Tuesday, July 23, 2013

प्रेमचंद के साहित्य में प्रस्तुत नारी

आगामी 31 जुलाई को उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की 133 वी जन्मजयंती है इस अवसर पर पीपुल्स समाचार के विशेष अंक हेतु मैनें आलेख तैयार किया है जो आप सबके समक्ष प्रस्तुत है-


जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाये तो वो कुलटा बन जाती है गोदान में उद्धृत ये पंक्तियां प्रेमचंद का नारी को देखने का संपूर्ण नजरिया प्रस्तुत करती हैं। आज हिन्दुस्तान नारी को सशक्त बनाने के लिये जिस क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है उस नारी को प्रेमचंद बहुत पहले ही सशक्त साबित कर चुके हैं। प्रेमचंद के साहित्य की स्त्री कर्मभूमि में उतरकर पुरुष के कांधे से कांधा मिलाकर देश की आजादी के लिये संघर्ष करती है, उसे गबन कर लाये पैसों से अपने पति की भेंट में मिला चंद्रहार स्वीकृत नहीं है, वो एक गरीब किसान के दुख-दर्द की सहभागी बन अपना पतिव्रता धर्म भी निभाती है, वो बड़े घर की बेटी भी है और उस सारे पुरुष वर्चस्व वाले परिवार में मानो अकेली मानवीय गुणों से संयुक्त है, वो मजबुरियों में पड़े अपने परिवार के लिये समाज के सामंत वर्ग से बिना डरे ठाकुर के कुएं पे जाकर तत्कालिक व्यवस्था को चुनौती देती है और कभी एक माँ बनकर अपने बच्चे के लिये खुद की जान भी लुटा देती है।

मुंशी प्रेमचंद ने अपने साहित्य में जिस परिदृश्य को चित्रित किया है वो कतई नारी के अनुकूल नहीं रहा है और नारी उस काल में समाज के पिछले पन्ने का ही प्रतिनिधित्व करने वाली रहा करती थी। लेकिन इसके बावजूद मुंशीजी के साहित्य में नारी चरित्र उभरकर सामने आये हैं और इन साहित्य को देख लगता है कि मानों नारी समाज की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व कर रही है और पुरुष हासिये पे फेंक दिये गये है। उनके दो दर्जन से अधिक उपन्यासों में से निर्मला, मंगलसूत्र, कर्मभूमि, प्रतिज्ञा तो ऐसे उपन्यास हैं जो पूर्णरूपेण नारी चरित्रों पर ही केन्द्रित रहे हैं तो अन्य भी जो उपन्यास रहे हैं उनमें भी स्त्री चरित्र को पुरुष के समानांतर ही प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद की सैंकड़ो कहानियों में से जो कुछेक अति प्रसिद्ध कथाएँ रही हैं वो भी अपने प्रमुख नारी चरित्रों के कारण जानी जाती है जिनमें से ठाकुर का कुआँ, पूस की रात, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दूध का दाम अति प्रसिद्ध हैं। उनके साहित्य में प्रस्तुत नारी छवि को देख ऐसा जान पड़ता है कि मानों समाज में मानवोचित गुणों की वाहक मात्र नारी ही है और जो पुरुष मानवीय गुणों से संपन्न हैं, वे भी नारी के प्रभाव में आकर ही मानवीयता से संपन्न हुए हैं। कर्मभूमि के बाप-बेटे समरकांत और अमरकांत में देवत्व की स्थापना कर, उन्हें स्वतंत्रता के संघर्ष में झोंकने वाले नारी पात्र सकीना, सुखदा और मुन्नी को भला कौन भूल सकता है।

