Wednesday, April 23, 2014

काश! प्रेम में सिर्फ 'टू स्टेट्स' ही होते....

हिन्दुस्तान एक ऐसा देश, जहाँ प्रेम की आध्यात्मिकता और पारलौकिकता को बताने वाला सबसे ज्यादा साहित्य लिखा। लेकिन प्रेम की स्वतंत्रता को सबसे अधिक बाधा भी हमारे देश ने पहुंचाई और उन बाधाओं के चलते अब अपने देश में भी प्रेम पर पाश्चात्य कलेवर चढ़ चुका है और अब यहां स्त्री-पुरुष पहले हमबिस्तर होते हैं फिर आईलवयू बोला जाता है। लेकिन फिर भी कुछ मोहब्बती जज़्बात जस के तस इस बदले कलेवर में करवट बदल रहे हैं, इंसान की रूह में चस्पा होकर। समाज़-रिवाज, घर-परिवार, रिश्ते-नाते, रीति-नीति ये सब वो स्टेट्स या क्षेत्र थे जिनमें इंसान एक सुखद संरक्षण के साथ अपने जज़्बातों की मौलिकता को जिंदा रखते हुए जीना चाहता था..पर सदियों से ये वो स्टेट्स बने हुए हैं जो अहसासों की आजादी पर सरहदें बनाते हैं...और उन सरहदों में घुट रहा है इश्क़ और घुट रही है व्यक्ति की मौलिक आजादी।

चेतन भगत के उपन्यास पर बनी फ़िल्म टू स्टेट्स देखी। लेकिन आगे कुछ लिखने से पहले ये बता देना चाहता हूं कि मैं यहां फ़िल्म की समीक्षा नहीं कर रहा हूं..क्योंकि उसपे पहले ही काफी कुछ कहा जा रहा है और ये फ़िल्म सौ करोड़ी क्लब में भी शामिल होने जा रही है। हालांकि मुझे फ़िल्म के कुछ हिस्से और आलिया भट्ट-अर्जुन कपूर के अभिनय के अलावा फिल्म औसत ही लगी...तो इस तरह मेरी दिलचस्पी न तो फ़िल्म पर कुछ कहने की है और न ही टू-स्टेट्स उपन्यास पे..क्योंकि चेतन भगत की लेखन शैली मेरी प्रकृति से मेच नहीं करती। मैं यहां हर हिन्दुस्तानी प्रेम कहानी में छुपे उन स्टेटस की बात करना चाहता हूँ जिन स्टेटस ने दिल की एक धरती पर कई सरहदें बनाकर हमें अलग-अलग दायरों में रहने पर मजबूर कर दिया।

भारत देश की विविधता ने सबसे ज्यादा क़त्ल यदि किसी का किया है तो वो मोहब्बत ही है...प्रेम के देवताओं की पूजा करने के बावजूद हमनें इंसान में उस रूप को पनपने की तमाम संभावनाओं को ख़त्म कर दिया। इन दिखावटी रस्मों और विविधताओं में कई दूसरी चीज़ें सर्वप्रमुख हो गई जबकि प्रेम को हासिये पे फेंक कर तड़पने के लिये छोड़ दिया गया। यदि इंसान द्वारा निर्मित सरहदों में बसे परिक्षेत्र को गिनाने लग जाये तो पता नहीं कितने स्टेट्स बन खड़े होंगे और अब प्रेम के साथ इस बात को भी तय करना होगा कि इस मोहब्बत का जन्म एक ही स्टेट्स में हुआ है या नहीं...और यदि नहीं हुआ है तो ज़बरदस्ती उसी स्टेट्स में प्रेम पैदा करना होगा। ऐसे में कौन इस दुनिया को समझाये कि प्रेम न बाड़े उपजे, प्रेम न हाट बिकाय। राजा-परजा जेहि रुचे सिर दे सोई ले जाय.. 

