Saturday, January 25, 2014

मेरी प्रथम पच्चीसी : पांचवी किस्त

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(अपने जीवन की यात्रा का विवरण प्रस्तुत कर रहा हूँ..बहुत हद तक स्वांतसुखाय लिखा गया ये स्मरण, वास्तव में स्वयं की प्रेरणा के लिये है पर कुछ संघर्ष ऐसे हैं जो शायद किसी ओर के लिये भी प्रेरक साबित हो सके...जिंदगी के कुछ हिस्सों में भरपूर लफ्फाजी है तो कुछ बेहद ट्रेजिक लम्हों से भी दो चार हुआ। जो लम्हें रंगीन हैं वो यकीनन आप के बचपन की नटखट हरकतों को ताज़ा करेंगे लेकिन जो यादें त्रासदियों से लबरेज़ हैं वो एक हौंसले का संचार करेंगी, ऐसी मेरी आशा है...गुजश्ता किस्तों में काफी कुछ कह चुका हूँ अब उन पलों से आगे बढ़ने का वक्त है। हालांकि जैसा में पहले भी कह चुका हूँ कि सब कुछ कह पाना नामुमकिन है पर कम कहे गये में सबकुछ को समेटा ज़रूर जा सकता है..बस आप अल्फाज़ की जगह अहसास पढ़ने की कोशिश कीजिये)

गतांक से आगे-

कक्षा आठ की परीक्षा देने के बाद हर बार की तरह इस बार भी नानी के यहाँ छुट्टी मनाने गया था...जैसा कि बता चुका हूँ नानी के यहां जाना बड़ा ही रोमांचक हुआ करता था पर वहाँ एक हद तक ही मन लगता था उसके बाद वापस अपने गाँव लौटने की तलब मचा करती थी...लेकिन कुछ नाटकीय घटनाचक्र के कारण इस बार कि मेरी छुट्टियां लंबी होने जा रही थी...दरअसल अब मैं छुट्टियों के बाद वापस अपने घर लौटने वाला नहीं था और कक्षा नवमी में मेरा प्रवेश मेरे ननिहाल मतलब छिंदवाड़ा में ही होने जा रहा था। यह एक अहम् परिवर्तन था इसलिये थोड़ी घबराहट थी पर कुछ एडवेंचरर्स जैसी अनुभूति भी थी इसलिये थोड़ा जोश भी था.. लेकिन ये जोश कुछ हफ्तों में ही फ़ना हो गया और फिर उस जगह रहना मेरे लिये बस एक भार जैसा लगने लगा..धीरे-धीरे आत्मविश्वास भी मुरझाने लगा। कल तक जो मैं अपने आपको गाँव का शेर मानता था पर अब इस शहर में आकर अपने यथार्थ का भान हुआ और खुद को सब से काफी पिछड़ा महसूस किया और शायद इसी वजह से अब यहाँ स्कूल जाना, दोस्त बनाना, उनसे मिलना, पढ़ाई करना सब कुछ एक बोझ की तरह महसूस होने लगा। 

अपने आत्मविश्वास के कम होने का एक और कारण शायद नानी के घर के आर्थिक हालात भी थे  जिसके कारण मैं अपने संगी-साथियों में खुद को दीन-हीन महसूस करता था..जबकि अपने पैतृक निवास पे मैंने आला दर्जे की संपन्नता देखी थी पर यहाँ एकदम उल्टा ही था। स्वयं के तत्कालीन अहसासों की समीक्षा करता हूँ तो समझ आता है कि आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियां किस तरह से बालमन की बुनावट करती हैं और बचपन की उन अनुभूतियों के फलस्वरूप ही किसी व्यक्तित्व का निर्माण होता है...गोया कि बाहरी माहौल, आंतरिक वातावरण को आकार देता है जबकि ऐसा होना उचित नहीं माना जा सकता क्योंकि अंतर के वैचारिक परिवेश का निर्माण सद्ज्ञान और संस्कारों से होना चाहिये और उस आंतरिक परिवेश के अनुरूप हमें बाहरी वातावरण तैयार करना चाहिये। 

