Friday, February 22, 2013

क्या इस हिंसा के ताण्डव का कोई अंत है....?


हैदराबाद दहल रहा है। आतंक के राक्षस ने इस हाईटेक होते शहर को मूंह चिढ़ाया है "कि बेटा देखते है तरक्की की कौन-सी इबारत तुम्हें दर्द से बचा सकती है"। 2008 के सिलेसिलेवार हमलों की यादें आज भी जहन में करवटें बदलती रहती हैं...तब हैदराबाद को बख्श दिया गया था..पर आतंक ने इस बार अपनी वापसी के लिए इस आधुनिक होते और सांस्कृतिक ढंग से जीने वाले शहर को चुना है। शायद ये मुंबई के ताज होटल पे हुए हमले से बड़ा नहीं है..और नाही इसे संसद के हमले के समतुल्य आंका जाएगा। लेकिन फिर भी इन हमलों की आवाज देश के और सत्ता के गलियारों में गूंजती जरूर है..ये बात अलग है कि उस गूंज को भुलाने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। अफजल और कसाब को फांसी दी तो क्या हुआ..आतंक के मोहरे अभी और भी है। मोहरों को मार गिराने से उस विचार का क़त्ल नहीं होता..जो जिंदगी की बिसात पे इन मोहरों का प्रयोग करता है।

विकास चौमुखी नहीं है, पर इस देश में आतंक के तमाचे चारों ओर बरस चुके हैं। धर्म, संस्कृति, जाति, भाषाओं में बंटे इस देश की आतंक के दर्द से निकली आह एक है। सामाजिक असमानताओं के बावजूद सभी के आंसु समान है..विषमताओं की सरहदें अनेक हैं पर त्रासदियों के जख्म एक हैं। सच, अनेकता में बंटी इस दुनिया में आंसु और खुशी कितने धर्मनिरपेक्ष और साम्यवादी होते हैं। 

मीडिया आंक रहा है कि संसद, ताज या मुंबई लोकल ट्रेन जैसे कई हमलों में से ज्यादा शर्मनाक कौन सा है...पर अफसोस इसका जबाव तलाश पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि हमने भुकंप को, बरसात को, तापमान को या शरीर के ज्वर को नापने वाला स्केल तो बना लिया है पर भावनाओं को नापने वाला स्केल अभी विकसित कर पाना बाकी है। त्रासदी और दर्द को आखिर किस थर्मामीटर से नापें? 

लगातार होने वाले ये आतंकी हमले इंसानों के साथ-साथ हमारी संवेदनाओं को भी मार रहे हैं। अब धमाकों की ख़बर हमें विचलित नहीं करती, न दिल में कोई टीस उठती है इन ख़बरो को सुनना अब हमारी आदत बन चुका है। हर हमले के बाद वही नेताओं के भाषण, न्यूज चैनल के रिपोर्टरों द्वारा अलग-अलग एंगल से लोगों का दर्द दिखाना, अखबार के प्रख्यात स्तंभकारों द्वारा संपादकीय लिख देना या मेरे जैसे लेखन रुचि वाले लोगों द्वारा ब्लॉग या डायरी का कुछ स्पेस घेर लेना जस का तस होता है। हालात नहीं बदलते। बौद्धिक बयानबाजियों, तिकड़मी आरोप-प्रत्यारोपों के कलेवर बदलते हैं भौगोलिक परिवेश में फर्क नहीं आता। कुछ समय बाद धमाके की गूंज वायुमण्डल में कहीं खो जाती है और इंतजार होता है अगले बवण्डर का....

बड़े-बड़े जुलूस निकालकर, चौराहों पर प्रदर्शन कर नेताओं को गाली दी जाती है...लोगों को जागने के लिए कहा जाता है...पर सवाल ये है कि बेचारा आम आदमी जागकर कर क्या लेगा, उसके पास वोट डालकर नेता चुनने के अलावा और अधिकार ही क्या है...उसे मेहनत-मजदूरी कर दो वक्त की रोटी और अपने बच्चों की मांग पूरी करने से फुरसत मिले तो वो सड़कों पर आए। वो बेचारा इन मजबूरियों के साथ अपनी जिंदगी को चलाने की जुगत में ही लगा होता है और ये आतंक उसकी जिंदगी को ही थाम देता है...यहां सिर्फ उस एक इंसान की जिंदगी में ही भूचाल नहीं आता..फर्क उस पूरे परिवार पर पड़ता है जो जिंदा होकर भी जिंदा नहीं रह जाता।