स्टेट्स। धर्म-कर्म, जात-पात की स्टेटस, रुपया-पैसा, अमीरी-गरीबी की स्टेट्स, भाषा-बोली, रीति-रिवाज़ों की स्टेट्स, खान-पान, रहन-सहन, पद-प्रतिष्ठा की स्टेट्स, शक्ल-सूरत, विचार-मान्यता, पसंद-नापसंद की स्टेट्स, क्षेत्र-गोत्र, कर्म-काण्ड, पूजा-विधान, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों की स्टेट्स, समाज और मिजाज की स्टेट्स, नौकरी-कारोबार की स्टेट्स और क्या-क्या बताऊं, ऐसी न जाने कितनी स्टेट्स जिन स्टेट्स को तोड़कर प्रेम खुले आसमान में आजाद घूमने की मांग करता है..पर इन स्टेट्स के पहरेदार प्रेम के उन पंछियों को जकड़कर वापस उन्हीं सरहदों में कैद कर देते हैं। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि इस अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये किसी मानवाधिकार आयोग का गठन नहीं किया गया है..क्योंकि अधिकतम अत्याचार इतने इमोशनली ढंग से किया जाते हैं कि प्रेम का पंछी मरते हुए भी ये समझता है कि वो त्याग कर रहा है। जबकि सच्चाई ये है कि इन तमाम स्टेट्स के पीछे समाज की एकमात्र मान्यता व्यक्ति की स्वाभाविक आजादी की मांग को दबाना है और प्रेम सरीकी आजादी के लिये बगावत और किसी जज़्बात में नहीं हो सकती। बस इसलिये हमेशा से वेद-पुराण, रस्मों-रिवाज और रिश्तों का वास्ता देकर उस आजादी का गला घोंटना ही इस समाज की फितरत बन चुका है। विधि-विधान के साथ किये गये इस मर्डर की कीमत सिर्फ वो इंसान चुकाता है जिसके जज़्बात का क़त्ल हुआ है और इस गुनाह में शामिल परिवार-समाज का हर इंसान बाइज्ज़त बरी कर दिया जाता है।

इन दायरों के बीच ऐसा लगता है मानो इस दुनिया में प्रेम से बड़ा गुनाह और कोई नहीं है। सिर्फ प्यार होना, सिर्फ किसी का अच्छा इंसान होना, सिर्फ एक निश्छल दिल होना इस दुनिया के लिये काफी नहीं है...तो जब ये सभी भले जज़्बात अच्छे नहीं है तो फिर भला क्युं अच्छाई की सीख दी जाती हैं। आज जिन वजहों से प्रेम महज़ वासना में बदला है उसका सबसे बड़ा कारण समाज द्वारा बनाये गये यही स्टेट्स हैं। इन स्टेट्स के कारण ही इंसान बड़ा प्रेक्टिकल हो गया है..और वो प्रेम को बस खाने-खेलने की चीज़ समझता है क्योंकि उसने अपने दिमाग में अच्छे से ये बात बैठा ली है कि इस प्रेम का कोई भविष्य नहीं है इसलिय जब तक मिल रहा है सिर्फ इंज्वाय करो। अब इस इंज्वाय को यहाँ परिभाषित करने की ज़रूरत मैं नहीं समझता क्योंकि परिदृष्य हम सबके सामने है...

टू स्टेट्स..काश बस टू स्टेट्स ही होते। तो कितना आसान होता, इस एक सरहद को पार कर अपने प्यार को पा लेना...पर अफसोस ऐसा नहीं है। जुदाई को दिल में लिये हमें जीना है..और अाप ज्यादा ही इमोशनल होके यदि वहीं अटके हुए हैं तो आप कमज़ोर है..आप यदि आगे नहीं बढ़ रहे हैं तो आप बेवकूफ है और यदि खुद को कमज़ोर और बेवकूफ साबित नहीं कराना चाहते तो आप झूठे बन जाईये, आप बेशर्म और खुदगर्ज हो जाईये क्योंकि सिर्फ खुदगर्जी में ही प्रेम को भुलाया जा सकता है...और यदि ऐसा नहीं कर सकते तो बस एक कसक लिये सिर्फ जीते रहिये गुजरते हर दिन के साथ, आती-जाती हर श्वांस के साथ। ये बात अलग है कि उन दिनों और उन श्वांसो पर अब कोई मायने नहीं तैरा करते। काश! सिर्फ टू स्टेट्स होते..या फिर इन सरहदों को तोड़ने के लिये काश! हम थोड़ी हिम्मत जुटा पाते...काश! ये दुनिया थोड़ा तो प्यार को समझती..काश! हमें कभी प्यार ही न होता.....काश....काशश्श्श्श्श्....................... 

Sunday, April 20, 2014

अपने तरानों से दिल के फसानों का सौदा करता गीतकार : इरशाद क़ामिल

संगीत के प्रति अपने बेइंतहा प्रेम के चलते अनायास ही मुझे किसी गाने के बोल और उसकी धुन पर पोस्टमार्टम करने का शगल है। लेकिन इन दिनों आ रहे योयो हनी सिंह टाइप गानों पर मुझे काफी खुन्नस आती है जो गाने संगीत की दैवीयता को कमज़ोर कर उन्हें बड़ा ही जमीनी स्तर का बना देते हैं। ऐसे में एक गीतकार अपने गीतों में पिरोये अल्फाज़ों के ज़रिये बेहद संजीदा अर्थों की साधना करता प्रतीत होता है और उसके वही गीत दिल की हरकतों को बखूब अपने शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। ये गीतकार है इरशाद कामिल, जो मुझे शैलेन्द्र, साहिर, प्रदीप, गुलज़ार और जावेद अख्तर जैसे गीतकारों की पीढ़ी का ही जान पड़ता है और अपने गीतों के ज़रिये उसी परंपरा का निर्वहन करता नज़र आता है।