छिंदवाड़ा की इस भूमि पे रहते हुए एक और दुखद वाक़या मेरे साथ हुआ जब एक खेल के दौरान पेड़ पे से गिरने के कारण मेरे दोनों हाथ फ्रैक्चर हो गये और तकरीबन डेढ़ माह तक हाथों पर चढ़े प्लास्टर के कारण मैं उन सारे कामों से महरूम था जिनमें हाथों की ज़रूरत पड़ती है। उन पलों की अनुभूति बयाँ कर पाना ख़ासा मु्श्किल है पर ये समझ लीजिये कि जब महीने भर बाद मेरे प्लास्टर के खुलने की तिथि आई और एक्सरा रिपोर्ट में गड़बड़ी के चलते, उस प्लास्टर के खुलने की डेट को जब एक हफ्ते बढ़ा दिया गया..तो उस आगे बढ़े एक हफ्ते का वक्त मेरे लिये एक सदी के बराबर जान पड़ा था। कई बार ये सोच के अफसोस होता है कि हमें उपलब्ध चीज़ों की कीमत कभी समझ नहीं आती...न हम हाथों की कीतत समझते हैं न आँखो की, यहाँ तक की इस अनमोल जीवन की महत्ता का ख़याल भी हमें कभी नहीं आता। लेकिन ज़िंदगी के उन पलों ने मुझे कम उम्र में ही काफी कुछ सिखाया...इस कारण मुझे उन लम्हों से कोई शिकायत नहीं है और कहीं न कहीं उन लम्हों का ही योगदान है कि मैं जीवन में आने वाली आगामी विषमताओं के सामने मजबूती से खड़ा रहा। इस दौरान मेरा संघर्ष जो था वो अपनी जगह है पर मेरी नानी का मेरे लिये किया गया संघर्ष भी कुछ कम नहीं था..उन डेढ़ माह तक उनका जीवन सिर्फ मुझ तक केन्द्रित हो गया था..क्योंकि मैं इस कदर लाचार और निहत्था था कि मैं अपनी दिनचर्या की मौलिक चीज़े करने के लिये भी नानी का मोहताज़ बन गया था। नानी का मेरे लिये किये गये उस दौर के बर्ताव और समर्पण का मूल्य मैं किन्ही शब्दों से बयां नहीं कर सकता।

बहरहाल, इन कुछेक त्रासद पलों के अलावा कुछ बड़े ही रंगीन और महत्वपूर्ण जज़्बातों से भी मैं दो-चार हुआ..जिसमें सबसे ज्यादा अहम् चीज़ जो इस भूमि से मुझे मिली वो थी सांध्यकालीन पाठशाला। जिसमें भाग लेने हम हर शाम मंदिर जाया करते थे..इसने सद्ज्ञान, सत्चरित्र और संस्कारों का ऐसा बीजारोपण मुझमें किया जो ताउम्र मेरे चरित्र की मजबूती का आधार बना हुआ है। दरअसल, यह पाठशाला अधिकारिक तौर पे मेरी पहली धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षा का सोपान थी...बाद में ऐसे कई सोपानों से गुज़रते हुए मैंने आध्यात्मिक शिक्षा के शिखर तक की सैर की किंतु उस प्रथम सोपान की नींव को भुला पाना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा मेरे दोस्त के घर में स्थित छोटे से ग्राउंड में हर शाम चार बजे क्रिकेट खेलने जाने का अपना अनुभव था...हर रोज़ मैं चार बजने का इंतज़ार किया करता, किसी दिन यदि मामा मुझे अपनी दुकान पे बैठा के बाहर चले जाते और इसी बीच क्रिकेट का टाइम हो जाता तो मन में अपने मामा को भी भला-बुरा कहने से नहीं चूकता था। क्रिकेट की इनकी रंगीनियों के अलावा हर सुवह कोचिंग को जाना, गवर्नमेंट कॉलेज में दोस्तों के भद्दे और अश्लील चुटकुलों को सुनना, चाहे जिसकी शादी-विवाह के फंक्शन में जाके तरह-तरह के व्यंजन खाना, स्कूल बंक करके पार्क में बैठना और न जाने ऐसे कितने तरह के अनोखे और मजेदार अनुभव थे जिनसे मैं पहली बार गुज़र रहा था...लेकिन इन अनुभवों से गुज़रते हुए मेरे अंदर एक व्यक्तित्व का सतत् निर्माण हो रहा था।

