२०१० के ख़त्म होने के साथ ही इक्कीसवी सदी का पहला दशक हमसे विदा हो जाएगा। यूँ तो गुजरा वक़्त दोबारा लौट के नहीं आता लेकिन उस गुजिश्ता दौर से हम कई चीजें सीखकर आने वाले कल में नए ढंग से कदम रख सकते हैं...गोयाकि आत्ममंथन नयी संभावनाओं के निर्माण में सहायक साबित होता है...बहरहाल
बात यहाँ हिंदी सिनेमा के सन्दर्भ में करना है...बीते कई दशकों की तरह इस दशक में भी हमारे हिंदी सिनेमा की सफलता का प्रतिशत तकरीबन पांच ही रहा। लेकिन यही पांच प्रतिशत कामयाबी नए लोगों और विभिन्न कार्पोरेट सेक्टर्स को फिल्म निर्माण के लिए ललचा रही है... और इसके चलते ही आज तकरीबन १०० वर्ष बाद भी भारतीय सिनेमा अपनी खास पहचान बनाये हुए है।
बीते दशक पे गौर किया जाय तो इस दशक में हम एक नए तरह के सिनेमा से रूबरू हुए, जो न तो पारम्परिक व्यावसायिक सिनेमा है नाही ये सामानांतर सिनेमा की तर्ज का है...ये अपने ही तरह का नया सिनेमा है जिसे विशेषज्ञ न्यूएज्ड सिनेमा कहते हैं। ये सिनेमा भी आज की युवा पीढ़ी की तरह सीधी-सपाट, खुली बातें करने वाला असल मानवीय चित्रण करता है...जहाँ मानव को उसकी खूबियों और कमजोरियों के साथ-साथ प्रस्तुत किया जाता है। इन फिल्मों के निर्देशक भी आज की पीढ़ी के ही है जो युवामन और आज के हालातों से भली भांति परिचित हैं। फरहान अख्तर, इम्तियाज अली, अब्बास टायरवाला, अयान मुखर्जी, कुनाल कोहली इसी श्रेणी के चर्चित नाम हैं।
बीते दशक में मल्टीप्लेक्स संस्कृति के फलने-फूलने के कारण नए विषयों पर बनी कम बजट वाली फिल्मो को भी दर्शक नसीब हुए...और इन फिल्मों को विश्व स्तर पर सराहना मिली। खोसला का घोसला, भेजा फ्राई, देव डी, उडान, इकबाल जैसी फिल्मो ने मुख्य धारा के सिनेमा को चुनौती दी। फलतः बड़े बैनर और निर्देशकों ने इस तरह की फिल्मों में अपने हाथ आजमाए।
लेकिन इन कुछ फिल्मो की कामयाबीयों को छोड़ दे और सांगोपांग आकलन करे तो इस दशक में भी हमारा सिनेमा हमेशा की तरह चुनिन्दा सितारों के इर्द-गिर्द घूमता रहा। जिस कारण अच्छे लेखको और निर्देशकों को सितारा केन्द्रित होकर काम करना पड़ा। सीमित प्रतिभा द्वारा संचालित इस उद्योग ने नयी संभावनाओं को पनपने का अवसर नहीं दिया। इस कारण जमकर पिष्टपेषण हुआ मतलब पुरानी फिल्मों के रीमेक बने और सफल व्यावसायिक सिनेमा को फार्मूले की तरह प्रयोग कर सीक्वल बनाये गए। नए विषयों को अकाल बना रहा। धूम, हेरा-फेरी, गोलमाल इसी का नतीजा रही। इस श्रृंखला में 'मुन्ना भाई सीरिज' अपवाद रही। जो सीक्वल होते हुए भी उम्दा अभिव्यक्ति थी और दोनों फिल्मे गुणवत्तापरक थी।
सुभाष घई, राजकुमार संतोषी, डेविड धवन, महेश भट्ट जैसे निर्देशकों की जगह नए निर्देशकों ने अपने कदम जमाये। लगान, ब्लेक, दिल चाहता है, रंग दे बसंती, ३ इडियट्स जैसी फिल्मों से आशुतोष गोवारिकर, संजय लीला भंसाली, राजकुमार हिरानी, राकेश ओमप्रकाश मेहरा को ख्याति मिली। संगीतकारों में भी प्रीतम, सलीम-सुलेमान, विशाल-शेखर, साजिद-वाजिद ने अपना खास मुकाम बनाया। विभिन्न म्युजिक रियलिटी शो के जरिये गायकी में भी नयी प्रतिभाओ को अवसर मिले, जिससे उन्होंने भी बालीवुड के इस समंदर में खुद को स्थापित किया...सुनिधि चौहान, श्रेया घोषाल को सितारा हैसियत मिली।