उस आम आदमी की समस्या महंगाई, बेरोजगारी या गरीबी से भी बड़ी है उसके सामने अपनी मूलभूत सुरक्षा का प्रश्न है। जिंदगी का प्रश्न है। वो अपनी इस असुरक्षा के लिए किसे उंगली दिखाए ये उसकी समझ से परे है। दीमक कहीं लगी है और खोखला कोई और हो रहा है। आतंकवादियों को क्या नसीहत दी जाए, उन्हें जहां से नसीहत मिलती है वो चीज बहुत बड़ी है। उनकी मगरमच्छ की खाल को शब्दों से नहीं भेदा जा सकता। उनका ज़मीर ही उन्हें नसीहत दे सकता है।

सुना था कि कलयुग का रूप बड़ा भयावह होगा पर इतना भयावह होगा ये अंदाजा नहीं था। इस समस्या को सुलझाने की तरकीब हमारे पास नहीं है, इस समस्या का समाधान भी उन दहशतगर्दों के पास है। यहां हमारी नहीं उनकी समझदारी से रास्ता निकलेगा, लेकिन वो दिन कब आएगा ये बता पाना असंभव है। दरअसल, जलना इस देश की फितरत बन चुका है..गर इस आतंकवाद की आग थोड़ी ठंडी पड़ती है तो हम दूसरी आग सुलगा देते हैं कहीं धर्म के नाम पर, कहीं क्षेत्र के नाम पर या फिर आरक्षण, नक्सलवाद और जाने क्या-क्या। इस आग मे वो इंसान हताहत होता है जिनसे उस बेचारे का कोई लेना-देना ही नहीं था। इस सबके कारण जीवन की दूसरी समस्याओं से हमारी नज़र ही हट जाती है, क्योंकि मूल समस्या ही जीवन की बन चुकी है।

खैर, ये दौड़ते-भागते शहर थमना नहीं जानते। आतंक के राक्षस के इन तमाचों से वो गिर तो जाते हैं पर उठकर फिर भागने लगते हैं...लेकिन दौड़ते-दौड़ते ये यही सवाल करते हैं कि मेरे दौड़ने से किसी को क्या तकलीफ है। धमाके में मरे लोगों को श्रंद्धांजलि। घायल लोगों पे संवेदना। इसके अलावा कुछ और किया भी नहीं जा सकता..पीड़ित लोगों का दर्द बांट पाना संभव नहीं पर उनके लिए दुआ जरूर कर सकता हूं। कुछ समय बाद आंख के आंसु सूख जाएंगे, दिल का दर्द भी चला जाएगा, जुवाँ खामोश हो जाएगी पर ये खामोश जुवाँ हमेशा यही पूछेगी कि मौत के इस ताण्डव का कोई अंत है.........?????

8 comments:

  1. हिंसा के इस ताण्‍डव का अन्‍त निश्चित ही हो जाता, यदि आदि व्‍यवस्‍था से चलने को तैयार हुआ जाता। किया बहुत कुछ जा सकता है बॉस। लेकिन करनेवाले धक्‍के खा रहे हैं और समय व्‍यतीत करनेवाले नौसिखिए विद्वान बनने और बनाने पर लगे हुए हैं।

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  2. आपने सही कहा कि हमारी संवेदनाएँ भी मर रही हैं जो लोग अपने परिजनों को खो देते हैं उनका दर्द क्या हम कभी महसूस कर पाएंगे और इस आतंक की लड़ाई में थोड़ा सा ही सही योगदान दे पाएंगे?

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  3. इस ताण्डव और मौत का कोई अंत नहीं ये खामोश जुवाँ हमेशा यही पूछेगी ........?????

    Recent post: गरीबी रेखा की खोज

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  4. सच तो यह है कि स्थितियाँ और भी भयावह होती जाएंगी ।पीछे अनेक कारण हैं पर सबसे बडा कारण है समाज व राष्ट्र स्तर पर भी हर लाभ हानि व हर समस्या को सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर देखना ।

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  5. sahi kaha ankur ji jalna is desh kee fitrat ban chuka hai .एक एक बात सही कही है आपने .सही आज़ादी की इनमे थोड़ी अक्ल भर दे . आप भी जानें हमारे संविधान के अनुसार कैग [विनोद राय] मुख्य निर्वाचन आयुक्त [टी.एन.शेषन] नहीं हो सकते

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  6. इसका आन्त न खोजा तो हमारी शान्ति और प्रयासों को ग्रहण लग जायेगा।

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  7. सच कहा है अब ऐसे लगता है जैसे ये रोज़ का किस्सा है ... कुछ देर रुके ... संवेदना के बोल बोले ... मन में डर जागा ... पर फिर उसी सफर पे चल निकले ...
    ओर करें भी तो क्या ...

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