की महिलाचरित्रों द्वारा जो स्त्री विमर्श प्रस्तुत किया है वो अति बौद्धिक लोगों के कोरे उपदेशों से बहुत ऊपर बड़ा ही प्रेक्टिकल है। एक आदर्श स्त्री की तथाकथित भारतीय व्याख्या से दूर इम्तियाज़ की नायिका पूरे दम के साथ अपने प्रेमी के साथ भागने का दम रखती है(जब वी मेट)..ब्रेकअप पार्टी को इंज्वाय करती है और अबला नारी के तरह आंसू नहीं बहाती(लव आजकल), अपने कुछ दिनों के पुुरुष मित्र के साथ बिंदास हो जंगली जवानी जैसी फि़ल्म देखती है(रॉकस्टार) और आधीरात को चुपके से अपने मंगेतर के साथ कुछ प्यार भरे पल भी ढूंढना चाहती है...और अपने ही जज़्बातों की परख में जब उसे ये अहसास होता है कि उसका दिल क्या चाहता है तो बेखौफ हो वो अपने मंगेतर को छोड़, रास्ते में मिले अनजान साथी को चुनती है या शादी के बाद भी अपने पूर्वप्रेमी के मिलने पर उसे चूमती है उसका आलिंगन करती है। गोया कि हरजगह किसी बने-बनाये सिद्धांत को थामें आगे नहीं बढ़ती, वो आज में जीती है और जो भी वर्तमान का सच होता है बस उसे अपनाती है और इस बदलाव में हरबार होता है उसके मौजूदा जज़्बातों द्वारा पुराने अहसासों पर ओवरटेक। और इसी वजह से इम्तियाज़ अपनी 'हाइवे' की नायिका से बुलवाते भी है कि 'इस दुनिया में पता ही नहीं चलता कि क्या सही है और क्या ग़लत..सब कुछ मिक्स-मिक्स सा हो गया है'
इम्तियाज़ को समाज और समाज के रिवाज़ों से भी ऐतराज़ है..जहाँ शिष्टाचार सिर्फ टिशु पेपर की तरह महज़ खुद को सभ्य दिखाने का हथियार बनके रह गया है...उनके नायक-नायिका की आजादी को समाज के इस शिष्टाचार और रिवाज़ों ने ही ख़त्म किया है और उनकी फ़िल्में खासतौर पर हाइवे ये बताती है कि सबसे ज्यादा असभ्य लोग आलीशान मकानों, ऊंचे पदों और शहर के पॉश इलाकों में ही निवास करते हैं..नारी का क्यूट और शालीन की तथाकथित परिभाषा में बांधकर सबसे ज्यादा हाईप्रोफाइल लोगों ने ही शोषण किया है उसे बंधक बनाया है...घर के बाहर वाले लोगों से उसे बचने को कहा जाता है पर घर के अंदर उसे मर्यादा और संस्कारों की नसीहत देकर चुप्पी साधे हुए सारे जुल्म सहने को मजबूूर किया जाता है। पिता के हिसाब से उसे अपना जीवनसाथी चुनना होगा, माँ के हिसाब से उसे अपनी सोच रखनी होगी, भाई के हिसाब से उसे पहनना-ओढ़ना और दोस्ती करना होगा, पति के हिसाब से उसे माँ बनना होगा-घर संभालना होगा या काम करना होगा...और कभी-कभी अपने निकटतम रिश्तेदारों की हवस का शिकार भी बनना होगा। इन सबमें नारी का अपना वजूद कहाँ हैं? लेकिन इस सबके बावजूद उसे चुप्पी साधे रहना होगा क्योंकि यदि मूँह खोला तो वो असंस्कारी साबित कर दी जायेगी।
इम्तियाज़ की बाकी फ़िल्मों की तरह 'हाईवे' में भी पात्र अपना अस्तित्व खोजते नज़र आते हैं..और जज्बातों का ओवरटेक कराते हुए प्रेम की मासूम संवेदनाओं को भी उन्होंने बखूब जगह दी है। नायिका, खुद की सगाई होने के बावजूद अपने अपहरणकर्ता से प्रेम करती है..और अपनी हाईप्रोफाइल सोसायटी से दूर उसे एक किडनेपर में ही सभ्य इंसान नज़र आता है..उसकी ख़ुशी आलीशान बंगला, मोटरकार या लग्जरीस् में नहीं है बल्कि उसे दूर कहीं पर्वत पे एक कच्चा-सा पर अपना-सा घर चाहिए, प्यार करने वाला हमसफ़र चाहिये। इम्तियाज़ की इन कथाओं के सार को तहलका के फिल्म समीक्षक गौरव सोलंकी कुछ यूं बयाँ करते हैं "इम्तियाज के पास हमारे समय की सबसे ईमानदार प्रेम कहानियां हैं और वह होना बड़ी बात नहीं हैं क्योंकि वे और भी बहुत से लोगों के पास है. लेकिन इम्तियाज़ के पास उनका सबसे ईमानदार ट्रीटमेंट भी है..उनके पास युवाओं की भाषा है जिससे वे गज़ब के रोचक डॉयलाग गढ़ते हैं और बचपना है जो तालाब में कूदने से पहले उसकी गहराई का अंदाज लगाने वाली तहजीब में यकीन नहीं रखता।"
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खैर, एक दर्शनीय फ़िल्म...कथा के परे यदि विधा के स्तर पर बात की जाय तो भी भले महानतम न हो पर बदतर भी नहीं है..ए आर रहमान का संगीत उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप। सिनेमैटोग्राफी और लोकेशन्स बेहतरीन और आपका पैसा वसूल करने की ताकत तो इसकी खूबसूरत लोकेशन्स में ही काफी है, सिनेमाई कथ्य की गुणवत्ता तो मुफ्त है..आलिया भट्ट का अभिनय लाजवाब है उन्हें देख लगता नहीं कि ये उनकी महज़ दूसरी फ़िल्म है..रणदीप हुड्डा का चुनाव एक किडनैपर के किरदार अनुसार एकदम फिट बैठा है..स्वाभाविक और उत्कृष्ट अभिनय। कुल मिलाकर कंपलीट पैकेज पर आप इसे सिर्फ मनोरंजन की उथली सतह से परे जाकर देखिये..ये आपको खुद के अहसासों का बोध कराने वाली प्रतीत होगी। एक आम इंसान की कथा..जहाँ कोरा आदर्शवाद नहीं बस स्वाभाविक आजादी की माँग है..जो प्रैक्टिकल है पर स्वार्थी नहीं। आपाधापी से घिरे किरदार बस मांगते है रत्ती भर प्यार..हमारी आपकी तरह। लेकिन समाज और रिवाज़ उन्हें काट देना चाहते हैं हमेशा की तरह सभ्य बनकर और प्यार करने वालों को असभ्य बनाकर..लेकिन फिर भी इन नायक-नायिकाओं का प्यार, नजदीकियों का मोहताज़ नही हैं..इरशाद कामिल 'रॉकस्टार' के लिये लिखते हैं 'जितना महसूस करुं तुमको, उतना मैं पा भी लूं' वैसा ही कुछ हाईवे में कहते हैं "हर दूरी शरमाये, तू साथ है हो दिन-रात है..साया-साया माही वे"। बंधनों के बावजूद प्रेम का सदियों से चला आ रहा अंतिम रिसोल्युशन- दूरियों के बावजूद बस एक अहसास...बिल्कुल हमारी-तुम्हारी तरह।