"नारी मात्र माता है और इसके उपरान्त वो जो कुछ है वह सब कुछ मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व विश्व की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे बड़ी विजय है।" प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान में उद्धृत ये पंक्तियां मातृत्व के वरदान के ज़रिये नारी को दुनिया की तमाम ऊंचाईयों के शिखर से कही ऊपर ले जाती हैं लेकिन फिर भी माँ की अहमियत और चरित्र को रत्तीभर भी बयाँ नहीं कर पाती...क्योंकि माँ, महज एक संज्ञा नहीं, बल्कि एक क्रिया है, विशेषण है या कहें कि एक प्रवृत्ति है। एक ऐसी प्रवृत्ति जिसके बारे में टेनेवा जोर्डन कहते हैं "एक माँ वो है जो घर में ये देखकर कि रोटी चार है और खाने वाले पाँच हैं..खुद बड़े नाटकीय ढंग से ये कह दे कि मुझे भूख नहीं है।" इस दुनिया में सिर्फ एक ही सबसे सुंदर और प्यारा बच्चा है और सौभाग्य से वो बच्चा हर माँ को मिला है। गर माँ न हो तो व्यक्ति अपनी सत्ता से ही प्रेम करना न सीखे...उसका सम्मान, उसकी संतुष्टि और उसके होने के मायने बस एक माँ के निकट ही सबसे ज्यादा हासिल होते हैं...डेविट टालमेज़ कहते हैं माँ एक ऐसा बैंक है जहाँ इंसान अपनी समस्त चिंताओं और दुःखों को डिपोसिट कर देता है।
माँ। शायद वो माँ ही है जिसने मई के बोझिल से महीने को भी महान् बना दिया है। जी हाँ, साल भर में सैंकड़ो बड़े दिवस सेलीब्रेट करने वाली इस नवसंस्कृति ने सबसे खूबसूरत रिश्ते या सबसे सुंदर अहसास के लिये मई का महीना मुकर्रर किया है...मदर्स डे। माँ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का दिन। लेकिन भला कौन है इस दुनिया में जो इस असाध्य काम को कर सकता है..और वैसे भी माँ के असीम उपकृत्यों को एक दिन में समेटकर कृतज्ञता ज्ञापित करने के बारे में सोचना ही शायद सबसे बड़ी कृतघ्नता होगी। माँ, एक ऐसा अहसास जिसने इस शब्द को भी इस कदर महान बना दिया है कि अब हमें किसी और चीज़ के प्रति भी श्रद्धा लाना हो तो हम उसके आगे बेझिझक बड़ी बेबाकी से माँ शब्द जोड़ देते हैं...जैसे-भारत माँ, धरती माँ, गौ माता, गंगा माँ। दुनिया के सभी धर्म आपस में कई चीज़ो के ज़रिये मतभेद लिये हुए है लेकिन चाहे निवृत्ति प्रधान धर्म हो या प्रवृत्ति प्रधान, सभी ने माँ के महत्व को पूरी श्रद्धा के साथ स्वीकार किया है। चार्वाक् जैसे भोगवादी, नास्तिक धर्म में भी माँ के दर्जे को यथायोग्य अहमियत दी गई है।
आज के इस पितृसत्तात्मक समाज में नारी को पुरुष से ज्यादा शक्तिशाली बताने वाले महिलासशक्तिकरण के समर्थक तमाम तर्कों का सबसे बड़ा आधार यदि कोई है तो वो यही है कि स्त्री माँ बन सकती है। यद्यपि मैं स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को ही पुरजोर महत्व देने की वकालत करता हूँ उसपे मातृत्व की किसी अपेक्षा को अनावश्यक लादने का पक्षधर नहीं हूँ लेकिन फिर भी कुदरत ने जिसे माँ बनने की सौगात दी है उसके लिये मेरे अंदर नारी