(अपने जीवन की अब तक की यात्रा का विवरण दे रहा हूँ..पिछली किस्तों में जीवन के उन पलों को पिरोने की कोशिश की है जिनकी बेहद धुंधली सी यादें, ज़हन में यदा कदा खलबली मचाये रहती हैं। अब आने वाली किस्तें जिंदगी के अपेक्षाकृत समझदारी भरे वर्षों को प्रस्तुत करेंगी। यद्यपि समझदारी एक ऐसी चीज़ है जिसके कोई मानक निर्धारित नहीं किये जा सकते और इंसान 60-70 की उम्र में भी समझदार बनने के जतन करता रहता है। लेकिन फिर भी औपचारिक बातें, झूठी मुस्कान और तथाकथित शिष्टाचार को अपनाने का हुनर यदि आपमें आ गया है तो आप समझदार हो चुके हैं..और अब मैं भी कुछ ऐसा ही समझदार बनता जा रहा था)
गतांक से आगे-
उस दौर में कक्षा आठ की बोर्ड परीक्षा हुआ करती थी..आज के समय में ये बोर्ड परीक्षा शब्द कितने मायने रखता है मुझे नहीं पता..पर उस वक्त किसी परीक्षा की गंभीरता बताने के लिये अक्सर ये जुमले बोले जाते थे कि 'भैया, बोर्ड एक्साम है लटक मत जाना'। हालांकि पाँचवी कक्षा भी बोर्ड ही हुआ करती थी लेकिन कक्षा आठ के बोर्ड होने के मायने थोड़े अलग ही थे। मैं भी कक्षा आठ में था..परीक्षा की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मुझे तीन-तीन ट्युशन क्लासेस अटेंड करने जाना होता था। इस वक्त तो सरकार के सर्व साक्षरता मिशन के अंतर्गत ये नियम बना दिया गया है कि कक्षा आठ तक किसी को फेल नहीं किया जा सकता..लेकिन तब ऐसा नहीं था मेरे घर और पड़ोस के कुछ भैया लोगों को इस क्लास में फेल होने का अनुभव था और उनका रिसल्ट हमारे माँ-बाप एक नज़ीर की तरह प्रस्तुत किया करते थे कि पढ़ोगे नहीं तो फलां-फलां भैया जैसे हो जाओगे। अब उस वक्त की मनः स्थिति को आखिर कैसे बयां करें कि वो मामुली सी आठवी की कक्षा किसी आईआईटी-जी और क्लैट जैसे एक्साम से कम नहीं जान पड़ती थी। सुबह पाँच बजे से मम्मी का पढ़ने के लिये उठा देना और लगातार सामने बैठ के पहरेदारी करना..ऐसा लगता था कि दुनिया का सबसे बड़ा कष्ट शायद यही है और हम ये सोचा करते कि बस एक बार ये आठवी पास हो जाये फिर तो ज़िंदगी में ऐश ही ऐश हैं..पर हमें तब क्या पता था कि लाइफ में आगे तो और बड़ी सर्कस है...जहाँ भोगोगे नहीं तो कुचल दिये जाओगे। भले हमें ये पता हो न हो कि इस तरह भागकर हमें आखिर पहुँचना कहाँ है..किंतु इस रेस में दौड़ते रहना ज़रूरी है। सुवह उठकर इन तकलीफों के अलावा एक सुखद चीज़ का अनुभव भी मिलता था और वो है खसखस-बादाम का हलुआ। जिसे हमारी माँ महज़ इसलिये खिलाया करती थी ताकि उनका बेटा भी इसे खाकर आइंस्टीन-न्यूटन जैसा बुद्धिमान बन सके। पता नहीं उनकी इस आशा पे आज हम कितना ख़रा उतर पाये....
