देश की स्वतंत्रता 65 वर्ष की हो चुकी है...काफी कुछ बदला पर कुछ चीजें जस की तस की है। उन्हीं में से एक है आज भी महिलाओं की स्थिति, महिलाओं के प्रति पुरुष की सोच। यकीनन आज के दौर में ये बात करना बड़ा अजीब लगता है जबकि आज जहां महिलाएं अंतरिक्ष में पहुंच रही हैं, ओलंपिक में मेडल जीत रही है, राजनीति और सिविल सर्विसेस में नाम कमा रही हैं।
ये सच हैं कि आज सतीप्रथा, अशिक्षा, बेमेल विवाह जैसे मामले सुनने में नहीं आते। महिलाओं के प्रेम संबंधों, अंतर्जातीय विवाह जैसी चीजों को समाज का कुछ समृद्ध और शिक्षित वर्ग दकियानूस नज़रों से नहीं देखता...लेकिन फ़िर भी पुरुष की तथाकथित मर्दाना सोच आज भी उसे ज़िस्म से ऊपर और यौन संतुष्टि से परे मानने को तैयार नहीं है। निश्चित तौर पर समाज में एक ऐसा भी पुरुष वर्ग है जो महिलाओं को आदर, सम्मान की नज़र से देखता है पर उस वर्ग की तादाद बहुत कम हैं। को-एड एजुकेशन से शिक्षित होती, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती, आगे बढ़ती महिला पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ती दिख रही है... लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? क्या सच में आज महिला और पुरुष एक ज़मीन पर खड़े हैं? इन प्रश्नों पर थोड़ी गहराई में जाकर विचार करें तो हमें समझ आए कि महिलासशक्तिकरण शब्द कितना बड़ा छलावा है।
हर दिन बसों, ट्रेनों और अन्य पब्लिक ट्रांसपोर्ट के साधनों में अनचाही छूअन से गुज़रती महिला.. कॉलेज, ऑफिस और सड़कों पर महिला के बदन का पोस्टमार्टम करती पुरुष की निगाहें...तीखे, अनचाहे कानों में पड़ते शब्दवाण...अश्लील एसएमएस, कमेंट्स और जोक्स को सहती नारी जब रात में नींद लेने जाती होगी तो उस छुअन, उन निगाहों और शब्दों के सांपों को अपने बदन में लिपटता हुआ महसूस करती होगी...और ये वो सांप है जिसका ज़हर बिना डसे तड़प पैदा करता है।
किसी नौकरी में ऊंचे पद पर आसीन महिला के ऊपर भी उस ऑफिस के निचले दर्जे के कर्मचारी द्विअर्थी जोक्स मारने से परहेज़ नहीं करते..उन पुरुषों की निगाहें अपनी बॉस को भी पहले छद्म निगाहों से देखती है फिर उसे अपना बॉस मानती है। पुरुष मानसिकता आज भी महिला पर शासन जमाने को अपना हक़ समझती है...महिला से स्वयं का शासित होना उसे बर्दाश्त नहीं।
आज अपने करियर में एक मुकाम बनाने की चाह रखने वाली महिला को किन मानसिक प्रताड़नाओं से गुज़रना पड़ता है ये शायद सिर्फ वही जानती है...और अगर अत्यधिक महत्वकांक्षी नारी हो तो उसे दलदल में उतरने से गुरेज़ नहीं। ऊंचे महकमों पे तैनात आला अफसरों की ज़िस्मानी भूख मिटाने का भोजन नारी बनती है...जहां उसे नाम, शोहरत, पैसा सब कुछ तो मिलता है पर नारीत्व ही समाप्त हो जाता है। कुछ महिलासशक्तिकरण के ठेकेदार नारी के इस कृत्य की वकालत करते पाए जाते हैं...उनके द्वारा स्त्री के कई लोगों से संबंध, विवाहेतर संबंध रखना आदि भी उदारवादी नज़रों से देखा जाता है, इसे वे महिला की प्रगतिवादी सोच कहते हैं। आश्चर्य होता है कि चारित्रिक पतन को कैसे महिलासशक्तिकरण का पर्याय माना जा सकता है और ख़ास तौर पर उस देश में जहां दुर्गा, सरस्वती और सीता की पूजा होती है। महिलासशक्तिकरण और महिलाविकास का राग आलापने वाले ये महानुभव..