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(जीवन की अब तक यात्रा में अपने बचपने के कुछ छुटमुट संस्मरण प्रस्तुत किये हैं...इनमें घटनाओं के स्तर पर बहुत कुछ चमत्कारिक एवं सनसनीखेज नहीं है पर जज़्बातों का फ्लेवर पूरी संजीदगी से पिरोया है..हालांकि व्यस्तताओं और कुछ दूसरी वजहों से इस पच्चीसी की किस्तें काफी इंतज़ार के बाद प्रस्तुत कर पा रहा हूँ..पर लिखने से पहले हमेशा अपने मूड को टटोल लेता हूँ ताकि कुछ भी अतिरेकपूर्ण न लिखा जाये...क्योंकि अतिरेक किसी और के साथ नहीं अपितु मेरे स्वयं के साथ ही छल करने के समान होगा...चलिये प्रस्तुत करता हूं अपनी आगे के सफ़र की कहानी।)
गतांक से आगे-
अपना ननिहाल मुझे किसी तरह भी तरह रास नहीं आ रहा था..अपने आंसुओं की गंगा-जमुना बहाने के बावजूद भी मम्मी-पापा मानने को तैयार नहीं थे और मुझे अपने बेहतर भविष्य को संवारने वे उसी ज़मीं पर पहुंचा देना चाहते थे। बचपन से उत्पाती था इसलिये हर तरह के पैंतरे अपनाता था कई बार आत्महत्या करने के कुछ झूठे नाटक भी प्रस्तुत करता था। अब बताईये भला उस छोटी सी उम्र के बालक को ये कैसे पता कि हत्या-आत्महत्या क्या होती है..लेकिन आजकल टीवी ने बच्चों को बहुत ही सयाना बना दिया है और वे बड़ी आसानी से इस कृत्य का प्रयोग इमोशनल अत्याचार करने के लिये करते हैं..मैं भी वैसा ही कुछ कर रहा था। जिससे मेरे मां-बाप तो नहीं घबराते पर इसका असर नानी पर ज़रूर हो गया और उन्होंने मुझे वापस भेजने का फैसला कर ही लिया। कक्षा दसवीं की तकरीबन एक माह की पढ़ाई छिंदवाड़ा में करने के बाद मैं वापस अपने गांव में था..और बेइंतहा खुश था लेकिन घरवालों का रवैया मेरे लिये उस तरह प्रेमपूर्ण नहीं था जैसा कि एक बच्चे के लिये होना चाहिये। उसका कारण ये था कि मैंने उनके सपनों का क़त्ल किया था और उन्हें लगता था कि इस गांव में रहते हुए भला मैं क्या कर पाउंगा....
मम्मी-पापा का सोचना भी सही था क्योंकि उस गांव के माहौल से मुझे कभी भी आज की दुनिया की माडर्न रीत-नीत नहीं मिलने वाली थी और मैं उस तथाकथित गंवारु और बंजारेपन की फितरत को ही आत्मसात् करता और वो चरित्र आज के युग के जेंटलमैन कल्चर के विरुद्ध है जिसे कोई भी सभ्यता का उपासक मंज़ूर नहीं कर सकता। लेकिन मां-बाप द्वारा किये जाने वाले उपेक्षापूर्ण बर्ताव ने मुझे अंदर ही अंदर अपराधबोध के भाव से भर दिया था...और कई बार मुझे मेरे वापस लौट आने के फैसले पर पछतावा भी होता था..पर फिर भी दोस्तों का साथ और मनमौजी-हुल्लड़मस्ती सभी चीज़ें भुला देती। अपने गांव में तो मैं राजा ही था भले अंधों में काना राज़ा ही सही..और यही सुरक्षा का भाव मुझे उस दायरे से बाहर निकलने की इज़ाजत नहीं देता था क्योंकि दुनिया में सिर्फ कांप्टीशन है, सिर्फ एक अंधी दौड़ है..प्रतिस्पर्धा की ये अंधी दौड़, हमसे अपना मूल वजूद ही छीन लेती है और एक गांव में पला-बड़ा बालक भला कैसे आसानी से उस प्रतस्पर्धा के मंच पर एडजस्ट कर सकता है...लेकिन मेरी किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था..और कालांतर में वो गांव भी छूटा और साथ ही छूट गई उस गांव की मासूम छांव..जो छांव मेरे अंदर निश्चल-निर्मलता को बरकरार रखे हुई थी...बाहर निकलकर पढ़ाई की, कांपटीशन में खुद को बेहतर बनाने के जतन किये और उस तमाम जतन के चलते..चरित्र में एक कुटिलता प्रविष्ट हो गई।