तकरीबन 50 फ़िल्मों में 200 से भी ज्यादा गाने लिख चुका ये गीतकार, अपने अधिकतम गीतों में खुदा को तलाशते उसी बंजारेपन को बयां करता है जो इंसान की दार्शनिक परत का स्पर्श करता है और इन गीतों मेंसमाये प्रेम के कोमल जज़्बात भी खुदा की बंदगी करते से ही नज़र आते हैं। कहीं समाजों और रिवाज़ो के लिये इन गीतों में रोष है तो कहीं खुदा से ही प्रेम पर लगी बंदिशों के लिये जंग है..और इरशाद खुदा को ललकारते हुए लव आजकल में लिखते भी हैं "मांगा जो मेरा है, जाता क्या तेरा है..मैंने कौन सी तुझ से जन्नत मांग ली..कैसा खुदा है तू, बस नाम का है तू..रब्बा जो तेरी इतनी सी भी न चली"। ये वही गाना है जिसके लिये इरशाद को पहली मर्तबा फ़िल्मफेयर मिला था।

इश्क की पेचीदगियों को बताते इरशाद के गीत बरबस ही वाह कहने पर मजबूर कर देते हैं। चाहे ज़िक्र मेरे ब्रदर की दुल्हन फिल्म के गीत इश्क-रिस्क के उन बोलों की हो जहां वे "इसका उसका न इसका है, जाने कितना है किसका है..कैसी भाषा में भाषा में है लिखा" गीत में इश्क की उलझनें दिखाते हैं या फिर स्पेशल छब्बीस के गीत "सफ़र दो कदम है, जिसे इश्क लोग कहते..मगर इश्क वाले बस सफ़र में ही रहते..ख़त्म होता न उम्रभर इश्क का रास्ता, है बेहिसाब सा..जो तू न हो तो पानी-पानी नैना" की बात करें, ये सभी इ्श्क की उन सार्वभौमिक कठनाईयों को बयां करती है जो सदियों से इश्क के सामने आ रही हैं।

इसी तरह आशिकी टू फ़िल्म के गीत प्रेम में समाहित समर्पण के भाव को बयां करने की कोशिश करते हैं जिनमें इरशाद "मुझको न जितना मुझ पे उतना इस दिल को तुझपे, होने लगा ऐतबार..पूछुंगी न तुझको कभी न, चाहूँ मैं या न" लिखते हैं और कॉकटेल फिल्म के गीत तुम्ही हो बंधु के बोल "जब यार गले ले सार मेरी, मुझे क्या परवाह इस दुनिया की..तू जीत मेरी जग हार मेरी, मैं हूं ही नहीं इस दुनिया की" में अपना सर्वस्व साथी को सौंपने की बात प्रेमिका कहती नज़र आती है। खट्टा-मीठा का सजदा गाना भी कुछ ऐसे ही सुरों को पुख्ता करता नज़र आता है जहाँ "जाने तू सारा वो, दिल में जो मेरे हो..पढ़ले तू आंखे हर दफ़ा" कहकर अपने प्रेमी के सामने परदेदारी ख़त्म करने की बात कही गई है।

कई मर्तबा कामिल के गीत मोहब्बत के सामने आने वाले सारे दायरों पर भी जमाने से युद्ध करने की घोषणा करते है और हर बंधन से लोहा लेने के लिये संकल्पित नज़र आते हैं। रॉकस्टार का सड्डा हक एक ऐसा ही गीत है "मन बोले कि रस्में जीने का हरजाना, दुनिया-दुश्मन सब बेगाना..इन्हें आग लगाना मन बोले, मन से जीना या मरजाना" और इसी गाने का अगला अंतरा "समाजों से-रिवाज़ों से क्युं काटे मुझे, क्युं बांटे मुझे इस तरह" कहकर ईकोफ्रेंडली नेचर के रक्षक जमाने से कई प्रश्न करता है। रॉकस्टार की तरह इम्तियाज़ अली की एक अन्य फ़िल्म सोचा न था का गीत ओ यारा रब रुस जाने दे के बोल "जमाने को छोड़ दें, रिवाज़ों को तोड़ दे..टूटे न सपना कभी" में भी इसी कथ्य को मजबूत करते हैं।

