'मेरे फेसबुक में 1000 मित्र हैं', 'मेरी नई DP को 200 लोगों ने लाइक किया', 'वी चैट पे मेरी 15 महिला मित्र हैं' या 'ट्विटर पे मुझे 2000 से ज्यादा लोग फॉलो करते हैं' ये कुछ संवाद हैं जिन्हें आजकी जनरेशन बड़े ही चटकारे लेकर प्रस्तुत करती है...अपनी ज़िंदगी का अधिकतम वक्त शायद इसी 'आभासी दुनिया(Virtual World)' में खर्च हो रहा है...आज हमारी मोहब्बत, बुजुर्गों के लिये इज्जत, देशभक्ति, विद्वत्ता या भोगआकांक्षायें सब कुछ आभासी विश्व की चरणवंदना कर रहा है। गोयाकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; हमारे तमाम पुरुषार्थ आभासी हो चुके हैं। वर्चुअल विश्व ही हमारे ग़म की वजह है और यही खुशी का कारण।
अब पारंपरिक पुस्तकालयों में भीड़ नहीं लगा करती...कोयल या गोरैया का गुनगुनाना सुकून नहीं देता, बगिया में खिले हुए फूलों या आसमाँ के तारों को देख हमें कोई कविता नहीं सूझती..पर्वत की नीरवता, नदी की कलकल या बारिश की फुहारें; रुह को ठंडक नहीं पहुंचाती...शाम को बूढ़े नीम के नीचे बुजुर्गों की महफिलें नहीं जमा करती और न ही दादी-नानी की कहानियाँ हमारे शिक्षा के स्त्रोत होते हैं...गाँव की सड़कों पे घूमता अल्हड़ बहरूपिया या बंदर को नचाता मदारी, अब मस्ती का पैमाना नहीं रहे हैं..और न ही अब बच्चे राष्ट्रीय त्यौहारों पे, अपनी स्कूल ड्रेस की शर्ट वाली जेब में तिरंगा लगाये प्रभात फेरी में हिस्सा लेते दिखाते हैं। जिंदगी के सारे मनोभावों पे वर्चुअल विश्व का एकछत्र साम्राज्य है।
बड़ा आश्चर्य होता है जब कभी-कभी मैं लेट नाइट अपने शोधकार्य की थीसिस पे काम करने के बाद कुछ देर को अपना फेसबुक अकाउंट चैक करता हूँ (क्योंकि कुछ हद तक मैं भी इसका गुलाम सा बन बैठा हूँ) और सैंकड़ो लोगों को ऑनलाइन पाता हूँ। ये सारे नाइटराइडर्स किसी नए शख्स को ऑनलाइन देख, झट से उसके इस्तकबाल में लग जाते हैं..मानो वे पलक-पांवड़े बिछाके वाट ही जोह रहे हो किसी अनजान से गुटरगू करने की। आज ऑफिस में काम करते वक्त, कॉलेज में स्टडी करते वक्त या किसी सुहाने सफर के दौरान भी लोग; पलभर के लिये इस सायबर संजाल से खुद को दूर नहीं कर पाते..और इस आभासी विश्व से दूरी, उन्हें श्वांस बगैर ज़िंदगी सी जान पड़ती है और लगता है मानो रग़ों में से लहू सूख रहा हो। असल परेशानी इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स का प्रयोग करने की या अनजाने लोगों से मित्रता बढ़ाने की नहीं..बल्कि परेशानी ये है कि इस आभासी विश्व के चलते हम अपने यथार्थ से कोसों दूर जा रहे हैं और अब हमारे लंच या डिनर के वक्त डाइनिंग टेबिल पे, प्रायः परिजनों के समक्ष खामोशी पसरी रहती है और फेसबुक, ट्विटर, वाट्सएप या वीचैट पे हम अपनी मिलनसारिता दिखाते रहते हैं।