ये दौर 2000-2001 के दरमियां का है...नई सदी में दुनिया प्रविष्ट हो चुकी थी और मैं भी अहसासों की नई कशिश को महसूस कर रहा था। मेरे लिये ये जीवन का वो दौर था जब बचपनें ने पूरी तरह मेरा दामन नहीं थामा था और जवानी ने अब तक दस्तक नहीं दी थी..लेकिन अंदर ही अंदर कुछ तो बदल रहा था..और उस बदलाव के चलते कुछ विद्रोही जज़्बात रुह में दस्तक दे रहे थे तो कई रुमानी ख़यालों से भी दो चार होने लगा था..लेकिन उन नादान जज़्बातों में भटकने की सर्वाधिक संभावना थी..ऐसे में संगति सर्वाधिक असर करती है। जो उन जज्बातों को अपने अनुरूप आकार देने का माद्दा रखती है..खैर इन जज़्बातों का विवरण आगे की किस्तों में दूंगा..फिलहाल इन्हें स्किप कर आगे बढ़ता हूँ।

भारत-आस्ट्रेलिया की ऐतिहासिक टेस्ट श्रंख्ला गतिमान थी..हरभजन की हैट्रिक और लक्ष्मण-द्वविड़ की शानदार पारियों की बदौलत आस्ट्रेलिया के विजयरथ को रोककर इंडिया चहुंओर कीर्ति अर्जित कर रही थी...लेकिन मैं इन खुशियों में डूबा हुआ होने पर भी वापस अपने घर लौटने को बेचैन था...अपने उसी गांव जहाँ घर के पीछे एक बूढ़ा आम का पेड़ है, जहां दादी के पलंग के पास सुलगती सिगड़ी है, जहां हरे-भरे खेत और उबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते हैं, जहां कंचे, गिल्ली-डंडा और एक टूटा हुआ क्रिकेट का बल्ला है...मैं वहीं लौट जाना चाहता था...मेरे माँ-बाप के लिये मेरा वापस लौटना कहीं न कहीं मेरे उन्नत भविष्य के टूटने की तरह था..मेरे विकास की राह में रोड़ा था...पर बचपन कहाँ विकास चाहता है वो तो सिर्फ खुशी चाहता है..और वो खुशी यदि बैलगाड़ी, टूटे हुए खिलौनों और कच्ची पगडंडियों में मिल रही हो तो भला कौन हवाईजहाज, शॉपिंग मॉल और विदेश भ्रमण की आरजू करे???

ज़ारी............

Saturday, January 18, 2014

गपोढ़ अल्फाज़ और अधेड़ अहसासों की 'डेढ़ इश्किया'

