Tuesday, October 8, 2013

मेरे लिये 'द्रविड़' और 'सचिन' की विदाई के मायने..

चैंपियंस लीग T-20 का फाइनल मैच बरबस ही बेहद भावुक और अतीत की जुगाली के लिये मजबूर करने वाला बन गया। कहने को तो ये महज राजस्थान रॉयल्स और मुम्बई इंडियंस के बीच, 15 करोड़ की इनामी राशि वाली एक प्रतिस्पर्धा की जंग थी..किंतु इसके साथ ही ये मैच, दो महान् अंतर्राष्ट्रीय क्रिकटरों के एकसाथ मैदान पे खेलने का आखिरी लम्हा भी था। बस इसी वजह से इस मैच का परिणाम, एक भारतीय दर्शक होने के नाते बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता। दरअसल ये दो खिलाड़ियों की नहीं बल्कि क्रिकेट की दो प्रवृत्तियों की विदाई का वक्त था..और साथ ही ये पल मुझे इस बात का भी अहसास करा रहे थे कि मेरा बचपन अब वाकई ख़त्म हो चुका है..और ज़िंदगी के नये दौर में प्रविष्ट हो चुका हूँ।

संभवतः 1998 का उत्तरार्ध होगा, जबसे मैंने क्रिकेट देखना शुरु किया था क्योंकि इससे पहले तक दूरदर्शन पे मेरे पसंदीदा कार्यक्रमों की जगह यदि क्रिकेट आता था तो बड़ी चिड़ छूटती थी। उम्र महज़ दस साल..और इस उम्र में क्रिकेट के गहन शास्त्रीय ज्ञान होने का तो सवाल ही नहीं उठता। इसलिये क्रिकेट से ज्यादा खिलाड़ियों को देखा करते थे...अजय जड़ेजा, अजहरुद्दीन, सचिन, सौरव, राहुल, श्रीनाथ और कुंबले वाला दौर था..एक-एक कर सब विदा होते रहे, पर इन सबकी विदाई से कभी वो अहसास नहीं जागा जो अब पैदा हुआ है...क्योंकि तब तक हमेशा दिल को ये पता होता था कि सचिन, सौरव और राहुल तो है न। फिर इन सितारों ने भी एक-एक कर क्रिकेट के अलग-अलग फॉरमेट को अलविदा कहना शुरु कर दिया..तब थोड़ी टीस मन में पैदा हुई पर ये सुकून था कि ये आईपीएल जैसी प्रतिस्पर्धा में तो शिरकत करेंगे ही..पर अब इनकी इस बचे-खुचे क्रिकेट से भी विदाई हो रही है..और साथ ही बचपन की वो तमाम यादें, अब मस्तिष्क में आ ऊहापोह मचा रही है जो इन क्रिकेट सितारों से जुड़ी हुई हैं...इन यादों में कई ख़ुशी के पल हैं तो कई ग़म के भी। कई बार इन सितारों को सिर-आँखों पे बैठाया है तो कई बार इन्हें जमके गरियाया भी है। क्रिकेट कभी सचिन और द्रविड़ के बगैर भी हो सकता है ऐसा तो कभी स्वपन में भी ख़याल नहीं आता था।

1999 के वर्ल्डकप का वो पल..जिस वक्त टीम को अगले दौर में पहुँचने के लिये एक अदद जीत की सख्त ज़रूरत थी, तब सचिन अपने पिता के देहांत के बाद इंग्लैण्ड लौटके केन्या के खिलाफ बेहतरीन शतक लगाते हैं और टीम को जिताके अगले दौर में लेके जाते हैं..ऐसा लगता है मानों सचिन के करीब जाके उसके मस्तक को चूम लिया जाये। इस मैच में दूसरे छोर पे राहुल द्रविड़ ही खड़े थे और उन्होंने भी इस मैच में शतक लगाया था, यही नहीं इसके अगले मैच में गांगुली के साथ भी त्रिशतकीय साझेदारी में राहुल ने अपने करियर का उच्चतम स्कोर बनाया था। 2001 का कोलकाता टेस्ट भला किसे याद न होगा जिसमें वीवीएस लक्ष्मण के साथ रिकॉर्ड साझेदारी में द्रविड़ ने एक संयमित जीवटता के साथ बल्लेबाजी की थी और आस्ट्रेलिया के लगातार 16 टेस्ट विजय रथ को रोका था। ऐसी दर्जनों यादें इन दो महारथियों के साथ जुड़ी हुई हैं। 2003 के आस्ट्रेलिया दौरे में सचिन के आस्ट्रेलिया के खिलाफ लगातार तीन बार शून्य पे आउट होना.. जिस वक्त सारे देश में उनके रिटायरमेंट की नसीहतें दी जा रही थी लेकिन उसके बाद लाजवाब 241 रन की पारी जिसने सारे धुरंधरों की बोलती बंद कर दी थी। 2003 का वर्ल्डकप, 1998 का टाइटन कप तो सचिन की चर्चा के बगैर हमेशा ही अधूरा रहेगा। इसी तरह टेस्ट क्रिकेट में द वॉल के नाम से मशहूर द्रविड़ की उबाऊ मगर दमदार पारियाँ हर भारतीय क्रिकेटप्रेमी का सीना फ़क्र से ऊंचा करने वाली रही हैं।