यथार्थ हमें बेहद कड़वा और उबाऊ लगने लगा है..और इस यथार्थ में हम न किसी तरह का कोई फीडबैक देते हैं और न ही कोई फीडबैक पाना ही चाहते हैं। मानो हमारा अस्तित्व अब सिर्फ वर्चुअली ही रह गया है और असल ज़िंदगी में हम मर चुके हैं। लंदन, अमेरिका, कनाडा, जापान में बैठे लोग हमारे दोस्त है जिन्हें न हम कभी मिले हैं और न ही जिन्हें हम ठीक से जानते हैं लेकिन हमारे पड़ोस में रहने वाले अधेड़ उम्र के ताऊ या घर के सामने गूँजने वाली नन्ही किलकारी से हम अनजान है..और हर रोज़ जिनका दीदार तो हम कर रहे हैं पर उनका हाल जानने के लिये हमारे पास वक्त नहीं है। कभी-कभी समझ नहीं आता कि वर्चुअल विश्व के इस फैलाव के बाद इंसान का स्वभाव अंतर्मुखी हुआ है या फिर बहिर्मुखी...क्योंकि जितनी बातें हमें फेसबुक स्टेटस अपडेट करते वक्त, किसी फोटो पे कमेंट करते वक्त या अजनबियों से चैट करते वक्त आती हैं क्या उतनी बातें हमें अपने यथार्थ जीवन में भी आती है...हमारी बातों या हमारे व्यक्तित्व का आकलन अब वर्चुअल विश्व के लाइक्स और कमेंट्स ही तय करते हैं।
इस वर्चुअल विश्व पे हम अपने खाने-पीने, घूमने-फिरने, यहाँ तक की हगने-मूतने तक की अपडेट्स लगातार देते रहते हैं पर अफसोस घर में हमारे माँ-बाप को ही हमारे घर से बाहर रहने का सही कारण मालूम नहीं होता। अब प्यार में ब्रेकअप होने पर हम हमारे ज़िगरी दोस्त का कंधा नहीं तलाशा करते..बल्कि इस नितांत वैयक्तिक चीज़ के लिये भी हमें आभासी विश्व की प्रतिक्रिया की ज़रूरत है। सेना पे शहीद हुए जवान को श्रद्धांजलि देना हो या शिरडी वाले सांई के प्रति भक्ति प्रदर्शित करना हो..यहाँ भी हम महज एक फोटो पे लाइक या कमेंट कर, खुद के देशभक्त और श्रद्धालु होने का प्रमाण प्रस्तुत कर देते हैं। हमारी राजनीतिक समझ, देश की समस्याओं पे हमारी बौद्धिक जुगाली या मोहब्बत के बड़े-बड़े शैक्षिक पाठ; सब कुछ एक स्टेटस या कमेंट्स तक सिमट गये हैं..और यथार्थ की समूह वार्ताएं जाने कहाँ गुम हो गई हैं।
निश्चित ही सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने सूचनाओं को एक लोकतांत्रिक स्वरूप दिया है जो कि लोकतंत्र और समाजवाद के लिये एक अहम् कदम है..पर इस आभासी दुनिया के चलते हमारी बौद्धिकता और भावनाएं बड़ी भ्रामक और मिथ्या हो गई है..जिसके कारण भले हम सूचनाओं को एक लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान कर रहे हैं पर सच्चे अर्थों में लोकतंत्र और समाजवाद को ही नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि लोक और समाज का साकार स्वरूप हमें कड़वा लगता है और उसके आभास में हमें हरियाली नज़र आती है।
आज विज्ञान के आविष्कारों ने हमें वर्चुअली जीना तो सिखा दिया है..अब मुझे डर है कि कहीं हमारी मौत और उस मृत्यु का मातम भी इसी तरह वर्चुअली तो नहीं हो जाएगा। अन्यथा इंटरनेट पे ही हम मरेंगे..इस पे ही कहीँ दफना दिये या जला दिये जाएंगे..और किसी वर्चुअल 3D फॉरमेट में बहती हुई गंगाजी की इमेज में हमारी वर्चुअल अस्थियां सिरा दी जाएंगी।
सादर नमन -
ReplyDeleteनवरात्रि की मंगल कामनाएं
ReplyDeleteनवरात्रि की बहुत बहुत शुभकामनायें-
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''जीना यहां, मरना यहां''
ReplyDeleteसंयत सार्थक विश्लेषण.
जी आभार आपका...
Deleteसार्थक विश्लेषण है आपका ...
ReplyDeleteनवरात्रि की शुभकामनायें ...
धन्यवाद..आपका
Deleteआपको भी शुभकामनाएं...
सच्ची दुनिया, सच्ची ख़ुशी । आभारी दुनिया आभासी ख़ुशी
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