'हर किसी को आज़ादी पसंद होती है लेकिन उस आज़ादी के लिये किसी न किसी को तो कीमत ज़रूर चुकानी होती है'...लगभग ऐसे ही किसी गंतव्य तक पहुंचने का प्रयास करती अभिषेक चौबे निर्देशित और विशाल भारद्वाज निर्मित 'डेढ़ इश्कियां' देखी। हालांकि विशाल भारद्वाज की छाया इस फ़िल्म पे पड़ी हुई है इसलिये किसी सार्वभौमिक कथ्य तक पहुंचने की आशा आप नहीं कर सकते...क्योंकि मासुमियत और गहन बौद्धिकता के बीच फंसे इस फ़िल्मकार के कथानक को देख लोग इसे अपने-अपने ढंग से विश्लेषित करते हैं..और विश्लेषण के पश्चात सबके अपने-अपने ही निष्कर्ष होते हैं। वैसे ये विशाल से ज्यादा अभिषेक की फ़िल्म हैं इसलिये आप मनोरंजन और अर्थों की कुछ नई परतें इस सिनेमाई कलेवर से उखाड़ सकते हैं। मनोरंजन के लिये इस फ़िल्म की गपोढ़ संवादगी और अर्थों की खोज के लिये इसके अधेड़ पड़ चुके जज्बातों की उधेड़बुन की जा सकती है..कुछ इन्हीं वजहों से ये सिनेमा के पारंपरिक मनोरंजन से दूर हो ऑफबीट फ़िल्म होने का दंभ भर सकती है...किंतु फिल्म का ट्रीटमेंट, सिनेमेटोग्राफी और कुछ ऐसी ही दूसरी चीज़ें इसे मुख्यधारा के सिनेमा में धकेल देती हैं।

इंसान के रुहानी जज़्बातों की विविध परतों और तकरीबन बूढ़े हो चुके अहसासों को..समाज की रिवाज़ी बंदिशों से आज़ाद कर एक नया आसमान देने की कोशिश अभिषेक चौबे ने की हैं...यूं तो फ़िल्म का मनोरंजन पक्ष ज्यादा मुखर है इसलिय फ़िल्म के कुछ कंट्रोवर्सियल मायने चुप्पी साधे रहते हैं। खासतौर से वर्तमान के इस दौर में जहाँ देश की एक कोर्ट द्वारा समलैंगिकता को बड़ा अपराध बताया गया है, धारा-377 पर राजनीतिक गहमागहमी ज़ारी है.. उसी दौर में ये फ़िल्म बड़ी खामोशी से उन रिश्तों की पैरवी करती नज़र आती है। निर्देशक ने फिल्म में बेहद संवेदनशील दृश्यों को इस चतुराई से फिल्माया है कि अंत तक उस रिश्ते के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता...पारा ज़ान(माधुरी) और मुनिया(हुमा कुरैशी) के आपसी संबंधों को जिस असमंजसपूर्ण स्थिति के साथ फिल्मकार ने प्रस्तुत किया है वो भारतीय समाज के अंदर बहुत बड़े विवाद की वजह माने जाते हैं किंतु फिल्मकार के प्रस्तुतिकरण का तरीका इतना ज्यादा डिप्लोमेटिक है कि विवाद करने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। जबकि इसी रिश्ते के बिंदास प्रस्तुतिकरण के चलते मीरा नायर की 'फायर' विवादास्पद बन जाती है। 

पारा और मुनिया के रिश्ते की पृष्ठभूमि निर्मित करने की जो वजह फिल्मकार ने दी है उसके चलते दर्शकों को भी इस रिश्ते के साथ हमदर्दी हो जाती है। इस रिश्ते की वजह भी पारा के शौहर का समलैंगिक होना बताया गया है...और अपने शौहर की इन अय्याशियों के चलते ही पारा की ज़िंदगी में तन्हाई है और पारा ज़ान को उस तन्हाई को दूर करने का ज़रिया किसी मर्द के नहीं बल्कि एक औरत के प्रेम में ही नज़र आता है। अपने पति की अय्याशियां और उनके समलैंगिक संबंध पारा के मन में सारे मर्द समाज के लिये ही नफ़रत का बीज़ बो देते हैं और पुरुष की इन स्वछंद हरकतों के खिलाफ ही उसकी जंग है..उसका बदला किसी मर्द को ठगने से पूरा होगा जिससे वो अपने स्वछंद आनंद के पैमाने निर्धारित कर सकें, उस आनंद को जी सके।

