एक हिंदी फ़िल्म का संवाद है कि "ये न सोचो ज़िंदगी में कितने पल हैं बल्कि ये सोचो कि हर पल में कितनी ज़िंदगी हैं।" मैं भी अपनी ज़िदगी के एक ऐसे ही सफ़र से आपको वाकिफ कराना चाहता हूँ..जिस सफ़र के पल-पल में हमने कई जिंदगियों को जिया था। आप सोच सकते हैं कि इस वैचारिक, दार्शनिक, निबंधनुमा ब्लॉग में अपना संस्मरण ठोकने की क्या ज़रूरत है और इससे किसी को क्या मतलब? लेकिन मतलब है..और इसकी ज़रूरत तब समझ आ सकती है जब आप मेरी जगह आकर सोचें। हिन्दी के एक कवि ने कहा है- "मैं जो लिखता हूँ वो व्यर्थ नहीं है..हूँ जहाँ खड़ा वहाँ ग़र तुम आ जाओ तो कह न सकोगे कि इसका कोई अर्थ नहीं है।" कुछ ऐसा ही यहाँ जानना...
दरअसल, आज के ही दिन हमारे कॉलेज के शैक्षणिक भ्रमण को पूरे पाँच साल पूरे हुए..सुबह जब सोकर उठा तो कुछ दोस्तों का फोन आया और उन्होंने अनायास ही उस भ्रमण की यादें ताज़ा कर दी..वे दोस्त भी उस टूर पे मेरे साथ थे। हालांकि आज वे अपने-अपने ग्रहस्थ जीवन में प्रविष्ट हो चुके हैं लेकिन वो सफ़र उनके लिये भी बेहद ख़ास था जिस वजह से वो आज भी उन यादों की जुगाली कर, कुछ प्रसन्न हो लेते हैं..क्योंकि वर्तमान का यथार्थ निश्चित ही बड़ा निर्मम हैं ऐसे में अतीत की जुगाली ही कुछ राहत देने वाली साबित होती है। हालांकि मैंने काफी पहले अपने उस सफ़र के बारे में लिखने का सोचा था लेकिन किन्हीं कारणों से नहीं लिख पाया..वो सोच अब जाकर साकार हो रही है। यद्यपि उन यादों को जिस तरह से मैं महसूस कर सकता हूँ उस तरह से व्यक्त नहीं कर पाउंगा..पर कोशिश ज़रूर करना चाहूँगा।
माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में मास्टर डिग्री के तृतीय सेमेस्टर के दौरान, शुरुआत से ही एजुकेशनल टूर को लेकर चहलकदमी शुरु हो गई थी..ऐसा लगता था कि इस सेमेस्टर का बस एक ही लक्ष्य हो और वो है- एजुकेशनल टूर। ख़ासे उतार-चढ़ाव और मिन्नतों के बाद हमें टूर पे जाने की अनुमति मिली और तुरत-फुरत में रिज़र्वेशन किये- भोपाल टू पुणे-मुंबई और गोवा। जैसे-तैसे ज़ल्दबाजी में रिज़र्वेशन तो कर लिये किंतु असली विवादों का जन्म शुरु हुआ..जब एक हफ्ते पहले तक न कहीं ठरहने के बंदोबस्त किये थे..न कहीं खाने के और न ही घूमने के। दरअसल इस टूर पे जाने का निर्णय सिर्फ हम विद्यार्थियों का था और इसी वजह से कॉलेज का तो महज नाम भर ही था..लेकिन जैसा कि होता है कि साथ में कुछ लड़कियाँ भी थी और लड़कियों के पैरेंटस् भला पूरी जाँच-पड़ताल किये बगैर कैसे जाने दे सकते थे। तो जब उन लड़कियों के पैरेंट्स के फोन हमारे विभागाध्यक्ष के पास आये तब उन्होंने हम रिज़र्वेशन करने वालों से टूर का सारे ब्यौरा माँग लिया लेकिन हमारे पास महज रिज़र्वेशन टिकट के अलावा और कुछ नहीं था। यहाँ तक कि हमारे साथ कॉर्डिनेटर के तौर पे कौन सी फैकल्टी जायेगी इसका भी कोई ठिकाना न था..