शाहरुख़ खान, सलमान, अक्षय कुमार, अजय देवगन, हृतिक रोशन बुलंदियों पे रहे..लेकिन यदि दशक का सुपरस्टार चुनने की बात हो तो निर्विवाद रूप से आमिर खान श्रेष्ठ साबित होंगे...जिन्होंने लगान, रंग दे बसंती, तारे ज़मीन पर, दिल चाहता है, फ़ना, गजनी, ३ इडियट्स जैसे नगीने इंडस्ट्री को दिए, बस 'मंगल पांडे' इस दशक का उनके लिए हादसा रहा। संजय दत्त, अनिल कपूर लगातार तीसरे दशक में अपनी जगह बचाए रखने में सफल हुए।
भले ही नए निर्देशकों, लेखकों, संगीतकारों, गायकों का आगाज हुआ पर प्रतिष्ठित नाम भी अपनी उपस्थित दर्ज कराते रहे, और अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखा। यश चोपड़ा, श्याम बेनेगल, मणिरत्नम, सूरज बडजात्या, राम गोपाल वर्मा ने क्रमशः वीरजारा, जुबैदा, गुरु, विवाह, सरकार जैसी फिल्मों से खुद को मुख्य धारा में जोड़े रखा। तो वही a.r. रहमान, शंकर-अहसान-लॉय, उदित नारायण, सोनू निगम, लता मंगेशकर, अलका याग्निक जैसी हस्तियाँ अपनी मुस्तैदी के साथ बने रहे।
इस बीच अनुराग कश्यप, अनुराग बासु, मधुर भंडारकर जैसे फिल्मकारों ने लीग से हटकर फिल्म निर्माण कर तारीफें बटोरी...इनकी बनाई ब्लेक-फ्राईडे, मेट्रो, पेज ३ जैसी फिल्मो को काफी सराहना मिली। कई बी ग्रेड फिल्मे भी इस दरमियाँ आई जो अश्लीलता से लबरेज थी और उन्होंने मुख्यधारा के सिनेमा में आने की भरसक कोशिशें भी की। मर्डर, ख्वाहिश, शीशा जैसी कुछेक फिल्मे कमाई भी करने में सफल रही..पर बाद में इन पर ब्रेक लग गया, अब यदि ये बनती भी हैं तो मुख्य धारा से अलग रहकर इनका एक खास लक्षित दर्शक वर्ग होता है। इमरान हाशमी इस तरह की फिल्मो से सितारा बने। इस दशक की हास्य फिल्मो का जिम्मा प्रियदर्शन, अनीस बाजमी जैसे निर्देशकों ने संभाला। परेश रावल, राजपाल यादव, बोमन ईरानी प्रमुख चरित्र अभिनेता बनकर उभरे।
हमेशा की तरह महिला केन्द्रित फिल्मे न के बराबर बनी..लेकिन पुरुष केन्द्रित फिल्मों में नारी की छवि सशक्तता से प्रस्तुत हुई..जिससे बोल्ड होती नारी की महत्वकांक्षाएं खुलकर सामने आई। पिंजर, चमेली, लज्जा, फैशन, सलाम नमस्ते, पेज ३, जब वी मेट, लव आजकल जैसी फिल्मो में नारी अपने अधिकारों के लिए सजग नजर आई। आतंकवाद, नक्सल समस्या, समलैंगिकता, किसान आत्महत्या जैसे विषयों को लेकर फिल्म निर्माण हुआ। अ वेडनेसडे, मुंबई मेरी जान, आमिर, रक्तचरित्र, पीपली लाइव सफल रही।
कई कम बजट की अनापेक्षित फिल्मे सफल रही तो दूसरी ओर कई बड़े निर्देशकों की स्टारकास्ट से सजी महंगी फिल्मे औंधे मूंह गिरी। हालिया रिलीज काइट्स, खेलें हम जी जान से, रावण समेत मंगल पांडे, सांवरिया, रामू की आग, चांदनी चौक २ चाइना, पहेली, बिल्लू, कैश, लन्दन ड्रीम्स, ब्लू जैसी फिल्मे बुरी तरह फ्लॉप हुई...ये लिस्ट बहुत लम्बी है।
खैर, दस वर्षों के सिनेमा जगत पे महज एक लेख के जरिये कुछ नहीं कहा जा सकता। ये तो बस एक सरसरी निगाह दौड़ाने का प्रयास भर था। बस अब आने वाले वर्षों में हमारे सिनेमा से कुछ उम्दा, सार्थक, मनोरंजक फिल्मों की आशा रहेगी। क्योंकि ये सिनेमा हमारे लिए महज मनोरंजन का जरिया नहीं बल्कि हमारे समाज का दर्पण भी है। अंत में इन दस वर्षों की श्रेष्ठ फिल्मों के नाम याद कर विराम लूँगा.. ये श्रेष्ठ फिल्मे मेरी व्यक्तिगत पसंद पे आधारित है इन्हें विशेषज्ञों के मापदंडो पर न तौले-
लगान, दिल चाहता है, कोई मिल गया, मुन्नाभाई m.b.b.s., स्वदेश, रंग दे बसंती, जब वी मेट, तारे जमीन पर, नमस्ते लन्दन, ३ इडियट्स........................
(दैनिक पत्र 'राज एक्सप्रेस' एवं मासिक पत्रिका 'विहान' व 'सूचना साक्षी' में प्रकाशित)