में नैसर्गिक तौर पर पाये जाने वाले मातृत्व के लिये श्रद्धा आये बिना नहीं रहती। एक स्त्री प्रेमिका के तौर पर, पत्नी के तौर पर, बेटी, बहन या दोस्त के तौर पर धोखा दे सकती है पर माँ होने के नाते वो कभी बेवफ़ा या धोखेबाज़ नहीं हो सकती। भले उसके फैसले बुद्धिमत्तापूर्ण न होने से कदाचित् उसके बच्चों का अहित हो जाये पर उस फैसले के कतरे-कतरे में अपने बच्चों के लिये सिर्फ दुआ और भलाई की भावना ही शामिल होती है।
विज्ञान की सारी ताकत आज तक उस रसायन को नहीं खोज पायी जिससे माँ का निर्माण होता है। बहुत छोटी-छोटी सी चीज़ों से लेकर बड़ी-बड़ी चीज़ो तक सब माँ याद रखती है और कई मर्तबा वो हमारी उन ज़रूरतों को भी जानती है जिनका पता हमें खुद नहीं होता। खाना खाते वक्त बिना कहे ही नमक का डिब्बा और पापड़ हम तक पहुंचाना, स्कूल-कॉलेज या ऑफिस जाते वक्त हमेशा भागते-भागते कोई फल या एक रोटी ज्यादा रख देना, सोते वक्त हमें बार-बार उठकर देखना कि तकिया हमारे सिर के नीचे है या नहीं, हर खास मौके पर बिना इत्तला किये ही हमारी मनपसंद किसी डिश को बनाना, घर से जाते वक्त हाथ में रुमाल पकड़ाना, एक्साम के वक्त पेन-पेंसिल और रोल नंबर की याद दिलाना, इंटरव्यु पे जाते वक्त मुंह मीठा कराना, सर्दी-जुकाम या तबीयत बिगड़ने पर जबरदस्ती वो कड़वा सा काड़ा पिलाना, घर से बाहर नंगे पैर निकलने पर फटकार लगाना, आँखों की लालिमा देख हमारी नींद न लगने की वजह का पता लगाना, भीड़ के बीच भी हमारी सुविधाओं की फिक्र करते रहना और अपनी आँखों से दूर होने पर बीसों बार फोन कर करके हमारी सलामती की ख़बर लेते रहना..पता नहीं कैसे इन अनगिनत छोटी-बड़ी चीज़़ों का खयाल माँ को रहता है। शायद इसीलिये कहा गया है कि भगवान हमें देखने हर जगह नहीं हो सकता, इसलिये उसने माँ बनाई।
इंसान चाहे कितना भी बड़ा हो जाये पर वो हमेशा अपने ग़म को दूर करने माँ की गोद ही तलाशता है..माँ की एक नज़र उसके सारे तनाव दूर करने के लिये काफी हैं। उसे ज़िद करने के लिये, गुस्सा होने के लिये, लड़ने-झगड़ने के लिये, रोने-मुस्कुराने के लिये, किसी अच्छी ख़बर को सुनाने के लिये या अपने अहसासों की किसी हरकत का पता बताने के लिये...प्रायः हर चीज़ के लिये माँ की ज़रूरत होती है।
भले हम पर बढप्पन का भाव आ जाये और हम माँ के प्रति अपने जज्बातों को बयाँ न कर पायें पर फिर भी हम जीवन पर्यंत माँ का साया अपने संग चाहते हैं...तारे ज़मीन पर फिल्म का गीत है "मैं कभी बतलाता नहीं, पर अंधेरे से डरता हूँ मैं माँ" दरअसल ये हर उम्र के इंसान का सच है कि अपने जज़्बातों को पनाह देने के लिये ज़िंदगी के हर पड़ाव पर माँ की ज़रूरत होती है। हाल ही में प्रदर्शित यारियां फ़िल्म के गीत के बोल भी बरबस ही याद आ रहे हैं "जब चोट कभी मेरे लग जाती थी, तो आँख तेरी भी तो भर आती थी..एक छोटी सी फूंक से तेरी, सभी दर्द होते थे मेरे गुम...आज भी कोई चोट लगे तो याद आती हो माँ"। इसी तरह दसविदानिया फ़िल्म का गीत जिसमें माँ के बारे में कहा है कि "हाथों की ये लकीरें बदल जायेंगी, ग़म की जंजीरें पिघल जायेंगी..हो खुदा पे भी असर, तु दुआओं का घर..माँ-मेरी माँ"