प्रेमचंद, महिला चरित्रों को कर्म, शक्ति और साहस के क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष प्रस्तुत करते हैं पर महिला की नैसर्गिक अस्मिता, गरिमा और कोमलता को वो अक्षुण्ण रखते हैं। प्रेमचंद का साहित्य उन तमाम आधुनिक महिलासशक्तिकरण के चिंतको के लिये उदाहरण प्रस्तुत करता हैं जो नारी को सशक्त बनाने के लिये उसके चारित्रिक पतन की पैरवी करते हैं और उसकी अस्मिता के भौंडे प्रदर्शन को नारी शक्ति का प्रतीक मानते हैं। वे नारी के समावर्णन में पूर्वाग्रही नहीं है अपने एक उपन्यास में प्रेमचंद लिखते हैं नारी हृदय धरती की भांति है, जिससे मिठास भी मिल सकती है और कड़वाहट भी स्त्री के सतीत्व को प्रेमचंद ने भरपूर सम्मान दिया है और उसकी पवित्रता पे प्रश्नचिन्ह उठाने वालों के लिये वो अपने उपन्यास प्रतिज्ञा में लिखते हैं स्त्री हारे दर्जे ही दुराचारिणी होती है, अपने सतीत्व से ज्यादा उसे संसार की किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता और न ही वो किसी चीज को इतना मूल्यवान समझती है ये पंक्तियां आज के उन तमाम बौद्धिक व्यायाम करने वाले तथाकथित आधुनिक लोगों पर तमाचा है जो स्त्री की वासनात्मकता को अनायास ही स्वर देकर उसकी भोग-वाञ्छा को साबित करना चाहते हैं और उसे सही ठहराकर नारी को सशक्त साबित करने का बेहुदा कृत्य करते हैं। एक अन्य जगह प्रेमचंद लिखते हैं नारी स्नेह चाहती है, अधिकार और परीक्षा नहींउसकी स्नेह की चाहत को कतई अन्यथा नहीं लेना चाहिये।

इसके अलावा नारी के मातृत्व को प्रेमचंद ने जिस तरह से प्रस्तुत किया है वो कहीं ओर विरले ही देखने को मिलता है। मातृत्व के वर्णन में कई बार उनकी अति भावुकता की झलक हम देख सकते हैं उसकी वजह शायद ये हो सकती है कि प्रेमचंद ने बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया था और माँ के प्यार की कसक ताउम्र उन्हें सालती रही। गोदान में वो लिखते हैं- नारी मात्र माता है और इसके उपरान्त वो जो कुछ है वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र। मातृत्व विश्व की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय हैइस मातृत्व के नैसर्गिक गुणों के कारण ही प्रेमचंद नारी को दया, करुणा और सेवा की महान् मूर्ति साबित करते हैं। सेवाभाव की महत्ता का वर्णन करते हुए वो लिखते हैं- सेवा ही वह सीमेंट है, जो दम्पत्ति को जीवन पर्यंत प्रेम और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का कोई असर नहीं होता और नारी ही सेवा का पर्याय है नारी की उत्कृष्टतम दया का वर्णन करते हुए वे अपनी कथा में लिखते हैं बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊँ फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है।

प्रेम और नारी छवि के महत्वपूर्ण प्रसंग पर भी प्रेमचंद की दृष्टि गौर करने लायक है। उन्होंने नारी में प्रेम से ज्यादा श्रद्धा को तवज्जो दी, श्रद्धा को ही महान् साबित किया और उनकी नज़र में प्रेम, हमेशा दोयम दर्जे का ही रहा। वे लिखते हैं- प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूंखार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की दृष्टि भी नहीं पड़ने देता। श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना भगवान बना लेती है, प्रेम अधिकार करना चाहता है। आज के दौर में प्रचलित अय्याशियों का प्रतीक बना वेलेंटाइन डे नुमा प्रेम, प्रेमचंद की दृष्टि में कतई सम्मान का प्रतीक नहीं है। आज के भोगप्रधान विश्व में प्रेम अक्सर हिंसा का रूप अख्तियार कर लेता है। एक असफल प्रेम से पैदा हुई सनक का ही फल है कि लड़कियों को हत्या और तेजाब फेंकने जैसी दुर्दांत घटनाओं का शिकार होना पड़ता है।

प्रेमचंद के साहित्य की नारी महज नारी नहीं, वह इस भौतिक जगत से कहीं ऊपर उठकर एक दैवीय रुप धारण कर लेती है। जिसके समावर्णन को पढ़ ऐसा लगता है कि नारी के ही कारण इस धरती पर इंसानियत जीवित है और उसकी ही वजह से एक संतुलन कायम है। भले सरकार और हमारी शिक्षा प्रणाली आज महिला को समाज की मुख्यधारा में लाने के जी-तोड़ जतन कर रही है पर पुरुष मानसिकता को बदलने में सब नाकाम है..और इस पुरुष वर्चस्व प्रधान समाज में, घर के बाहर की बात तो रहने ही दो...घर-परिवार के अंदर ही महिला इस पुरुष मानसिकता का शिकार है जहां उसे अपनी पसंद, अपनी इच्छाओं, जिजीविषाओं का गला हरक्षण घोंटना पड़ता है। इसी पुरुष मानसिकता की देन है कई छुपे हुए गहन अपराध, भ्रुणहत्या,  दहेज, महिलाउत्पीड़न, घरेलू हिंसा आदि। आज के वक्त में जब जनता दामिनी, गुड़िया और प्रीति पे हुए अन्याय का बदला लेने के लिये सड़को पर है इस दौर में प्रेमचंद का नारी के प्रति दृष्टिकोण सर्वाधिक प्रासंगिक है।