इरशाद अपने गीतों में दूरियो को प्रेम की बंदिश नहीं मानते और उनकी दूरियां भी नजदीकियों से नजदीक होती है जो हमें कई गानों में दिखती है। जब वी मेट का "आँखों में आंखे तेरी, बाहों में बाहें तेरी..मेरा न मुझमें कुछ रहा, हुआ क्या" गीत हो या "तुम हो..पास मेरे, साथ मेरे तुम यूं..जितना महसूस करूं तुमको उतना ही पा भी लूं" हो गीत हो। इसके साथ ही जोड़ी ब्रेकर्स का गीत भी याद करना ज़रुरी है जहाँ "लफ़्जों से था जो परे, खालीपन को जो भरे..कुछ तो था तेरे मेरे दरमियां" कहकर इरशाद नजदीकियों से ज्यादा अहसास को प्रेम के लिये ज़रूरी होने का दावा करते हैं।

इसी तरह इरशाद के गीतों में प्रेम के लिये पजेशिवनेस भी हम बखूब देख सकते हैं..और वो अपने हिस्से का प्यार बांटने की तमाम संभावनाओं का निषेध उन गीतों में करते हैं। वी आर फेमिली का गीत आँखों में नींदे कुछ ऐसे ही कथ्य को कहता है "बांटू न किसी से साया भी तेरा, काजल जहाँ वहाँ तेरा बसेरा..आये जाये चाहे सूरज जहाँ में, तेरे बिना मेरा हो न सवेरा..तेरे कांधे पे ही लगे, जन्नत जैसी कोई जगह"आक्रोश फ़िल्म का 'सौदा' गीत भी कई वादे करता है जहां प्रेमी कहता है "दिल कहे तेरे मैं होठों से, बातों को चुपके से लूं उठा..उस जगह धीरे से होले से, गीतों को अपने मैं दूं बिठा...सौदा तरानों का दिल के फसानों का है, लेले तराने मेरे होठों पे धर भी ले"। वहीं प्रेम के लिये पागलपन को बयां करता और मोहब्बत के चलते खुद को बेसुध बताने वाला अजब प्रेम की गज़ब कहानी फिल्म का 'आ जाओ मेरी तमन्ना' गीत "हर घड़ी लग रही तेरी कमी, ले चली किस गली ये ज़िंदगी..है पता लापता हूँ प्यार में, अनकही-अनसुनी चाहत जगी" कहते हुए उसी बेसुधी को जताता है।

कामिल के प्रेम गीतों की सबसे खास बात है उनमें छुपी आध्यात्मिकता..इसके साथ ही भारतीय और सूफी दर्शन के वे तत्व, जो उन गीतों को महज़ प्रेमगीतों की परिधि से बाहर निकालते हैं। आशिकी टू का 'पिया आये न' गीत कुछ ऐसी ही बात कहता है "हर खता की होती है कोई न कोई सजा, ग़म लिखे हो किस्मत में तो मिल ही जाती वजह..अब सभी ग़म अश्कों में सिमट से गये, अब सभी आंसू पलकों से लिपट से गये...कि पिया आये न"। इसके अलावा मौसम का 'इक तू ही तू ही' गीत के बोल "तेरा शहर जो पीछे छूट रहा, कुछ अंदर-अंदर टूट रहा..हैरान हैं मेर दो नैना, ये झरना कहां से फूट रहा" दर्शनशास्त्र की ऐसी ही ऊंचाई को छूता दिखता है। वहीं इक अन्य बेहतरीन गीत "बहता है मन कहीं, कहाँ जानता नहीं, कोई रोकले यहीं..भागे रे मन कहीं, आगे रे मन चला, जाने किधर जानूं न" भी मन की परतों को टटोलने का प्रयास करता है।

इरशाद खुद पे विश्वास जगाने वाले गीत भी शानदार अल्फाज़ों में बयां करते हैं..लव आजकल फ़िल्म में ब्रेकअप की परिस्थिति को भी उन्होंने उल्लासमय लफ्ज़ों में प्रस्तुत किया है "चोर-बजारी दो नैनों की पहले थी आदत जो हट गई, प्यार की जो तेरी-मेरी उम्र आई थी वो घट गई..दुनिया की तो फिक्र कहां थी, तेरी भी अब चिंता घट गई"। मेरे ब्रदर की दुल्हन फ़िल्म का गीत धुनकी के अंतरे मे कामिल लिखते हैं "लादला दिल को हर बशर, इश्क दा चंगा है असर; करले खुद से ही प्यार बंदेया..है जहाँ की तुझको ख़बर, खुद से है पर तू बेखबर; ले ले अपनी बिसर बंदेया..गिरा दीवारें, लगा ललकारे" गीत की ये पंक्तियां खुद में एक अलग ही जोश का संचार करती हैं...इसी तरह हालिया रिलीज़ हाईवे का 'पटाखा गुड्डी' गीत भी सारी फिक्र रब के हवाले छोड़ने की बात करता है "तू तो पाक राब का बनका बच्चा राज दुलारा तू ही, मालिक ने जो चिंता दी तो दूर करेगा वोही, नाम अली का लेके तूतो नाच ले गली-गली" और ऐसे ही रॉकस्टार के 'नादान परिंदे' में "काटे चाहे कितना, परों से हवाओं को..खुद से न बच पायेगा तू" कहकर नादान परिंदे को वापस अपने घर लौटने की गुहार लगाई गई है। ये सारे गीत खुद पे विश्वास करने की अलख जगाने का काम करते हैं।