फिर वही गांव..फिर वही गलिया और फिर वही जीवन की आदतें..सुवह से शाम उन्हीं गिनी-चुनी हरकतों में गुज़र जाती। खाना-पीना-सोना और कामचलाऊ पढ़ना और ऐसे ही कुछ अदने से काम..बस यही थी जीवन की हकीकत और यही था ज़िंदगी का फ़साना। जिस फ़साने में मौज करने के लिये ज्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं थी बस बिना सोचे, सतही से विचारों और सामान्य से ज्ञान के साथ जीने की ज़रूरत थी और वो तो जी ही रहा था, बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के। चंद किलोमीटर का फासला तय करके पूरा गांव नापा जा सकता था..जिस गांव में रास्ते भी पास ही पास थे और रिश्ते भी, खूब समय रहा करता था..पर महानता तो तब है जब रास्ते लंबे हों, मंजिल जटिल और व्यस्तताएं इतनी हो जहां न रिश्तों के लिये फुरसत हो और न ही जज़्बातों के लिये। प्रैक्टिकल बनना ज़रुरी है...पर गांव की ये शिक्षा तो सिर्फ सेंटीमेंटल ही बना सकती है और सेंटीमेंटल बनकर कभी विकास नहीं किया जा सकता।
बस इसी तरह मौज के साथ अपनी दसवीं कक्षा की पढ़ाई चल रही थी..दसवीं की ये परीक्षा गांवों में बहुत ही अहम् मानी जाती है और यदि आपने गांव में टाप कर लिया तो समझा जाता है कि आप ओलंपिक के स्वर्ण पदक विजेता है..मुझे भी इस परीक्षा की तैयारी में झोंका जा चुका था। जिस तरह शहरों में आईआईटी, आईएएस के कोचिंग सेंटर कुकुरमुत्तों की तरह नज़र आते हैं ऐसे ही गांवों में दसवी-बारहवी की परीक्षा के लिये कोचिंग सेंटर चलते हैं..मेरे घर के लोग इस महासंग्राम में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे और मुझे गांव के तीन-तीन सर्वश्रेष्ठ कोचिंग सेंटर में पढ़ने भेजा जाता था..और शायद उन कोचिंग सेंटर की ही कृपा रही हो कि वहां से हासिल की गई तालीम की बदौलत बमुश्किल फर्स्ट डिवीजन बना के पास हुआ क्योंकि घर में पढ़ना क्या होता है इसकी दूर-दूर तक कोई जानकारी मुझे नहीं थी..कोचिंग और स्कूल के बाद यदि कोई चीज़ से मेरा लगाव था तो वो था क्रिकेट और इन तमाम चीज़ों के अलावा मेरा अगला गंतव्य क्रिकेट का मैदान ही होता था। इसलिये बोर्ड के उन एक्साम के बीच में भी क्रिकेट खेलने का कोई मौका नहीं छोड़ता।
खैर, जैसे-तैसे दसवीं की कक्षा पास की...और अब एक बार फिर उस सुनहरे भविष्य के लिये बाहर जाने का वक्त आ रहा था..मेरे घर वाले फिर खुद से दूर करने और ज़िंदगी पर पालिश करने मुझे किसी शहर में भेजने को तैयार थे...उनकी ज़िद भेजने की थी तो मेरी भी न जाने की। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था..हमारी जिद चाहे कुछ भी क्युं न हो, चलती हमेशा किस्मत की ही है और वो मुझे देश के इस हृदय स्थल से दूर, एक दूसरे ही प्रदेश में ले जा रही थी..गुलाबी नगरी। जी हां अगला सफ़र अब इस पिंक सिटी से शुरु होगा जो मेरे जीवन का असल मायने में यू-टर्न था...मैं वहां पहुंचने के लिये तैयार था और ज़िंदगी अपना एक अलग ही मुकाम तलाशने की कवायद में लग गई थी..चलिये उस कवायद और नये शहर की दास्तां अब अगली किस्त में सुनाई जायेगी..अभी यही रुकते हैं.............
ज़ारी.............
ऐसे संस्मरणों को दिल से लिखने का मौका कभी नहीं चूकना दोस्त। चाहे किस्त कितनी ही देर में क्यों न लिखी जाए। जैसे मां-बाप के उपेक्षापूर्ण व्यवहार से आपने अन्दरखाने जो अपराधबोध महसूस करने का जिक्र किया है, ऐसी बातें बड़ा ध्यान खींचती हैं।
ReplyDeleteजी विकेश जी पूरे इत्मिनान से ये लेखन जारी रहेगा..शुक्रिया इस बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिये।।।
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया...
Deleteआभार आपका रविकर जी...
ReplyDeleteशुक्रिया...
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