एक खास बौद्धिक वर्ग को  ये रास्ता महिलासशक्तिकरण के दरबाजे पे दस्तक की तरह नज़र आयेगा..जहाँ ये स्त्री द्वारा अपनी आजादी और आनंद के लिये किये गये संघर्ष का ही एक रूप माना जायेगा...और इसे वे स्त्री का तिरियाचरित्र न कह 'Survival of Fittest' कहना ज्यादा पसंद करेंगे। एक स्त्री अपने शरीर को मर्द को सौंपते वक्त भी अपना ही उल्लु सीधा कर रही है और संभोग उपरांत उस मर्द को भी ये संशय बना हुआ है कि उसने स्त्री का इस्तेमाल किया है या वो खुद स्त्री द्वारा इस्तेमाल किया गया है...अबसे पहले औरत की इज़्जत को दैवीय रूप देकर हमेशा उसे पुरुष के समक्ष दबाने की कोशिश की गई है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि औरत, चाहकर भी पुरुष की आबरु नहीं लूट सकती किंतु पुरुष ऐसा कर सकता है।

एक औरत द्वारा अपने भ्रम का आभामण्डल रचा जाता है और उस आभामण्डल की चमक के चलते ही कई नवाब अपने हुनर की पेशगी उसे पाने के लिये करते हैं...एक अधेड़, बीमार और अवसाद ग्रस्त महिला अपनी चालाकियों से दिग्गज मर्दों को बेवकूफ बनाती है..और उन अधेड़ मर्दों के बुढ़या चुके अहसासों को भी जवान बनाती है, उनमें नये अरमान जगाती है। इन तमाम कारगुज़ारियों के दरमियां परदे पे हमें मर्दों की विशाल महफिल के बीच सिर्फ एक औरत ही इंटेलीजेंट नज़र आती है अन्यथा हिन्दी सिनेमा का सुर तो हमेशा से औरतों को 'क्यूट' कह कर उनकी बेवकूफी की बिक्री करने वाला ही रहा है। वास्तव में पुरुष अपनी कमतरी को छुपाने के लिये ही साहित्य-सिनेमा और समाज में उन रिवाज़ों को जन्म देता है जिससे स्त्री अबला नज़र आती है अन्यथा प्राकृतिक तौर पे स्त्री, परुष की तुलना में अधिक मजबूत और हुनरमंद रही है। 'डेढ़ इश्किया' कहीं-कहीं नारी की उस सशक्तता का ऐलान करते नज़र आती है। एक अन्य अहम् बात जो इस सिनेमा में देखी जा सकती है कि फ़िल्म में तकरीबन तमाम किरदार अधेड़ उम्र के हैं लेकिन उनमें मोहब्बत के जज़्बात और इश्क पाने की हसरत अब भी जवां बनी हुई है..इन अहसासों की लुका-छिपी के बीच ही आला दर्जे की मूर्खता पैदा होती है और यही मूर्खता दिल को बच्चा बनाये रखती है। जिस बात को इस फ़िल्म के पिछले संस्करण में एक गीत के ज़रिये दर्शाया गया था।

बहरहाल, बेहतरीन अभिनय, शानदार संवाद एवं शायरियां, उम्दा निर्देशन, बढ़िया सिनेमेटोग्राफी और नवाबी कल्चर के दीदार करने की आरजू है तो डेढ़ इश्कियां एक अच्छा विकल्प है। हालांकि इस फ़िल्म की टारगेट ऑडियंस बहुत ज्यादा युनिवर्सल नहीं हैं पर आप थोड़ा भी शायराना और आशिकाना मिज़ाज रखते हैं तो 'डेढ़ इश्कियां' आपको निराश नहीं करेगी..और जैसा कि बताया कि ये विशाल भारद्वाज के बैनर तले बनी फिल्म है तो विशाल की फ़िल्मों में आपको ऐसी एक-आध चीज़ मिल ही जाती है जो आपके पैसे वसूल करवा देती है। लेकिन साथ ही ये भी याद रखें कि चुंकि ये भारद्वाज बैनर की फ़िल्म हैं तो आप बिना किसी निष्कर्ष के ही सिनेमाघरों से बाहर आयेंगे...क्योंकि दर्शकों को निश्कर्ष तक पहुंचाने से विशाल की यूएसपी प्रभावित होती है और अपनी यूनिकनेस के साथ समझौता करना विशाल को कतई पसंद नहीं आएगा........