इन सब गीतों के वैसे तो बहुत कुछ इरशाद कामिल कह देते हैं पर फिर भी कुछ जज़्बात अनकहे ही रह जाते हैं और उन्हें कोई अल्फाज़ नहीं मिलते..और इस बात को उनका एक और श्रेष्ठतम गीत कहता है कि "जो भी मैं कहना चाहूं, बरबाद करें अल्फाज़ मेरे"। इरशाद के गीतों में हिन्दी, इंग्लिश, ऊर्दु और पंजाबी का शानदार कॉकटेल प्रस्तुत करते हैं लेकिन उन जुगलबंदियों के चलते कभी अर्थ से समझौता नहीं करते, जैसा कि आज कई दूसरे गीतकार कर रहे हैं। बहरहाल, मौजूदा दौर के गीतों में अर्थों की दुर्दशा देख कई मर्तबा आधुनिक गीतों से मोहभंग हो जाता है पर कामिल और ऐसे ही कुछ इक्का-दुक्का गीतकार वापस हिन्दी गीतों के प्रति रुचि बनाये रखते हैं..और संगीत महज कर्णस्पर्शी न रहकर आज भी हृदयस्पर्शी होने का अहसास कराता रहता है..क्योंकि जो दिल के तारों को झंकृत न करें ऐसा हर तराना और हर झंकार महज कोलाहल ही है, उसे संगीत कहकर आदर देना मेरी वैयक्तिक आचार संहिताओं के विरुद्ध है..........

Monday, April 14, 2014

मेरी प्रथम पच्चीसी : छठवी किस्त


(जीवन की अब तक यात्रा में अपने बचपने के कुछ छुटमुट संस्मरण प्रस्तुत किये हैं...इनमें घटनाओं के स्तर पर बहुत कुछ चमत्कारिक एवं सनसनीखेज नहीं है पर जज़्बातों का फ्लेवर पूरी संजीदगी से पिरोया है..हालांकि व्यस्तताओं और कुछ दूसरी वजहों से इस पच्चीसी की किस्तें काफी इंतज़ार के बाद प्रस्तुत कर पा रहा हूँ..पर लिखने से पहले हमेशा अपने मूड को टटोल लेता हूँ ताकि कुछ भी अतिरेकपूर्ण न लिखा जाये...क्योंकि अतिरेक किसी और के साथ नहीं अपितु मेरे स्वयं के साथ ही छल करने के समान होगा...चलिये प्रस्तुत करता हूं अपनी आगे के सफ़र की कहानी।)

गतांक से आगे-

अपना ननिहाल मुझे किसी तरह भी तरह रास नहीं आ रहा था..अपने आंसुओं की गंगा-जमुना बहाने के बावजूद भी मम्मी-पापा मानने को तैयार नहीं थे और मुझे अपने बेहतर भविष्य को संवारने वे उसी ज़मीं पर पहुंचा देना चाहते थे। बचपन से उत्पाती था इसलिये हर तरह के पैंतरे अपनाता था कई बार आत्महत्या करने के कुछ झूठे नाटक भी प्रस्तुत करता था। अब बताईये भला उस छोटी सी उम्र के बालक को ये कैसे पता कि हत्या-आत्महत्या क्या होती है..लेकिन आजकल टीवी ने बच्चों को बहुत ही सयाना बना दिया है और वे बड़ी आसानी से इस कृत्य का प्रयोग इमोशनल अत्याचार करने के लिये करते हैं..मैं भी वैसा ही कुछ कर रहा था। जिससे मेरे मां-बाप तो नहीं घबराते पर इसका असर नानी पर ज़रूर हो गया और उन्होंने मुझे वापस भेजने का फैसला कर ही लिया। कक्षा दसवीं की तकरीबन एक माह की पढ़ाई छिंदवाड़ा में करने के बाद मैं वापस अपने गांव में था..और बेइंतहा खुश था लेकिन घरवालों का रवैया मेरे लिये उस तरह प्रेमपूर्ण नहीं था जैसा कि एक बच्चे के लिये होना चाहिये। उसका कारण ये था कि मैंने उनके सपनों का क़त्ल किया था और उन्हें लगता था कि इस गांव में रहते हुए भला मैं क्या कर पाउंगा....