ऐसे विचार प्रगट कर अपनी हवस में आने वाले राह के रोड़ो को साफ करने की मंशा रखते हैं... और इनकी दिली तमन्ना यही होती है कि महिला की सोच इसी तरह तथाकथित प्रगतिवादी बने। गंदगी साफ करने के लिए कीचड़ में उतरना ज़रुरी होता है पर कीचड़ खाकर गंदगी साफ करना समझदारी नहीं है। महिला का सबसे बड़ा गहना उसका चरित्र है उस गहने को बेंचकर महिलासशक्तिकरण पाना, बहुत महंगा सौदा है।
अफसोस, कि भले सरकार और हमारी शिक्षा प्रणाली आज महिला को समाज की मुख्यधारा में लाने के जी-तोड़ जतन कर रही है पर पुरुष मानसिकता को बदलने में सब नाकाम है..और इस पुरुष वर्चस्व प्रधान समाज में, घर के बाहर की बात तो रहने ही दो...घर-परिवार के अंदर ही महिला इस पुरुष मानसिकता का शिकार है जहां उसे अपनी पसंद, अपनी इच्छाओं, जिजीविषाओं का गला हरक्षण घोंटना पड़ता है। शादी से पहले तक वह परिवार में बोझ है और घर की इज़्जत का जिम्मा भी बेचारी इस अबला पर है और शादी के बाद वो एक भोग्या है और यहां भी घर की इज़्जत की ठेकेदार ये अबला है...पर आश्चर्य, जिस पर घर की इज्जत टिकी है उसकी ही घर में इज्जत नहीं है। इसी पुरुष मानसिकता की देन है कई छुपे हुए गहन अपराध..यथा-भ्रुणहत्या, दहेज, महिलाउत्पीड़न, घरेलू हिंसा आदि।
हमारा सिनेमा, विज्ञापन, अखबार और तमाम मीडिया महिला को एक वस्तु की तरह ही पेश करते हैं..हर जगह नारी लुभाने की एक वस्तु है और मार्केटिंग का अहम् ज़रिया। पुरुष मानसिकता इस क़दर समाज में घुल गई है कि महिला भी आज इस मानसिकता के प्रति सकारात्मक सोच रखने लगी है...उसे खुद के इस्तेमाल होने से गुरेज़ नहीं...और अपने भौंडे प्रदर्शन को वो खुद की तरक्की समझ बैठी है। आज उसके मूंह पे भी पुरुषों की भांति गाली है, जेब में हथियार है, चाल में ऐंठन हैं और ये सारी चीजें उसके लिए महिलासशक्तिकरण का प्रतीक है...पर इन सारी क्रियाओं में नारी कहां है? पुरुष और नारी दोनों का अपना अलग स्वतंत्र व्यक्तित्व है, अपना ही संसार है और इन दोनों के स्वतंत्र व्यक्तित्व से ही संतुलन है। नारी खुद में पुरुष के गुण समाहित करके अगर सोचे कि वो सशक्त हो गई है तो ये एक भूल है...और वो भी उन गुणों को जो पुरुष में भी होना अच्छा नहीं है। नारी की अस्मिता उसकी कोमलता, शर्म, प्रेम, करुणा, ममता से जानी जाती है इन गुणों का ह्रास होना भला कैसा महिलासशक्तिकरण है।
खैर, भले एकतरफ महिलासशक्तिकरण के लिए हमारा तंत्र अपनी पीठ थपथपाता रहे..पर आए दिन भंवरीदेवी, गीतिका जैसी महिलाओं के साथ घटी घटनाएं हमारे तंत्र को आइना दिखा देती है...और इन घटनाओं में शुमार हमारे कानून और राजनीति के ठेकेदारों को भी उनकी गिरेबान में झांकने पे मजबूर कर देती है। इन सब चीजों से एक बात समझ में आती है कि महिलासशक्तिकरण, कभी भी महिला की सोच बदलने से नहीं आ सकती...महिलासशक्तिकरण के लिए पुरुष की सोच बदलना ज़रुरी है। ये ठीक उसी तरह है कि अपराध का जड़ से सफाया, पुलिस के कदमों पर नहीं...अपराधीयों के कदमों पर निर्भर है।