यकीनन, माँ का होना बस माँ का होना ही है..उसे किसी उपमा से विशेषित नहीं किया जा सकता पर अफसोस आज की नवसंस्कृति माँ का भी क़त्ल कर रही है और ममता का भी..तंग और छोटे होते कपड़ों में माँ का आंचल भी कहीं गायब होता नज़र आ रहा है और उन कपड़ो के साथ जज़्बात भी सिकुड़ रहे हैं...पर हालात चाहे कैसे भी क्युं न हो जाये..सृष्टि के अंत तक मातृत्व जिंदा रहेगा...और मातृत्व के अंत होेने पर मातम बनाने वाला कोई नहीं रहेगा क्योंकि इंसानियत और बृह्माण्ड पहले समाप्त होगा, मातृत्व बाद में...कुदरत के आखिरी क्षण तक किसी न किसी चराचर प्राणी में मातृत्व का भाव बाकी रहेगा, भले हम इंसानों से ये भाव दूर हो जाये..गर इस सृष्टि का संरक्षण करना है तो मातृत्व को पहले संरक्षित करना होगा...दुनिया की हर माँ को तो अपना पुत्र विश्व का सर्वोत्तम पुत्र नज़र आता ही है पर इस जगत में वात्सल्य का असल संचरण तब होगा जब बच्चों को अपनी माँ में विश्व की सर्वोत्तम माँ नज़र आये।
मेरे इन कथनों को आइडियलिस्टिक सोच समझकर सिर्फ सैद्धांतिक धरातल पर ही न देखें बल्कि भौतिक धरातल पर इसका प्रयोग ज़रुरी है...अंत में 'माँ' इस शब्द को नमन करते हुए उस भाव के आगे सिर झुकाता हूँ जिसने इस शब्द को महान् बनाया है और उस हर स्त्री की महानता के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता हूँ जिसने इस भाव को अपने हृदय में संजोया है...'माँ' काश मैं ऐसा कुछ कर पाता जिससे तुम्हारे होने के मायने तुम्हें बता पाता...'माँ'बृह्माण्ड की कोई भी वस्तु और शब्द तुम्हें बयाँ कर पाने में अशक्य है पर 'माँ' इस शब्द के ज़रिये समूचे बृह्माण्ड को समेटा जा सकता है..............
माँ ' पर बहुत ही अच्छी पोस्ट लिखी है.पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के 'माँ'' रूप ने स्त्री का स्थान सबसे अधिक सम्मानीय बना दिया है .
ReplyDeleteसही कहा अल्पना जी...
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteशुक्रिया विकेश जी...
DeleteNice post sir :)
ReplyDeleteThanks Abhishek...
Deleteहमारा एक दूर का बाई कहा करता ता एक जो होगी पत्नी उसे छोड कर सब स्त्रियां हैं माँ, बहन या पुत्री सी।
ReplyDeleteबिल्कुल ठीक कहा आशा जी...
Deleteबहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteमाँ पर बहुत अच्छा लेख लिखा है. शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteआभार जेन्नी जी...
Deleteबहुत ही अच्छा लिखा है .. माँ एक ऐसा शब्द जिसको बोलते, पढ़ते समझते अपने आप पवित्र एहसास घर कर जाते हैं ... त्याग का एहसास हो जाता ...
ReplyDeleteसही कहा दिगम्बर जी...
Deleteशुक्रिया चर्चा मंच पर जगह देने के लिये...
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