मम्मी-पापा का सोचना भी सही था क्योंकि उस गांव के माहौल से मुझे कभी भी आज की दुनिया की माडर्न रीत-नीत नहीं मिलने वाली थी और मैं उस तथाकथित गंवारु और बंजारेपन की फितरत को ही आत्मसात् करता और वो चरित्र आज के युग के जेंटलमैन कल्चर के विरुद्ध है जिसे कोई भी सभ्यता का उपासक मंज़ूर नहीं कर सकता। लेकिन मां-बाप द्वारा किये जाने वाले उपेक्षापूर्ण बर्ताव ने मुझे अंदर ही अंदर अपराधबोध के भाव से भर दिया था...और कई बार मुझे मेरे वापस लौट आने के फैसले पर पछतावा भी होता था..पर फिर भी दोस्तों का साथ और मनमौजी-हुल्लड़मस्ती सभी चीज़ें भुला देती। अपने गांव में तो मैं राजा ही था भले अंधों में काना राज़ा ही सही..और यही सुरक्षा का भाव मुझे उस दायरे से बाहर निकलने की इज़ाजत नहीं देता था क्योंकि दुनिया में सिर्फ कांप्टीशन है, सिर्फ एक अंधी दौड़ है..प्रतिस्पर्धा की ये अंधी दौड़, हमसे अपना मूल वजूद ही छीन लेती है और एक गांव में पला-बड़ा बालक भला कैसे आसानी से उस प्रतस्पर्धा के मंच पर एडजस्ट कर सकता है...लेकिन मेरी किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था..और कालांतर में वो गांव भी छूटा और साथ ही छूट गई उस गांव की मासूम छांव..जो छांव मेरे अंदर निश्चल-निर्मलता को बरकरार रखे हुई थी...बाहर निकलकर पढ़ाई की, कांपटीशन में खुद को बेहतर बनाने के जतन किये और उस तमाम जतन के चलते..चरित्र में एक कुटिलता प्रविष्ट हो गई।

फिर वही गांव..फिर वही गलिया और फिर वही जीवन की आदतें..सुवह से शाम उन्हीं गिनी-चुनी हरकतों में गुज़र जाती। खाना-पीना-सोना और कामचलाऊ पढ़ना और ऐसे ही कुछ अदने से काम..बस यही थी जीवन की हकीकत और यही था ज़िंदगी का फ़साना। जिस फ़साने में मौज करने के लिये ज्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं थी बस बिना सोचे, सतही से विचारों और सामान्य से ज्ञान के साथ जीने की ज़रूरत थी और वो तो जी ही रहा था, बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के। चंद किलोमीटर का फासला तय करके पूरा गांव नापा जा सकता था..जिस गांव में रास्ते भी पास ही पास थे और रिश्ते भी, खूब समय रहा करता था..पर महानता तो तब है जब रास्ते लंबे हों, मंजिल जटिल और व्यस्तताएं इतनी हो जहां न रिश्तों के लिये फुरसत हो और न ही जज़्बातों के लिये। प्रैक्टिकल बनना ज़रुरी है...पर गांव की ये शिक्षा तो सिर्फ सेंटीमेंटल ही बना सकती है और सेंटीमेंटल बनकर कभी विकास नहीं किया जा सकता।

बस इसी तरह मौज के साथ अपनी दसवीं कक्षा की पढ़ाई चल रही थी..दसवीं की ये परीक्षा गांवों में बहुत ही अहम् मानी जाती है और यदि आपने गांव में टाप कर लिया तो समझा जाता है कि आप ओलंपिक के स्वर्ण पदक विजेता है..मुझे भी इस परीक्षा की तैयारी में झोंका जा चुका था। जिस तरह शहरों में आईआईटी, आईएएस के कोचिंग सेंटर कुकुरमुत्तों की तरह नज़र आते हैं ऐसे ही गांवों में दसवी-बारहवी की परीक्षा के लिये कोचिंग सेंटर चलते हैं..मेरे घर के लोग इस महासंग्राम में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे और मुझे गांव के तीन-तीन सर्वश्रेष्ठ कोचिंग सेंटर में पढ़ने भेजा जाता था..और शायद उन कोचिंग सेंटर की ही कृपा रही हो कि वहां से हासिल की गई तालीम की बदौलत बमुश्किल फर्स्ट डिवीजन बना के पास हुआ क्योंकि घर में पढ़ना क्या होता है इसकी दूर-दूर तक कोई जानकारी मुझे नहीं थी..कोचिंग और स्कूल के बाद यदि कोई चीज़ से मेरा लगाव था तो वो था क्रिकेट और इन तमाम चीज़ों के अलावा मेरा अगला गंतव्य क्रिकेट का मैदान ही होता था। इसलिये बोर्ड के उन एक्साम के बीच में भी क्रिकेट खेलने का कोई मौका नहीं छोड़ता।

