संगीत के प्रति अपने बेइंतहा प्रेम के चलते अनायास ही मुझे किसी गाने के बोल और उसकी धुन पर पोस्टमार्टम करने का शगल है। लेकिन इन दिनों आ रहे योयो हनी सिंह टाइप गानों पर मुझे काफी खुन्नस आती है जो गाने संगीत की दैवीयता को कमज़ोर कर उन्हें बड़ा ही जमीनी स्तर का बना देते हैं। ऐसे में एक गीतकार अपने गीतों में पिरोये अल्फाज़ों के ज़रिये बेहद संजीदा अर्थों की साधना करता प्रतीत होता है और उसके वही गीत दिल की हरकतों को बखूब अपने शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। ये गीतकार है इरशाद कामिल, जो मुझे शैलेन्द्र, साहिर, प्रदीप, गुलज़ार और जावेद अख्तर जैसे गीतकारों की पीढ़ी का ही जान पड़ता है और अपने गीतों के ज़रिये उसी परंपरा का निर्वहन करता नज़र आता है।
तकरीबन 50 फ़िल्मों में 200 से भी ज्यादा गाने लिख चुका ये गीतकार, अपने अधिकतम गीतों में खुदा को तलाशते उसी बंजारेपन को बयां करता है जो इंसान की दार्शनिक परत का स्पर्श करता है और इन गीतों मेंसमाये प्रेम के कोमल जज़्बात भी खुदा की बंदगी करते से ही नज़र आते हैं। कहीं समाजों और रिवाज़ो के लिये इन गीतों में रोष है तो कहीं खुदा से ही प्रेम पर लगी बंदिशों के लिये जंग है..और इरशाद खुदा को ललकारते हुए लव आजकल में लिखते भी हैं "मांगा जो मेरा है, जाता क्या तेरा है..मैंने कौन सी तुझ से जन्नत मांग ली..कैसा खुदा है तू, बस नाम का है तू..रब्बा जो तेरी इतनी सी भी न चली"। ये वही गाना है जिसके लिये इरशाद को पहली मर्तबा फ़िल्मफेयर मिला था।
इश्क की पेचीदगियों को बताते इरशाद के गीत बरबस ही वाह कहने पर मजबूर कर देते हैं। चाहे ज़िक्र मेरे ब्रदर की दुल्हन फिल्म के गीत इश्क-रिस्क के उन बोलों की हो जहां वे "इसका उसका न इसका है, जाने कितना है किसका है..कैसी भाषा में भाषा में है लिखा" गीत में इश्क की उलझनें दिखाते हैं या फिर स्पेशल छब्बीस के गीत "सफ़र दो कदम है, जिसे इश्क लोग कहते..मगर इश्क वाले बस सफ़र में ही रहते..ख़त्म होता न उम्रभर इश्क का रास्ता, है बेहिसाब सा..जो तू न हो तो पानी-पानी नैना" की बात करें, ये सभी इ्श्क की उन सार्वभौमिक कठनाईयों को बयां करती है जो सदियों से इश्क के सामने आ रही हैं।
इसी तरह आशिकी टू फ़िल्म के गीत प्रेम में समाहित समर्पण के भाव को बयां करने की कोशिश करते हैं जिनमें इरशाद "मुझको न जितना मुझ पे उतना इस दिल को तुझपे, होने लगा ऐतबार..पूछुंगी न तुझको कभी न, चाहूँ मैं या न" लिखते हैं और कॉकटेल फिल्म के गीत तुम्ही हो बंधु के बोल "जब यार गले ले सार मेरी, मुझे क्या परवाह इस दुनिया की..तू जीत मेरी जग हार मेरी, मैं हूं ही नहीं इस दुनिया की" में अपना सर्वस्व साथी को सौंपने की बात प्रेमिका कहती नज़र आती है। खट्टा-मीठा का सजदा गाना भी कुछ ऐसे ही सुरों को पुख्ता करता नज़र आता है जहाँ "जाने तू सारा वो, दिल में जो मेरे हो..पढ़ले तू आंखे हर दफ़ा" कहकर अपने प्रेमी के सामने परदेदारी ख़त्म करने की बात कही गई है।