Tuesday, January 14, 2014

मानव विकास सूचकांक बनाम सकल राष्ट्रीय खुशहाली (सौवी पोस्ट)

कुछ दिनों पहले प्रदर्शित हुई फिल्म 'लंचबॉक्स' में, अर्थशास्त्र में पढ़ाई जाने वाली एक महत्वपूर्ण अवधारणा "सकल राष्ट्रीय खुशहाली(Gross National Happiness)" की चर्चा काफी महत्वपूर्ण अर्थ को संप्रेषित करने के लिये की गई थी। हालांकि विश्व के सारे देश अपनी उपस्थिति एक उन्नत राष्ट्र के रूप में दर्ज कराने के लिये..आज "मानव विकास सूचकांक(Human Development Index)" के ऊंचे नंबरों की तरफ ललचायी निगाहों से देखते हैं...लेकिन मानव विकास सूचकांक के बादशाहत के इस काल में लोगों की खुशी को, समृद्धि का पैमाना बताने वाली "सकल राष्ट्रीय खुशहाली" की ये अवधारणा आज अच्छे खासे विकसित राष्ट्रों को भी सोचने को मजबूर कर रही है।

एक बेहद छोटे से राष्ट्र भूटान ने स्वयं की समृद्धि का पैमाना उन चीज़ों को बनाया..जो असल में इंसान और प्रकृति के सामंजस्य के साथ खुशहाल जीवन का प्रतीक हैं। प्रकृति को रौंदते हुए, उसका चौतरफा शोषण करते हुए आगे बढ़ने की तमाम विकास की नीतियों को, इस छोटे से देश ने नकार दिया...और अपने मूल्यों की रक्षा करते हुए, सांस्कृतिक दायरे को बरकरार रखते हुए तथा प्रकृति और पर्यावरण की दैवीयता के संरक्षण के साथ, इस देश ने हर चीज़ से पहले मानवमात्र की खुशी को चुना। सकल राष्ट्रीय खुशहाली हेतु जो मानक तय किये गये हैं उन्हें देखकर ये कहा जा सकता है कि लंबे समय तक के लिये सतत् पोषणीय विकास (Sustainable Development) इस ही रास्ते पे चलकर संभव है।

एक तरफ जहाँ "मानव विकास सूचकांक(HDI)" लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि(Purchasing Power), साक्षरता दर(Literacy rate) और जीवन प्रत्याशा(Life Expectancy) जैसे मानकों को विकास का पैमाने मानता हैं...तो दूसरी तरफ "सकल राष्ट्रीय खुशहाली" में अच्छी आय के साथ अच्छा अभिशासन, पर्यावरणीय संरक्षण और सांस्कृतिक प्रोत्साहन जैसे मानक शामिल किये गये हैं। निश्चित ही HDI में सम्मिलित किये मानक विकास हेतु  काफी अहम् है पर उन मानकों को हासिल कर लिये जाने के बावजूद भी मानव अपनी संतुष्टि से कोसों दूर है उल्टा वह अब कुछ ज्यादा ही असंतुष्ट हो गया है। अमेरिकन-यूरोपियन देश आज इंफ्रास्ट्रक्चर, शिक्षा, टेक्नॉलाजी, चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में संपूर्ण विश्व से काफी आगे हैं पर बावजूद इसके इन देशों की जनता अपनी तीव्रतम आकांक्षाओं के चलते घोर असंतुष्टि का जीवन जीने को मजबूर है। भौतिकवादी आग की लपटों में ये देश इस कदर झुलसे हैं कि वे किसी आईफोन, आईपॉड के लांच होने पे अपने शरीर के अंग बेचने के लिये या फिर सैक्सुअल डिजायर की तीव्रतम ख्वाहिश के चलते हर निकृष्टतम तरीकों को अपनाने तक के लिये तैयार हैं। 