लेकिन उन दिनों को आज भी मैं याद करता हूँ तो बड़ी ताजगी का अनुभव होता है...एक के बाद एक अलग-अलग कोचिंग क्लासेस अटेंड करने जाना। सर्दियों की सौंधी-सौंधी धूप में छत पे घूम-घूमकर किताबों का रट्टा लगाना..और नित नई-नई किंतु आसमानी उम्मीदों के साथ एक्साम देने जाना। सब कुछ बड़ा ही रोमांचक होता है..और प्रायः सभी इस उम्र से गुजरने वाले बालकों को इस अनुभूति से दो-चार होना पड़ता है। आज भले ही नवपीढ़ी अधिक साइंटिफिक और मॉडर्न हो गई हैं लेकिन उन आठवी-दसवी कक्षाओं की अनुभूतियां जस की तस हैं भले उनके लिबास कुछ बदल गए हैं। आज महत्वकांक्षाओं के पंख कुछ ज्यादा ही ऊंची उड़ान भरना चाहते हैं पर हमारी महत्वकांक्षाएं बस अपनी क्लास में टॉप करने तक सीमित थी..आज बच्चों को ये पता है कि उन्हें इस पढ़ाई से डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस बनना है हमें बस इतना पता था कि पढ़ने से बड़े आदमी बनते हैं..अब ये बड़ा आदमी कौन होता है ये तो आज तक समझ नहीं आया। लेकिन फिर भी अपनी इस युवावय में कोशिश यही बनी हुई है कि बड़े आदमी बनना है..आज इंसान की कीमत का सर्टिफिकेट यही 'बड़ा आदमी' होना हो गया है। एक ज़माने में व्यक्ति का परिचय ये कहकर दिया जाता था कि 'फलां इंसां भला आदमी है' पर आज लोगों की कीमत के मायने इस वाक्य से ज़ाया होते हैं कि 'फलां इंसा बड़ा आदमी हैं'। खैर जो भी हो उस कच्ची उम्र की वो नन्ही महत्वकांक्षाएं और उनके लिये की जाने वाली वो नादान कोशिशें बड़ी खूबसूरत हुआ करती थी जिनके लिये बारबार बच्चा बनने को जी चाहता है।
एक्साम के बाद वाली छुट्टियाँ भला किसे पसंद न आती होंगी...आज के इस फास्ट कल्चर के बीच समर वेकेशन के मायने काफी अलग हो गये हैं और अब इन छुट्टियों में भी तरह-तरह के समर कैंप, डांस-पैंटिंग-कराटे जैसी क्लासेस बच्चों के मत्थे मड़ दी जाती हैं पर पहले छुट्टियों का मतलब सिर्फ मामा-नानी का घर हुआ करता था। तपती दोपहर में नानी के हाथों बनी सत्तु, सिवैया या तरबूज जैसे जायकों से दिल और दिमाग को ठंडक पहुंचायी जाती थी। वही रात में गली-मोहल्लों के दोस्तों के साथ तरह-तरह के खेल खेले जाते थे।
मेरे बचपन के उस दौर में कंप्यूटर और अन्य थ्रीडी गेम्स की दस्तक नहीं हुई थी लेकिन विडियो गेम हालिया लांच हुआ था और बच्चों का उसपे जमकर भूत सवार रहा करता था। लगभग 1500 रुपये की कीमत वाले इस विडियो गेम की पहुंच भी अधिकतर घरों में नहीं थी और प्रायः हर छोटे कस्बे और नगरों में कई छोटी-छोटी दुकानें खुल गई थी जहाँ 4 रुपये प्रतिघंटे की दर से विडियो गेम खिलाया जाता था जिसमें भी कोन्ट्रा खेलने का चार्ज 5 रुपये प्रतिघंटे हुआ करता था..और बच्चों की लंबी-लंबी वैटिंग इन दुकानों में लगा करती थी। कोन्ट्रा, मारियो और निन्जा जैसे गैम्स काफी पापुलर थे..और गली-मोहल्ले के बच्चे इन गेम्स में अपनी-अपनी महारत का बखान बड़े चटकारे लेकर किया करते थे। यदि कोई साथी कोन्ट्रा की आठों स्टेज पार कर लेता या मारियो की तीसरी स्टेज में सीढ़ी से उतरती बतख से अपनी लाइफ बढ़ा लेता तो हमें लगता था कि मानो ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीत आया हो। ये सारे वाक़ये उसे ही समझ में आ सकते हैं जिसने इन गेम्स का लुत्फ़ उठाया हो।
उन गर्मियों की छुट्टियों के मायने हमारे लिये सिर्फ मस्तियां ही हुआ करती थी..कोई विशेष हुनर हासिल करने की जद्दोज़हद तो रहा ही नहीं करती थी। एक जो बड़ा फर्क तब और आज के वक्त में समझ आता है वो यही है कि पहले प्रसन्नता के लिये अधिक से अधिक जतन किये जाते थे पर आज सफलता के लिये सारी कोशिशें हैं। नानी का वो कच्चा घर, टूटा छज्जा और मिट्टी का बरामदा आज के इन आलीशान, संगमरमरी बंगलों से कई बेहतर और सुकून देने वाला था..उस टूटी खाट पे बड़ी चैन की नींद आती थी पर आज इन डल्लब के गद्दों पे भी अक्सर नींद कम और करवटें ज्यादा रहती हैं। वो चूल्हे की बनी रोटियां और चावल की खिचड़ी जिस तरह क्षुधा को तृप्त करती थी वो ताकत आज के पिज्जा, वर्गर और चाइनीज़ में कतई नहीं। बर्फ के गोले सा जायका, टॉप एंड टाउन और दिनशॉज की आइस्क्रीम में नहीं और न ही मॉल्स के फूड कोर्ट में वो लजीज़ स्वाद मिलता है जैसा तब रास्ते में बिकने वाले बुढ़िया के बाल और ठेले से जामुन खरीद के खाने में मिलता था।
हो सकता है तब ऐसा सिर्फ इसलिये हो क्योंकि हमारी दुनिया और समझ सीमित थी..पर उस सीमित दायरे सी प्रसन्नता क्या किसी वैश्वीकरण की व्यापकता से हासिल हो सकती है। बाहर से विस्तृत होकर भी हम अंदर से तो सिकुड़ ही रहे है..मोहल्ले की गलियाँ तो चौड़ी हो गई पर दिलों की तंगी कैसे दूर होगी?