फिर क्या आनन-फानन में हमारे विभागाध्यक्ष डॉ श्रीकांत सिंह खुद तैयार हुए..एक टूर ऑपरेटर द्वारा टूर प्लान किया गया..और जब ये प्लॉन तय हुआ तो कुल खर्चे में आने वाली राशि भी बढ़ गई और इस बढ़ी हुई राशि को देख..स्टूडेंट्स के नाम वापस लेने की, लड़ने-झगड़ने, आपसी बहस का बेहद यादगार सिलसिला शुरु हुआ..एक वक्त ऐसा भी आया कि टूर के महज दो दिन पहले इस भ्रमण के रद्द होने की नौबत आ गई..आगे जो हुआ वो सब मैं नहीं बताना चाहूँगा बस ये समझ लीजिये कि टूर हुआ..कुछ जाने वाले लोग नहीं जा पाये और कुछ न जाने वाले लोग रातों-रात हमारे साथ हो लिये। जिनमें मेरे मित्र प्रशांत झा और अरविंद मिश्रा तो ऐसे थे जो हमें छोड़ने स्टेशन आये थे पर श्रीकांत सर के कहने पे तुरत-फुरत में अपने 3-4 कपड़े पैक कर ट्रेन विदआउट टिकट ही हमारे साथ हो लिये..हमारे इस कारवाँ में कुल छब्बीस लोग थे जिनमें सौरभ जैन, प्रशांत कुमार, मयंक, मौली, मीनू, जयवर्धन, मकरंद, सौरभ मिश्रा, गुलशन, पूजा मिश्रा, सिम्मी, रोहिणी, लिज़ी वर्गीस, पूजा वर्णवाल, प्रशांत झा, अरविंद, हिमांशु वाजपेयी, सचीन्द्र भैया, प्रतीति, प्रियंका, हितेश शर्मा, पंकज, रमाशंकर और मैं..साथ ही श्रीकांत सर और एक आलोक नाम का टूर ऑपरेटर।
विवादों के बाद शुरु हुए इस टूर को लेकर सब खुश थे और सबकी हसरत थी बस जी लेने की..कुछ ने सोचा कि इसमें शायद कुछ प्यार मोहब्बत की पींगे फूटे, तो कुछ चाहते थे कि फुलटू हुल्लड़बाजी हो..क्योंकि आनेवाला कल शुरुआत में तो अच्छा होगा पर बाद में उतना ही उबाऊ और कष्ट देने वाला साबित होगा..जी हाँ मैं इंसान के प्रोफेशनल लाइफ की बात कर रहा हूँ। कहते हैं जवानी में यादें बोई जाती हैं, बुढ़ापे में फसल लहलहाती है और बचपन उन जंगली पौधों की तरह है जिनकी यादें अपने आप उग आती हैं। यादें घुसपैठिया होती हैं, आतताई भी होती हैं और संजीवनी की तरह मन के वीराने में लहलहाती भी हैं..जिनका हल्का-हल्का रस यदा कदा मुस्कुराहट देता रहता है। हमारा ये भ्रमण भी कुछ ऐसा ही था यही कारण है कि पाँच साल बाद भी मैं इसकी जुगाली कर रहा हूँ।
इस सफ़र को देखने के हर किसी के अपने-अपने नज़रिये हो सकते हैं पर इस सफ़र के खुशनुमा होने का कारण सिर्फ दोस्तों का साथ और जिंदगी के बाकी तनावों से यहाँ तनाव का कम होना मानता हूँ। यहाँ तनाव न हो ऐसी बात नहीं है, परेशानियों से पूर्णतः विरहित इंसान दुनिया में हो ही नहीं सकता। सफ़र के खूबसूरत नज़ारों में भी हमें खुश करने की दम नहीं थी क्योंकि खुशी के पैमाने, अचेतन बाहरी नज़ारों से नहीं, बल्कि चेतन दोस्तों के साथ से तय होते हैं।
बहरहाल, इस टूर पे खिटपिट, लड़ाई-झगड़े भी खूब हुए लेकिन वे भी सुहानी याद बन गये..और लड़ने-झगड़ने वाले लोग भी कालांतर में गहरे दोस्त बन गये..चाहे मकरंद-प्रशांत, सौरभ-लिजी या मैं और पंकज ही क्यों न हों। संगीत के प्रति मेरा प्रेम भी इस टूर पे पैदा हुआ..सफ़र के दौरान मेरे मोबाइल पे बजने वाला क्लासिक-रोमांटिक गानों का तराना, हमारा सबसे बड़ा मनोरंजक हुआ करता था..हालांकि वो महंगा फोन, उस तंगी के दौर में मुंबई स्टेशन पे मुझसे खो गया..और वो एक दिन सिर्फ उदासी ने मेरा दामन थामे रखा..दुख इस बात का भी था कि कई खूबसूरत फोटोस् के ज़रिये कुछ यादें भी उस फोन के साथ हमसे दूर चली गई।
यादें इतनी है कि मैं उन्हें बयाँ नहीं कर सकता..वे सारी चीजें यूं तो थी बड़ी ही छोटी-छोटी..किंतु उनमें बला की ताजगी थी..चाहे पुणे के होटल में मस्ती हो, होटल के बाहर विभिन्न गेम्स खेलना हो, मुंबई समु्द्र में बोट वाले से झगड़ा हो, रेस्टोरेंट में वेज-नॉनवेज को लेकर झगड़ा हो, गोआ में धारा-144 लगने से दिन भर होटल के अंदर भूखे-प्यासे पड़े रहना हो, लिजी-सचीन्द्र भैया की लड़ाई, अरविंद-प्रशांत की मस्ती, सौरभ मिश्रा-मकरंद के गाने या हमारे साथ गई तीन विशेष तितलियों के नाज नखरे और न जाने क्या-क्या...ये सब तो उन्हें ही समझ में आ सकता है जो उस टूर में हमारे साथ हुआ करते थे।
हमारे विभागाध्यक्ष श्रीकांत सर का सपोर्ट और उनके व्यक्तित्व का एक कोमल पहलु भी हमें इस दौरान देखने को मिला जिसे हम कभी नहीं भूल सकते...अंत में इस टूर को एक सैद्धांतिक बात के साथ ख़त्म करूंगा..ये बात भी इस भ्रमण के दौरान अनायास ही ईज़ाद हुई थी कि "इस भ्रमण के बाद जिनको हम बस जानते थे उनके करीब आ गये और जिनके करीब थे उन्हें अच्छे से जान गये".......