पर्यावरण की बलि चढ़ाकर, इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत किया जा रहा है...भावनाओं को कुचलकर तकनीक एडवांस हो रही है..रिश्तों का गला घोंट कर प्रति व्यक्ति आय और क्रय शक्ति भी बढ़ रही है...शिक्षा का प्रसार हो रहा है पर दुर्भावनाएं और विसंगतियां कम नहीं हो रही..चिकित्सकीय सुविधाएं जीवन प्रत्याशा को भी लंबा कर रही है पर वो श्वांसे कम होती जा रही हैं जिनमें खुशी बसर करती हो। लेकिन इन सभी चीज़ों को विसरा कर सिर्फ झूठे आंकड़ों के आधार पे हरकोई खुद को महान् साबित करने का राग आलाप रहा है।

सकल राष्ट्रीय खुशहाली (GNH) और मानव विकास सूचकांक (HDI) के अंदर जो सबसे बड़ा फर्क है वो यही है कि जहाँ GNH में सांस्कृतिक प्रोत्साहन का समावेश किया गया है तो दूसरी ओर HDI में इसके लिये कोई अवकाश नहीं है। सांस्कृतिक प्रोत्साहन के अंदर कई मूल्य आधारित (Value Based) बातों को शामिल किया गया है औऱ ऐसा कहा जाता है कि 'जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का समावेश किये बिना प्रगति वरदान के बदले एक अभिषाप बन सकती है।' बहुत हद तक कई पश्चिमी देशों में ऐसा देखने को भी मिल रहा है...जहाँ बच्चे अपने स्कूल-कॉलेज के बैग में किताबों के साथ पिस्तौल लेकर भी निकलते हैं, जहाँ शादी की तिथि के साथ ही तलाक की डेट तय हो जाती है, जहाँ परिवार जैसी संस्था का पूर्णतः अभाव है, जहाँ बच्चे लोगों के लिये शारीरिक सुख में एक बड़ी बाधा हैं...जहाँ धर्म-दर्शन की बातें आत्मिक शांति से ज्यादा सिर्फ स्टेटस सिंबल बनकर रह गई हैं। इंद्रियजनित सुख की तलाश में जहाँ आध्यात्मिक सुख और संस्कार हासिये पे फेंक दिये गये हैं...और इंसान गहन असंतुष्टि में रहने के बावजूद अपने विनाश को ही विकास मानकर तालियां पीटे जा रहा है।

भूटान जैसे छोटे से देश की इस अवधारणा के बारे में जब भी चिंतन करता हूँ बड़ा आनंद महसूस होता है और मैं खुद को और अपने आसपास के माहौल को भी HDI के बजाय GNH के मानकों पर आंकने का ही प्रयास करता हूँ..पर कई बार मुझे अपने आसपास चल रही पश्चिम की हवाओं को और लोगों को उसके प्रभाव में मस्त देख काफी निराशा सी महसूस होती है..लेकिन उसपे अपनी जुवां बंद ही रखनी पड़ती हैं क्योंकि अपने मूल्यों की समझाईश यदि मैं लोगों को दूंगा तो महफिल के अंदर सबसे ज्यादा हंसी का पात्र मैं स्वयं ही बनूंगा...और बस इसलिये होंठों पे एक दर्दभरी मुस्कान लिये आगे बढ़ जाता हूँ और लोग मुझे खुश मानकर मानव विकास सूचकांक के मानकों के अनुसार ज्यादा नंबर दे देते हैं...........