खैर, जैसे-तैसे दसवीं की कक्षा पास की...और अब एक बार फिर उस सुनहरे भविष्य के लिये बाहर जाने का वक्त आ रहा था..मेरे घर वाले फिर खुद से दूर करने और ज़िंदगी पर पालिश करने मुझे किसी शहर में भेजने को तैयार थे...उनकी ज़िद भेजने की थी तो मेरी भी न जाने की। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था..हमारी जिद चाहे कुछ भी क्युं न हो, चलती हमेशा किस्मत की ही है और वो मुझे देश के इस हृदय स्थल से दूर, एक दूसरे ही प्रदेश में ले जा रही थी..गुलाबी नगरी। जी हां अगला सफ़र अब इस पिंक सिटी से शुरु होगा जो मेरे जीवन का असल मायने में यू-टर्न था...मैं वहां पहुंचने के लिये तैयार था और ज़िंदगी अपना एक अलग ही मुकाम तलाशने की कवायद में लग गई थी..चलिये उस कवायद और नये शहर की दास्तां अब अगली किस्त में सुनाई जायेगी..अभी यही रुकते हैं.............

ज़ारी.............

Wednesday, April 9, 2014

युवराज़ सिंह का गुनाह....

आईसीसी टी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप के फाइनल को गुजरे 3-4 दिन हो चुके हैं...और सब धीरे-धीरे प्रायः फाइनल में मिली हार को भूल से भी गये हैं...पर सोशल मीडिया और मेनस्ट्रीम मीडिया में युवराज़ सिंह एक विलन की तरह अब भी कोसे जा रहे हैं। तरह-तरह की फब्तियां और जुमले उनके फाइनल में किये प्रदर्शन पर छोड़े जा रहे हैं...और माहौल कुछ ऐसा बना दिया गया है..मानो युवराज़ ने भारत के गोपनीय शस्त्रागारों के ठिकानों की जानकारी शत्रुदेशों को देकर कोई राजद्रोह कर दिया हो। युवराज़ पर व्यंग्य कसने वालों में मैं भी था जिसने भारतीय टीम के हारने पर 15 मिनट के अंदर ही एक फब्तियों को ज़ाहिर करता पोस्ट फेसबुक पर अपडेट किया था..पर लगातार हुए विरोध प्रदर्शन ने मुझे युवराज़ के गुनाह का पोस्टमार्टम करने पर मज़बूर किया और बस इसके चलते ही ये पोस्ट आपके सामने हैं।

युवराज़ सिंह। पिछले चौदह सालों से टीम इंडिया का एक प्रमुख प्रतिनिधि खिलाड़ी..जो अब से 14 वर्ष पहले खेली गई अपनी उस पहली 84 रनों की पारी में ही मुझे अपना कायल कर गया था जो उसने आस्ट्रेलिया के खिलाफ चैंपियंस ट्राफी में बनाये थे। तब से अब तक बीसियों ऐसी पारिया रही है जिन्होंने युवराज को टीम इंडिया का सरताज बना दिया..एक ऐसा खिलाड़ी जिसे दर्जनों बार टीम से बाहर किया गया लेकिन वो हर बार अपनी जीवटता और जुझारु खेल के ज़रिये टीम इंडिया में आया..और अपने समकालीन सभी खिलाड़ियों से अलग अपनी पहचान बरकरार रखी। कई दूसरे खिलाड़ी धूमकेतु की तरह क्रिकेट के इस आकाश में चमकते पर युवराज ध्रुवतारे की तरह हमेशा मद्धम-मद्धम टिमटिमाते रहे। मसलन, उनके साथ ही डैब्यु करने वाले ज़हीर ख़ान कभी लोगों की आंखों के तारे हुए और युवराज़ को बाहर कर दिया गया..इसी तरह मोहम्मद कैफ क्रिकेट के पटल पे अगले अजहरुद्दीन कहलाये और युवराज़ को दूसरी पंक्ति में धका दिया गया। सेहवाग, गंभीर, दिनेश मोंगिया, हेमांग बदानी, रॉबिन उथप्पा और ऐसे न जाने कितने खिलाड़ी आये, अपनी चमक बिखेरी और चले गये पर युवराज हमेशा अपने-आप को टीम में साबित करते रहे और लगातार टीम इंडिया के एक अहम् स्तंभ बने रहे।