मुझे अच्छी तरह याद है जब 2001 में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट रैकिंग में टॉप थ्री में सौरव, सचिन और द्रविड़ विराजमान रहा करते थे..और इसी वक्त गेंदबाजी में टॉप 20 में तक कोई नहीं था। उस दौर में भारतीय टीम की कमज़ोर कड़ी गेंदबाजी ही हुआ करती थी और इसी वजह से टीम को कई मैंचों में हारना पड़ता था..लेकिन तब भी सिर्फ इन तीनों की बल्लेबाजी देखने के लिये हम मैच देखा करते थे..और इन तीनों के आउट होने के बाद, इन्हें भला-बुरा कह टीवी बंद कर दिया कर देते थे क्योंकि हमने इन्हें एक आम इंसान मानना बंद कर दिया था और इनमें कोई दैवीय कल्पना हम कर बैठे थे। ऐसे में गर हमारा देव ही उम्मीदों पे ख़रा न उतरे तो गुस्सा आना स्वाभाविक था। स्कूल से बंक मारना, सड़कों पे घंटो किसी दुकान पे खड़े-खड़े मैच देखना या इनकी बल्लेबाजी देखने के लिये खाने-पीने की सुरत भी भूल जाना..ये सारी चीज़ें इन सितारों की वजह से थी।

युवराज, सहवाग, जहीर, हरभजन जैसे सितारे जब शैशव अवस्था में अपनी क्रिकेटीय पारी की शुरुआत कर रहे थे तब ये पुरोधा शिखर पे स्थापित थे...और युवराज, धोनी, सहवाग की चमक के काल में भी हम हमेशा सचिन, द्रविड़ के रिकॉर्ड बनने की दुआ किया करते थे। उस नाजुक उम्र में ये सितारे, महज खिलाड़ी नहीं बल्कि घर-मोहल्ले के सदस्य जैसे लगा करते थे...और अब जबकि इनकी विदाई होते देख रहे हैं तो दिल को ये यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि अब टेस्ट क्रिकेट में लड़खड़ाती पारी को संभालने कौन संकटमोचन आयेगा..या किसके स्क्वैयर ड्राइव या स्वीप शॉट देख के हम तालियाँ बजायेंगे। यद्यपि ये सच है कि किसी के जाने से कुछ नहीं रुकता..और शो चलता रहता है। कल इनके भी रिकॉर्ड टूटेंगे, कल कोई इनसे भी बेहतर खेलने वाला आएगा और नये सितारों की चमक में ये पुराने सितारे धूमिल हो जायेंगे..लेकिन मेरे या मेरी पीढ़ी के उन तमाम दर्शकों के लिये अब किसी भी क्रिकेटर की चमक, चाहत पैदा नहीं करेगी क्योंकि हमारे ज़हन में ये सितारे अपनी चौंधियाती आभा और रोशन छवि बिखेरे हुए हैं..अंतस का एक हिस्सा इनकी विदाई के साथ ही मुरझा जायेगा क्योंकि हृदय के उस हिस्से ने सिर्फ इन्हें ही चाहा है..हमारे लिये क्रिकेट की परिभाषा सचिन और द्रविड़ से अलग हो ही नहीं सकती। 

अंत में दो पंक्ति याद कर अपनी बात ख़त्म करूंगा..
तुम्हारे जाने से, अब एक वरक् पलट जायेगा।
वो एक आसमाँ, कहीं से सरक जायेगा।।

10 comments:

  1. क्रिकेट में हमारी दिलचस्पी सिर्फ जीतता हुआ मैच देखने तक है.....इसलिए पोस्ट पर कोई ख़ास कमेंट नहीं...हाँ सचिन की जगह सदा खाली रहेगी...आख़री दो पंक्तियों के लिए शाबाशी कबूलो :-)

    अनु

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    1. धन्यवाद अनुजी..आपकी शाबासी अति विनम्रता से कबूल रहा हूँ।।।

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  2. सचिन की जगह सदा खाली रहेगी..

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    1. एकदम सही...शुक्रिया प्रतिक्रिया हेतु।।।

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  3. क्रिकेट जगत में सचिन का नाम सदैव अमर रहेगा .!

    RECENT POST : अपनी राम कहानी में.

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  4. मै भी संभवतः ऐसा ही कुछ व्यक्त करता ......सुन्दर आलेख ......

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    1. मेरे खयाल से हर क्रिकेट प्रेमी के ऐसे ही मनोभाव होंगे..शुक्रिया आपका।।

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  5. दोनों ही अपनी अपनी विधा के धुरन्दर..

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