कई मर्तबा कामिल के गीत मोहब्बत के सामने आने वाले सारे दायरों पर भी जमाने से युद्ध करने की घोषणा करते है और हर बंधन से लोहा लेने के लिये संकल्पित नज़र आते हैं। रॉकस्टार का सड्डा हक एक ऐसा ही गीत है "मन बोले कि रस्में जीने का हरजाना, दुनिया-दुश्मन सब बेगाना..इन्हें आग लगाना मन बोले, मन से जीना या मरजाना" और इसी गाने का अगला अंतरा "समाजों से-रिवाज़ों से क्युं काटे मुझे, क्युं बांटे मुझे इस तरह" कहकर ईकोफ्रेंडली नेचर के रक्षक जमाने से कई प्रश्न करता है। रॉकस्टार की तरह इम्तियाज़ अली की एक अन्य फ़िल्म सोचा न था का गीत ओ यारा रब रुस जाने दे के बोल "जमाने को छोड़ दें, रिवाज़ों को तोड़ दे..टूटे न सपना कभी" में भी इसी कथ्य को मजबूत करते हैं।
इरशाद अपने गीतों में दूरियो को प्रेम की बंदिश नहीं मानते और उनकी दूरियां भी नजदीकियों से नजदीक होती है जो हमें कई गानों में दिखती है। जब वी मेट का "आँखों में आंखे तेरी, बाहों में बाहें तेरी..मेरा न मुझमें कुछ रहा, हुआ क्या" गीत हो या "तुम हो..पास मेरे, साथ मेरे तुम यूं..जितना महसूस करूं तुमको उतना ही पा भी लूं" हो गीत हो। इसके साथ ही जोड़ी ब्रेकर्स का गीत भी याद करना ज़रुरी है जहाँ "लफ़्जों से था जो परे, खालीपन को जो भरे..कुछ तो था तेरे मेरे दरमियां" कहकर इरशाद नजदीकियों से ज्यादा अहसास को प्रेम के लिये ज़रूरी होने का दावा करते हैं।
इसी तरह इरशाद के गीतों में प्रेम के लिये पजेशिवनेस भी हम बखूब देख सकते हैं..और वो अपने हिस्से का प्यार बांटने की तमाम संभावनाओं का निषेध उन गीतों में करते हैं। वी आर फेमिली का गीत आँखों में नींदे कुछ ऐसे ही कथ्य को कहता है "बांटू न किसी से साया भी तेरा, काजल जहाँ वहाँ तेरा बसेरा..आये जाये चाहे सूरज जहाँ में, तेरे बिना मेरा हो न सवेरा..तेरे कांधे पे ही लगे, जन्नत जैसी कोई जगह"। आक्रोश फ़िल्म का 'सौदा' गीत भी कई वादे करता है जहां प्रेमी कहता है "दिल कहे तेरे मैं होठों से, बातों को चुपके से लूं उठा..उस जगह धीरे से होले से, गीतों को अपने मैं दूं बिठा...सौदा तरानों का दिल के फसानों का है, लेले तराने मेरे होठों पे धर भी ले"। वहीं प्रेम के लिये पागलपन को बयां करता और मोहब्बत के चलते खुद को बेसुध बताने वाला अजब प्रेम की गज़ब कहानी फिल्म का 'आ जाओ मेरी तमन्ना' गीत "हर घड़ी लग रही तेरी कमी, ले चली किस गली ये ज़िंदगी..है पता लापता हूँ प्यार में, अनकही-अनसुनी चाहत जगी" कहते हुए उसी बेसुधी को जताता है।
कामिल के प्रेम गीतों की सबसे खास बात है उनमें छुपी आध्यात्मिकता..इसके साथ ही भारतीय और सूफी दर्शन के वे तत्व, जो उन गीतों को महज़ प्रेमगीतों की परिधि से बाहर निकालते हैं। आशिकी टू का 'पिया आये न' गीत कुछ ऐसी ही बात कहता है "हर खता की होती है कोई न कोई सजा, ग़म लिखे हो किस्मत में तो मिल ही जाती वजह..अब सभी ग़म अश्कों में सिमट से गये, अब सभी आंसू पलकों से लिपट से गये...कि पिया आये न"। इसके अलावा मौसम का 'इक तू ही तू ही' गीत के बोल "तेरा शहर जो पीछे छूट रहा, कुछ अंदर-अंदर टूट रहा..हैरान हैं मेर दो नैना, ये झरना कहां से फूट रहा" दर्शनशास्त्र की ऐसी ही ऊंचाई को छूता दिखता है। वहीं इक अन्य बेहतरीन गीत "बहता है मन कहीं, कहाँ जानता नहीं, कोई रोकले यहीं..भागे रे मन कहीं, आगे रे मन चला, जाने किधर जानूं न" भी मन की परतों को टटोलने का प्रयास करता है।