आज फिर ऐसा ही एक माहौल है जब युवराज़ के टीम इंडिया में होने पर सवाल खड़े हो रहे हैं...पर ये जुझारु लड़ाका विचलित तो हो सकता है पर चित कभी भी नहीं..क्रिकेट के मैदान में होने वाली जंग ज़िंदगी के मैदान में होने वाली जंग से बहुत छोटी होती है और जो इंसान मौत को ठेंगा दिखाके अपने आत्मविश्वास के साथ वापस अपनी ज़िंदगी को मुख्यधारा में ला सकता है वो दुनिया की किसी भी चीज़ का सामना कर सकता है। युवराज़ एक किंवदंति हैं जिनका क्रिकेट के मैदान में खड़े रह खेलना ही एक प्रेरणादायी फलसफा साबित होगा उनका बेहतर प्रदर्शन करना तो अलग बात है। मैं ये बात उनपे किसी तरह की सहानुभूति जताने के लिये नहीं कह रहा हूँ और न मैं लोगों से ये गुज़़ारिश करता हूँ कि युवराज़ पर सहानुभूति दिखाते हुए उसके टीम में बने रहने की दुआ करें बल्कि मैं ये सब सिर्फ इसलिये कह रहा हूँ कि हम असफलता को देखने का अपना नज़रिया बदलें। निश्चित ही युवराज़ की फाइनल में खेली उस पारी ने ही टीम का मोमेंटम बिगाड़ा और भारत को हार का सामना करना पड़ा..पर ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है। हमेशा तीर निशाने पर तो एकलव्य का भी नहीं लगता। लेकिन हम हवाओं के रुख के हिसाब से चलते हुए सिर्फ जीते हुए के साथ खड़े हो जाते हैं पर असफलता के साथ खड़े होने का माद्दा हममें कब विकसित होगा।

युवराज का गुनाह सिर्फ ये है कि वो उस देश का खिलाड़ी है जहाँ क्रिकेट किसी भी दूसरी चीज़ से बढ़कर है, जहाँ क्रिकेट को लेकर लोग सिर्फ जज्बातों से फैसले करते हैं, जहाँ  क्रिकेट जुनून की सारी हदों को तोड़ देता है..और इस खेल में हम सिर्फ सफलता के ही हिमायती हैं और यदि कोई उन बेइंतहा उम्मीदों पर पानी फेर दे तो हम उसे बख्शने के कतई मूड़ में नहीं हैं फिर चाहे उस इंसान ने हमें खुशी के हज़ारों मौके क्यों न दिये हों। नेटवेस्ट ट्राफी-2003 का फाइनल, 2007 टी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप, 2011 क्रिकेट वर्ल्ड कप, चैंपियन्स ट्राफी 2002 और ऐसे न जाने कितन मौके हैं जब देश सिर्फ युवराज़ की वजह से झूमा है पर वो तमाम उपलब्धियां, युवराज़ के एक गुनाह के कारण छोटी हो गई...दरअसल, हमें युवराज़ की गिरेबान में झांकना छोड़कर खुद की गिरेवान में झांकने की ज्यादा ज़रूरत है..जो हम स्वार्थ की तमाम हदों को तोड़ते हुए दुनिया के हर उस इंसान से किनारा कर लेना चाहते हैं जो हासिये पर फेंक दिया गया है...उस इंसान के लिये हमारी सहानुभूित तो हो सकती है पर हम साथ देने की जुर्रत कभी नहीं दिखा सकते।

युवराज़ जिस संघर्ष के बाद मैदान में लौटा है उसे कुछ मायने में मैं समझ सकता हूँ क्योंकि ज़िंदगी और मौत की कशमकश से कुछ हद तक मैं भी जूझ चुका हूं..उन हालातों के बाद खुद को संभालकर वापस ज़िंदगी में लौटकर आना बहुत मुश्किल है और जब हम खुद को वापस मुख्यधारा में ला रहे होते हैं तब सबसे ज्यादा आपका आत्मविश्वास वो लोग तोड़ते हैं जो आपके साथ खड़े तो नज़र आते हैं पर बड़ी शालीनता से आपको अापकी कमियों और नाकामयाबियों का आईना दिखाकर दयादृष्टि प्रदर्शित करते हुए छोड़कर चले जाते हैं...और आप एक बार फिर गिरकर, संभलने की जुगत में लग जाते हो। मेरा विश्वास है युवराज़ फिर वापस लौटेगा..और उसका सबसे बड़ा मददगार सिर्फ वही होगा क्योंकि हमारे संपूर्ण सुख, आत्मविश्वास और ताजगी के लिये सिर्फ हम ही ज़िम्मेदार हैं कोई और साथ खड़ा हुआ प्रतीत तो हो सकता है पर वास्तव में साथ होता कोई नहीं।