12 comments:

  1. बड़े गूड सवाल हैं ...और सदियों से चले आ रहें है ..बुद्धिजीवियों के लिए... मैं तो ये ही कह सकता हूँ कि हमें अपने गिरेबान में झाँकने की ही ज़रूरत है !
    बहुत प्रभावशाली लेखनी है आपकी ...
    बधाई !

    ReplyDelete
  2. अंकुर मैं आपको बता नहीं सकता, इसे पढ़कर मुझे कितना सुख मिला, प्रेमचंद को एक नये आइने में देख सका हूँ इस लेख को पढ़कर, प्रेमचंद पर आपकी रीडिंग बहुत गहरी है और बहुत संवेदनशीलता के साथ की गई है। आपने कविताओं पर भी एक ब्लाग लिखा है, उस तक भी पहुँचुँगा शीघ्र ही लेकिन मुझे लगता है कि कविता पढ़ने के लिए एक विशेष मूड चाहिए होता है नहीं तो कविता के मूल्यांकन में अन्याय हो जाता है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. ये आपका बढ़प्पन एवं साहित्य की गहन समझ है सौरभजी..जो मेरे भाव आप तक उस रूप में पहुँच पाते हैं जैसा मैं बताना चाहता हूँ...आपका उत्साहवर्धन मेरे लिये एक बेहद अहम् टॉनिक का काम करता है...धन्यवाद आपका।

      Delete
  3. प्रेमचंद को मैं अबतक पिछडे, पददलित, शोषित और गरीब किसानों की दुर्दशा पर लिखले वाले लेखक के रूप में ही जानता था। कभी उनके लेखनी को महिला विमर्श के नजरिए से देखने की जहमत नहीं की थी। लेकिन आपके इस लेख को पढने के बाद प्रेम चंद के साहित्य में नारी विमर्श की जो झलक मिली है उससे एक बार फिर से उनके साहित्यिक कृतियों को पढने और समझने की इच्छा जाग गई है। इसके साथ् ही आपकी सूक्ष्म दृष्टि और अवलोकन क्षमता की दाद देना मैं चाहुंगा। मंुशी जी के कृतियों से उद्धृत उनके विचारों द्वारा लेख को र्तक की कसौटी पर कसकर सत्यापित करने की आपकी क्षमता भी काबिले तारीफ है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आपका...

      Delete
  4. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  5. सर्वप्रथम एक साहित्‍यकार के प्रति इतना सम्‍मान, भावनागत लगाव रखने के लिए आपको धन्‍यवाद। प्रेमचन्‍द ने नारी के प्रति जो दर्शन, सम्‍मान, आत्‍मज्ञान अपने साहित्‍य में प्रस्‍तुत किया है निश्‍चित रुप से सरकार द्वारा प्रायोजित आज का नारी सशक्तिकरण कार्यक्रम उसके सम्‍मुख भौंडा व बचकाना ही है। नारीत्‍व के उत्‍थान के लिए जो सूत्र प्रेमचंद ने व्‍यक्‍त किए हैं, उनकी प्रासंगिकता सदैव ही बनी रहेगी। .......आलेख अच्‍छा है। शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  6. बहुत-बहुत शुक्रिया विकेश जी...

    ReplyDelete
  7. मैं क्या कहूँ ऊपर के सभी टिपण्णीकारों से सहमत हूँ ।

    ReplyDelete
  8. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  9. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  10. Premchand ke stree purush sambandho aur dampaty jeevan par bhi likhiye plzzz

    ReplyDelete

इस ब्लॉग पे पड़ी हुई किसी सामग्री ने आपके जज़्बातों या विचारों के सुकून में कुछ ख़लल डाली हो या उन्हें अनावश्यक मचलने पर मजबूर किया हो तो मुझे उससे वाकिफ़ ज़रूर करायें...मुझसे सहमत या असहमत होने का आपको पूरा हक़ है.....आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह हैं-