इरशाद खुद पे विश्वास जगाने वाले गीत भी शानदार अल्फाज़ों में बयां करते हैं..लव आजकल फ़िल्म में ब्रेकअप की परिस्थिति को भी उन्होंने उल्लासमय लफ्ज़ों में प्रस्तुत किया है "चोर-बजारी दो नैनों की पहले थी आदत जो हट गई, प्यार की जो तेरी-मेरी उम्र आई थी वो घट गई..दुनिया की तो फिक्र कहां थी, तेरी भी अब चिंता घट गई"। मेरे ब्रदर की दुल्हन फ़िल्म का गीत धुनकी के अंतरे मे कामिल लिखते हैं "लादला दिल को हर बशर, इश्क दा चंगा है असर; करले खुद से ही प्यार बंदेया..है जहाँ की तुझको ख़बर, खुद से है पर तू बेखबर; ले ले अपनी बिसर बंदेया..गिरा दीवारें, लगा ललकारे" गीत की ये पंक्तियां खुद में एक अलग ही जोश का संचार करती हैं...इसी तरह हालिया रिलीज़ हाईवे का 'पटाखा गुड्डी' गीत भी सारी फिक्र रब के हवाले छोड़ने की बात करता है "तू तो पाक राब का बनका बच्चा राज दुलारा तू ही, मालिक ने जो चिंता दी तो दूर करेगा वोही, नाम अली का लेके तूतो नाच ले गली-गली" और ऐसे ही रॉकस्टार के 'नादान परिंदे' में "काटे चाहे कितना, परों से हवाओं को..खुद से न बच पायेगा तू" कहकर नादान परिंदे को वापस अपने घर लौटने की गुहार लगाई गई है। ये सारे गीत खुद पे विश्वास करने की अलख जगाने का काम करते हैं।
इन सब गीतों के वैसे तो बहुत कुछ इरशाद कामिल कह देते हैं पर फिर भी कुछ जज़्बात अनकहे ही रह जाते हैं और उन्हें कोई अल्फाज़ नहीं मिलते..और इस बात को उनका एक और श्रेष्ठतम गीत कहता है कि "जो भी मैं कहना चाहूं, बरबाद करें अल्फाज़ मेरे"। इरशाद के गीतों में हिन्दी, इंग्लिश, ऊर्दु और पंजाबी का शानदार कॉकटेल प्रस्तुत करते हैं लेकिन उन जुगलबंदियों के चलते कभी अर्थ से समझौता नहीं करते, जैसा कि आज कई दूसरे गीतकार कर रहे हैं। बहरहाल, मौजूदा दौर के गीतों में अर्थों की दुर्दशा देख कई मर्तबा आधुनिक गीतों से मोहभंग हो जाता है पर कामिल और ऐसे ही कुछ इक्का-दुक्का गीतकार वापस हिन्दी गीतों के प्रति रुचि बनाये रखते हैं..और संगीत महज कर्णस्पर्शी न रहकर आज भी हृदयस्पर्शी होने का अहसास कराता रहता है..क्योंकि जो दिल के तारों को झंकृत न करें ऐसा हर तराना और हर झंकार महज कोलाहल ही है, उसे संगीत कहकर आदर देना मेरी वैयक्तिक आचार संहिताओं के विरुद्ध है..........
bahut sundar ankur mujhe nahi maloom tha ki irshad ne itne achchhe geet likhe hain, aap music main bhi gahri dilchaspi rakhte hain yah padhkar badi khushi hui.
ReplyDeleteआभार आपका इस प्रतिक्रिया के लिये...
Deleteबेशक इनके लिखे गीत झंकार उत्पन्न करते हैं। लेकिन यह तो संगीत का प्रभाव है। यदि स्मृतिवान संगीत न बन पाए तो कितना ही अच्छा लिखा हुआ गीत भी अप्रभावित ही रहता है। आपने अच्छी गीत समीक्षा की है पर पढ़ते पढ़ते ही मुझे लगा कि आपको बताऊं कि नए गीत हो या पुराने जब तक उन्हें सुरीले- यादगाद संगीत में नहीं ढाला गया वे बिसर ही जाते हैं।
ReplyDeleteलेकिन आपको मानना पड़ेगा कि आपने नए-पुराने गीतों को, उनके संगीत को सम्पूर्ण आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टि से समझा है और इस दिशा में रुचि को निरन्तर बनाए रखा है।
Deleteधन्यवाद विकेश जी..ये रुचि ऐसी ही रहेगी। संगीत से रुचि जाना श्वांसों का धीमा पड़ने की तरह है...
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