जारी.........
मेरे बचपन के उस दौर में कंप्यूटर और अन्य थ्रीडी गेम्स की दस्तक नहीं हुई थी लेकिन विडियो गेम हालिया लांच हुआ था और बच्चों का उसपे जमकर भूत सवार रहा करता था। लगभग 1500 रुपये की कीमत वाले इस विडियो गेम की पहुंच भी अधिकतर घरों में नहीं थी और प्रायः हर छोटे कस्बे और नगरों में कई छोटी-छोटी दुकानें खुल गई थी जहाँ 4 रुपये प्रतिघंटे की दर से विडियो गेम खिलाया जाता था जिसमें भी कोन्ट्रा खेलने का चार्ज 5 रुपये प्रतिघंटे हुआ करता था..और बच्चों की लंबी-लंबी वैटिंग इन दुकानों में लगा करती थी। कोन्ट्रा, मारियो और निन्जा जैसे गैम्स काफी पापुलर थे..और गली-मोहल्ले के बच्चे इन गेम्स में अपनी-अपनी महारत का बखान बड़े चटकारे लेकर किया करते थे। यदि कोई साथी कोन्ट्रा की आठों स्टेज पार कर लेता या मारियो की तीसरी स्टेज में सीढ़ी से उतरती बतख से अपनी लाइफ बढ़ा लेता तो हमें लगता था कि मानो ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीत आया हो। ये सारे वाक़ये उसे ही समझ में आ सकते हैं जिसने इन गेम्स का लुत्फ़ उठाया हो।
उन गर्मियों की छुट्टियों के मायने हमारे लिये सिर्फ मस्तियां ही हुआ करती थी..कोई विशेष हुनर हासिल करने की जद्दोज़हद तो रहा ही नहीं करती थी। एक जो बड़ा फर्क तब और आज के वक्त में समझ आता है वो यही है कि पहले प्रसन्नता के लिये अधिक से अधिक जतन किये जाते थे पर आज सफलता के लिये सारी कोशिशें हैं। नानी का वो कच्चा घर, टूटा छज्जा और मिट्टी का बरामदा आज के इन आलीशान, संगमरमरी बंगलों से कई बेहतर और सुकून देने वाला था..उस टूटी खाट पे बड़ी चैन की नींद आती थी पर आज इन डल्लब के गद्दों पे भी अक्सर नींद कम और करवटें ज्यादा रहती हैं। वो चूल्हे की बनी रोटियां और चावल की खिचड़ी जिस तरह क्षुधा को तृप्त करती थी वो ताकत आज के पिज्जा, वर्गर और चाइनीज़ में कतई नहीं। बर्फ के गोले सा जायका, टॉप एंड टाउन और दिनशॉज की आइस्क्रीम में नहीं और न ही मॉल्स के फूड कोर्ट में वो लजीज़ स्वाद मिलता है जैसा तब रास्ते में बिकने वाले बुढ़िया के बाल और ठेले से जामुन खरीद के खाने में मिलता था।
हो सकता है तब ऐसा सिर्फ इसलिये हो क्योंकि हमारी दुनिया और समझ सीमित थी..पर उस सीमित दायरे सी प्रसन्नता क्या किसी वैश्वीकरण की व्यापकता से हासिल हो सकती है। बाहर से विस्तृत होकर भी हम अंदर से तो सिकुड़ ही रहे है..मोहल्ले की गलियाँ तो चौड़ी हो गई पर दिलों की तंगी कैसे दूर होगी?
जारी.........
कितना मिलता जुलता स हुवा करता था वो बचपन का दौर ...
ReplyDeleteआज इतना बदला हुआ है की हर किसी का बचपन उसका अपना ही हो के रह गया है ...
अच्छा लगा झांकना आपके साथ ...
धन्यवाद नासवाजी..अच्छा लगा ये जानकर कि मेरी कहानी आपको अपनी सी लगी।।।
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ReplyDeleteकोन्ट्रा खेलने का चार्ज 5 रुपये प्रतिघंटे हुआ करता था.......मैं एक रुपए का मोटा सिक्का डालकर टाणा णा णाणा टाणा णा णाणा वाली धुन से शुरु होनेवाला कौन्ट्रा बहुत खेलता था। वाकई भारतीय संस्कृति का मुकाबला पाश्चात्य या वैश्वीकरण की कुसंस्कृति तो कभी किया ही नहीं जा सकता। गलियों को चौड़ा करने के चक्कर में इंसानी दिलों की दूरियां बहुत बढ़ गई हैं। सुन्दर संस्मरण।
Deleteविकेश जी उस कोन्ट्रा और मारियो के आनंद का मुकाबला आज के 3D गेम्स कतई नहीं कर सकते..शुक्रिया इस प्रतिक्रिया के लिये।।
Deleteकितनी जानी पहचानी सी कहानी।
ReplyDeleteजी शुक्रिया :)
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